कई राज्य इन दिनों मच्छरजनित बीमारियों का प्रकोप झेल रहे हैं। कुछ राज्यों में तो डेंगू और मलेरिया के सारे रेकार्ड टूट गए हैं। इस वर्ष 30 सितंबर तक दिल्ली में मलेरिया के करीब साढ़े चार सौ मामले सामने आए, जो पिछले वर्ष इसी अवधि के दौरान दर्ज किए गए कुल 260 मामलों की तुलना में 70 फीसद से ज्यादा हैं। इसी अवधि के दौरान 2022 में दिल्ली में मलेरिया के 80, 2021 में 74 और 2020 में 131 मामले सामने आए थे। छत्तीसगढ़ सहित कुछ राज्यों में तो इस वर्ष मलेरिया के एक हजार से ज्यादा मामले दर्ज हो चुके हैं।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक कई मलेरिया बहुत खतरनाक होते हैं, जिससे मरीज की मौत हो जाती है। भारत रेजिस्टेंट मलेरिया का क्षेत्र है। इसके अलावा फैल्सीपेरम मलेरिया और अधिक खतरनाक होता है, जिसमें रक्तचाप कम हो सकता है, गुर्दा और यकृत फेल हो सकते हैं तथा मरीज कोमा में जा सकता है। इसमें मरीज को शीघ्र उचित इलाज न मिले तो उसकी मौत भी हो सकती है। ऐसा नहीं कि मलेरिया केवल भारत की स्वास्थ्य समस्या है, बल्कि यह मच्छरों के काटने से होने वाली ऐसी जानलेवा बीमारी है, जिसके कारण दुनिया भर में प्रतिवर्ष लाखों लोग मौत के मुंह में समा जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 2022 में दुनियाभर में मलेरिया के करीब 24.9 करोड़ नए मामले सामने आए थे और इससे छह लाख आठ हजार लोगों की मौत हुई। वैसे, मलेरिया के सभी मामलों में से 94 फीसद मामले केवल अफ्रीकी क्षेत्र में थे।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अफ्रीकी क्षेत्र मलेरिया का सबसे बड़ा बोझ वहन करता है, जहां 2022 में मलेरिया के 94 फीसद मामले सामने आए और दुनिया भर में मलेरिया से हुई करीब 95 फीसद मौतें अफ्रीकी क्षेत्र में हुईं। अफ्रीकी क्षेत्र में गरीबी में रहने और शिक्षा तक कम पहुंच वाली ग्रामीण आबादी सर्वाधिक प्रभावित हो रही है। उप-सहारा अफ्रीका के सबसे गरीब घरों के पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में सबसे अमीर घरों के बच्चों की तुलना में मलेरिया से संक्रमित होने की संभावना पांच गुना अधिक है। मलेरिया न केवल सीधे तौर पर स्वास्थ्य और जीवन को खतरे में डालता है, बल्कि यह असमानता के दुश्चक्र को भी कायम रखता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक गर्भवती महिलाओं, शिशुओं, पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों, शरणार्थियों, प्रवासियों, आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों और स्वदेशी लोगों सहित सबसे कमजोर परिस्थितियों में रहने वाले लोगों पर इसका असमान रूप से प्रभाव पड़ रहा है।

मलेरिया मुक्त विश्व बनाना डब्लूएचओ का लक्ष्य

डब्लूएचओ का लक्ष्य मलेरिया मुक्त विश्व बनाना है, लेकिन उसका मानना है कि हालांकि हर किसी को मलेरिया की रोकथाम, पता लगाने और इलाज के लिए गुणवत्तापूर्ण, समय पर और सस्ती सेवाओं का अधिकार है, लेकिन यह सभी के लिए उपलब्ध नहीं है। लैंगिक असमानताएं, भेदभाव और हानिकारक लैंगिक मानदंड इस रोग से ग्रस्त होने के जोखिम को बढ़ा देते हैं। अगर इलाज न मिले तो गर्भावस्था में मलेरिया गंभीर एनीमिया, मातृ मृत्यु, मृत बच्चे का जन्म, समय से पहले प्रसव और कम वजन वाले शिशुओं का कारण बन सकता है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि जलवायु परिवर्तन और मानवीय आपात स्थितियां, जिनमें प्राकृतिक आपदाएं और मलेरिया-स्थानिक देशों में संघर्ष शामिल हैं, आबादी को विस्थापित कर रहे हैं, जिससे वे इस बीमारी के प्रति संवेदनशील हो गए हैं।

