क्या अजीत पवार ने भारतीय राजनीति के सबसे बड़े खिलाड़ी अपने चाचा शरद पवार को भी पछाड़ दिया है? या अपने भतीजे की इच्छा पर एनसीपी सुप्रीमो की मौन स्वीकृति है? क्या महाराष्ट्र में राजनीतिक तख्ता-पलट के पीछे शरद पवार का हाथ है? राजनीतिक गलियारों में इन सवालों की चर्चा काफी है। ऐसे में, महाराष्ट्र में बदलते सियासी समीकरण कांग्रेस और इसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी के भीतर शरद पवार के प्रति और भी गहरा संदेह पैदा कर सकता है।

दो हफ्ते पहले कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने अपना अड़ियल रवैया छोड़ शिवसेना के साथ हाथ मिलाने पर रजामंदी दी और (सरकार गठन को लेकर) सहमति तक पहुंचने के लिए एनसीपी के साथ एक लंबे दौर की बातचीत की। हालांकि, इस दौरान कई मौके आए जब कांग्रेस और इसके वार्ताकारों के मन में पवार के प्रति संदेह पैदा हुए। दरअसल, शरद पवार ने शुरुआत में कांग्रेस को जल्दबाजी नहीं करने की सलाह दी थी। इसके बाद उन्होंने सरकार गठन की डेडलाइन से घंटों पहले अतिरिक्त समय की मांग कर डाली। इसके बाद पीएम मोदी से उनकी मुलाकात ने कांग्रेस में भीतर उनके प्रति शंका पैदा कर दिया।

सोनिया गांधी का शरद पवार पर अविश्वास काफी पुराना है। 1999 में सोनिया गांधी को विदेशी मूल का बताकर पवार ने कांग्रेस से खुद को अलग कर लिया था। दरअसल, उस दौरान उनकी ख्वाहिश खुद को बतौर पीएम कैंडिडेट लॉन्च करने की थी। शरद पवार 1991 के वक्त से ही कांग्रेस के भीतर प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। 1991 में जब सांसदों और खासकर सोनिया गांधी का समर्थन पीवी नरसिम्हा राव के साथ नहीं था, तब उन्होंने राव का समर्थन किया और उनके लिए रास्ता तैयार किया। सोनिया गांधी के मन में पवार के लिए अविश्वास तब और गहरा हो गया, जब उन्होंने 1998 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर काबिज हुईं।

पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे प्रणब मुखर्जी ने अपनी आत्मकथा में सोनिया और शरद पवार की तनातनी पर लिखा है,” मेरी राय में, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष होने के नाते शरद पवार को उम्मीद थी कि पार्टी सोनिया गांधी की बजाए उनसे सरकार बनाने का दावा पेश करने का अनुरोध करेगी। बतौर कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी ने अपने उत्थान के बाद शरद पवार की बजाय सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर पी शिव शंकर से सलाह ली। अलगाव और असहमति वाली भावना का ही नतीजा था कि उन्होंने सोनिया के विदेशी मूल वाला बयान दिया और 1999 में पार्टी छोड़ दी।”

2004 में पवार यूपीए का हिस्सा बन गए। हालांकि, कृषि मंत्री रहते हुए भी पवार पर कांग्रेस का अंकुश लगा रहा। एनसीपी के मन में कड़वाहट का एक और नतीजा यह भी है कि उसे लगता है कि आईपीएल की धांधली में जब पवार और उनके परिवार का नाम आया, तब कांग्रेस ने उनके बचाव के प्रयास नहीं किए। यही नहीं, 2012 में कांग्रेस ने पवार के प्रति अविश्वास का संकेत तब एक बार फिर दिया, जब प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति बने तब एके एंटनी को कैबिनेट में नंबर दो का दर्जा दिया गया और पवार नंबर तीन पर आ गए।