पुणे के पारिवारिक न्यायालय ने हाल ही में एक अहम फैसला सुनाया, जिसमें पत्नी की अंतरिम भरण-पोषण की मांग को खारिज कर दिया गया। महिला अपने पति से हर महीने 25 हजार रुपये गुजारा भत्ता मांग रही थी, लेकिन अदालत ने पाया कि उसने पहले से चल रहे मामलों की जानकारी छिपाई और एक से ज़्यादा अदालतों में एक जैसी याचिकाएं देकर “फोरम शॉपिंग” की कोशिश की। इस वजह से कोर्ट ने उसकी अर्जी न सिर्फ खारिज की, बल्कि उस पर जुर्माना भी लगाया।
महिला ने कोर्ट में दावा किया था कि उसके पास आय का कोई साधन नहीं है
महिला ने कोर्ट में दावा किया था कि उसके पास कोई आय नहीं है और वह पूरी तरह पति पर निर्भर है। उसने बताया कि उसका पति एक प्रतिष्ठित बैंक में काम करता है और हर महीने करीब दो लाख रुपये कमाता है। उसके पास दो लग्जरी कारें हैं और बैंकों में फिक्स्ड डिपॉजिट भी हैं। महिला ने यह भी कहा कि उसके माता-पिता की इंजीनियरिंग कंपनी हर साल 25 लाख रुपये से ज़्यादा की कमाई करती है, फिर भी वह खुद आर्थिक संकट में है और उसे बुनियादी खर्चों के लिए हर महीने 25,000 रुपये की जरूरत है।
उधर, पति ने अपने वकीलों मयूर पी सालुंके, अजिंक्य पी सालुंके और अमोल पी खोबरागड़े के माध्यम से इसका विरोध किया। उन्होंने कोर्ट को बताया कि महिला पहले से ही एक अन्य अदालत में घरेलू हिंसा के मामले में 5,000 रुपये प्रति माह का अंतरिम भरण-पोषण पा रही है, और साथ ही वह खुद एक अच्छी नौकरी करती है, जिससे उसे हर महीने करीब 40,000 रुपये की आमदनी होती है। पति ने यह भी कहा कि महिला ने उसके बैंक खातों, कारों और संपत्तियों के बारे में जो आरोप लगाए हैं, वे झूठे हैं। उसके ऊपर पहले से ही कई कर्ज हैं और वह अपने बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल भी करता है।
जज एस. एन. रुक्मे ने अपने आदेश में स्पष्ट किया कि महिला ने पहले से मिले भरण-पोषण की जानकारी छिपाई और यह तथ्य कोर्ट को गुमराह करने वाला है। साथ ही उसने नया भरण-पोषण पाने के लिए कोई नई वित्तीय मजबूरी भी साबित नहीं की। सुप्रीम कोर्ट के ‘रजनीश बनाम नेहा’ मामले का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि एक ही मामले में अलग-अलग अदालतों में याचिकाएं डालना “फोरम शॉपिंग” कहलाता है, जो स्वीकार्य नहीं है।
कोर्ट ने महिला की याचिका को कानूनी रूप से कमजोर और बेबुनियाद बताया और इसे खारिज कर दिया। साथ ही झूठ छिपाने और अदालत को गुमराह करने के लिए महिला पर जुर्माना भी लगाया गया। वकीलों ने कहा कि यह फैसला उन मामलों के लिए मिसाल बनेगा, जिनमें बिना ठोस आधार के भरण-पोषण की मांग की जाती है। अदालतों की यह सख्ती यह सुनिश्चित करेगी कि गुजारा भत्ता सिर्फ ज़रूरतमंदों को ही मिले, और झूठे दावों से अदालत का समय और संसाधन बर्बाद न हों।