लोकसभा चुनाव के लिए तीसरे चरण की वोटिंग खत्म हो गई है। महाराष्ट्र की चर्चित लातूर लोकसभा सीट पर भी तीसरे चरण के दौरान वोट डाले गए। हालांकि इस सीट पर किसानों के लिए सांसद चुनने से भी बड़ी समस्या उन्हें उनकी फसल की सही कीमत न मिलना है।

‘खरीफ सीजन में क्या उगाएं किसान’

महाराष्ट्र के लातूर जिले के किसान रमेश पाटिल ने इस सीजन में सोयाबीन की फसल छोड़कर सब्जियों में अपनी किस्मत आजमाने का फैसला किया है। वह अकेले नहीं हैं। मंगलवार को लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण में चल रहे मतदान के बीच भी किसे वोट देना है, उससे ज्यादा क्षेत्र के किसानों के पास पूछने के लिए एक और जरूरी सवाल था- इस खरीफ सीजन में क्या उगाएं?

चाकुर तालुका के चपुली निवासी रमेश पाटिल ने अपना वोट डालते हुए कहा कि उन्होंने सोयाबीन की खेती न करने का फैसला किया है क्योंकि यह अब उनके जैसे किसानों के लिए लाभदायक नहीं है। उन्होंने कहा, “अगर अच्छी बारिश हुई तो मैं अपनी पूरी तीन एकड़ जमीन पर सब्जियां उगा सकता हूं।”

रमेश पाटिल ने कहा, ‘पिछले साल सोयाबीन बोया था लेकिन पैदावार और रिटर्न दोनों ही अच्छे रहे हैं। तुअर को छोड़कर, लगभग सभी अन्य फसलों का व्यापार या तो सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से नीचे या उससे थोड़ा ऊपर हुआ है। इस बीच उत्पादन और मजदूरी की बढ़ी हुई लागत ने कई किसानों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। भले ही मौसम विभाग इस साल अच्छे मानसून की बात करता है, लेकिन किसान उत्साहित नहीं हैं। लातूर के थोक बाजार में (जो देश के सबसे बड़े सोयाबीन बाजारों में से एक है) तिलहन का कारोबार 4,600 रुपये के एमएसपी के मुकाबले 4,400 रुपये से 4,700 रुपये प्रति क्विंटल के बीच हुआ है।”

लातूर स्थित विकास फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी (FPC) के निदेशक विलास उफाडे ने किसानों को उम्मीद से कम रिटर्न मिलने के लिए केंद्र सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा, “यदि आप वनस्पति तेल के मुफ्त आयात की अनुमति देते हैं, तो किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य कैसे मिलेगा?” केंद्र सरकार ने पिछले साल वनस्पति तेल के टैक्स फ्री इंपोर्ट की अनुमति देने का फैसला किया था। इससे भारत ने 164.66 लाख टन से अधिक कच्चे वनस्पति तेल का आयात किया है जो पिछले कुछ वर्षों में अपने आप में एक रिकॉर्ड है।

कपास किसानों के लिए भी बड़ी है समस्या

लातूर के एक तेल मिल मालिक ने कहा कि औसत से कम पैदावार के बावजूद भी किसानों को अच्छा रिटर्न नहीं मिला। सिर्फ सोयाबीन उत्पादक ही नहीं जो अपनी ख़रीफ़ योजनाओं को लेकर दुविधा में हैं। कपास उत्पादकों की भी यही दुविधा है। महाराष्ट्र के अकोला जिले के अकोट तालुका के अदगांव बुद्रुक गांव के किसान लक्ष्मीकांत कौथकर आमतौर पर अपनी 40 एकड़ भूमि पर कपास और सोयाबीन बोते हैं।

लक्ष्मीकांत कौथकर ने कहा कि इस सीजन में दोनों फसलों से रिटर्न अच्छा नहीं रहा है। लक्ष्मीकांत कौथकर ने कहा, “कपास अब लगभग 7,000 रुपये प्रति क्विंटल (सरकार द्वारा घोषित एमएसपी 6,600 रुपये के मुकाबले) पर कारोबार कर रहा है और सोयाबीन अब लगभग 4,200 रुपये प्रति क्विंटल है। हर फसल की उत्पादन लागत कई गुना बढ़ गई है और घाटा बढ़ रहा है। मजदूरों की मजदूरी कई गुना बढ़ गई है। एक महिला श्रमिक को अब प्रति दिन 250 रुपये का भुगतान किया जा रहा है और एक पुरुष श्रमिक को 500 रुपये दिए जा रहे हैं। ये दोनों आंकड़े इस वर्ष बदल भी सकते हैं।”

अधिक मजदूरी लागत के कारण लक्ष्मीकांत कौथकर और अन्य किसानों ने कपास से दूर रहने का फैसला किया है, लेकिन सोयाबीन से भी रिटर्न अच्छा नहीं है। आम तौर पर भारत में 120 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन की बुआई होती है और इतनी ही एकड़ में कपास की बुआई होती है। हालांकि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजारों से कम मांग के कारण सोयाबीन की फसल की तरह ही कपास किसानों को भी उम्मीद से कम रिटर्न मिला है। बुलढाणा के संग्रामपुर तालुका के सोनाला गांव के किसान मुजाहिद अली ने इस साल कपास और सोयाबीन दोनों को छोड़ने का फैसला किया है। उन्होंने कहा कि मैं अपनी पूरी आठ एकड़ ज़मीन पर तूर लगाऊंगा और शायद मैं पिछले साल के अपने घाटे को कवर करने में सक्षम हो जाऊंगा।