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हालांकि विगत दो दशक में हुए तीव्र वैज्ञानिक विकास और मलेरिया उन्मूलन के लिए चलाए गए वैश्विक कार्यक्रमों के कारण मलेरिया के आंकड़ों में अफ्रीकी क्षेत्रों के अलावा अन्य देशों में कमी आई है, पर अब भी इस पर पूर्ण रूप से नियंत्रण नहीं पाया जा सका है। वैसे तो ब्रिटिश दवा कंपनी ‘ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन’ ने 1987 में ही मलेरिया के टीके ‘मास्कीरिक्स’ का निर्माण शुरू कर दिया गया था, जिसे अफ्रीकी वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किया गया था, लेकिन इस टीके के विकसित किए जाने के करीब 34 वर्ष बाद 7 अक्तूबर 2021 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस्तेमाल की मंजूरी दी और वह भी शुरुआती दौर में केवल तीन देशों केन्या, घाना और मलावी के लिए।

मलेरिया टीके का असर आधा से भी कम

विशेषज्ञ मानते हैं कि मलेरिया का कारगर टीका बनने के बाद यह बीमारी भी चेचक और पोलियो की तरह दुनिया से गायब हो जाएगी। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन स्वयं कह चुका है कि मलेरिया के टीके की सफलता दर केवल 30 फीसद है, मगर इतनी कम सफलता दर के बावजूद इसे मलेरिया की रोकथाम में बड़ी उपलब्धि माना गया है। वैसे अधिकांश स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक किसी भी टीके की सफलता दर 70 फीसद तक नहीं होती, तब तक उसका असर नहीं दिखता। हालांकि उम्मीद जताई जा रही है कि 2025 तक मलेरिया का 80 फीसद से भी ज्यादा प्रभावशाली टीका विकसित कर लिया जाएगा, लेकिन तब तक मलेरिया के उपचार में सावधानी को ही सबसे बड़ी सुरक्षा माना जा रहा है।

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भारत सरकार ने वर्ष 2030 तक मलेरिया उन्मूलन का लक्ष्य रखा है। पर विश्व स्वास्थ्य संगठन से 2030 तक मलेरिया मुक्त भारत का आधिकारिक दर्जा पाने के लिए भारत को 2027 तक मलेरिया मुक्त बनाना जरूरी है। भारत में 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया था, जो घरों के भीतर डीडीटी छिड़कने पर केंद्रित था। उससे अगले पांच वर्षों में मलेरिया के मामलों में आश्चर्यजनक कमी देखी गई थी, जिससे उत्साहित होकर 1958 में ज्यादा महत्त्वाकांक्षी राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया गया। उससे मलेरिया के मामलों में तो काफी कमी आई, लेकिन मच्छरों में दवाओं को लेकर प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने से 1967 के बाद मलेरिया के मामले फिर से बढ़ने लगे। फिर सरकारी प्रयास मलेरिया उन्मूलन के बजाय मलेरिया नियंत्रण पर ही केंद्रित हो गए। अप्रैल 2024 से मार्च 2027 तक मलेरिया उन्मूलन परियोजना का तीसरा चरण मलेरिया से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में ‘राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम’ की निगरानी में चलाया जा रहा है, जिसे लेकर माना जा रहा है कि इस बीमारी के विरुद्ध भारत की लड़ाई अब अंतिम दौर में पहुंच गई है।

दुनिया के तीन दर्जन देश मलेरिया मुक्त

दुनिया भर के तीन दर्जन से ज्यादा देश मलेरिया मुक्त घोषित हो चुके हैं। इसलिए भारत में भी मलेरिया उन्मूलन की विभिन्न परियोजनाओं के जरिए इस लक्ष्य को हासिल करना ज्यादा मुश्किल नहीं है। मगर एक ओर जहां मौसम में आता बदलाव हर वर्ष मलेरिया की दृष्टि से खतरनाक साबित होता है, वहीं अभी तक मलेरिया का कोई प्रामाणिक टीका नहीं बन पाया है। आरडीटी (रैपिड डायग्नोस्टिक टेस्ट) तक सीमित पहुंच, दवाओं को लेकर प्रतिरोधी क्षमता का विकास, जागरूकता की कमी आदि मलेरिया से निपटने में अब भी बड़ी चुनौतियां हैं। भारत को पूर्ण रूप से मलेरिया मुक्त करने के लिए बेहद जरूरी है कि इसमें सामुदायिक भागीदारी बढ़ाने के साथ उपचार में व्याप्त असमानताओं को दूर करने की ओर विशेष ध्यान दिया जाए।

भारत में 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया था, जो घरों के भीतर डीडीटी छिड़कने पर केंद्रित था। उससे अगले पांच वर्षों में मलेरिया के मामलों में आश्चर्यजनक कमी देखी गई थी, जिससे उत्साहित होकर 1958 में ज्यादा महत्त्वाकांक्षी राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया गया। उससे मलेरिया के मामलों में तो काफी कमी आई, लेकिन मच्छरों में दवाओं को लेकर प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने से 1967 के बाद मलेरिया के मामले फिर से बढ़ने लगे। फिर सरकारी प्रयास मलेरिया उन्मूलन के बजाय मलेरिया नियंत्रण पर ही केंद्रित हो गए।