प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जीतें या हारें, जान लीजिए, मैं ये नहीं कहूंगा कि भाजपा हारे या जीते, बिहार चुनाव के नतीजे मौजूदा राजनीतिक सीन पूरी तरह बदल देंगे। मोदी ने जो गलती की है वह यह कि उन्होंने इस चुनाव को पार्टी के बजाय निजी रायशुमारी बना दिया है। उन्होंने इसे नीतीश कुमार के साथ निजी लड़ाई बना लिया है। लोकसभा चुनाव में तो यह काम कर गया, जब मोदी पीएम कैंडिडेट थे। उन्होंने चुनाव को अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के तर्ज पर अपने और राहुल गांधी के बीच का मुकाबला बना दिया था।
मोदी तब राष्ट्रीय पटल पर नए थे। उनका कद भी काफी बड़ा था। वह वादों की भरमार लिए हुए थे। वह लगातार तथाकथित अच्छे दिन लाने का वादा कर रहे थे। लोग यूपीए सरकार की भ्रष्ट छवि से त्रस्त थे। अंतिम दो वर्षा के यूपीए के दिशाहीन शासन से लोगों में निराशा भरी हुई थी। यह सब मोदी के हक में काम कर गया। ठीक उसी तरह जैसे 2008 में जब ओबामा पहली बार जॉन मैक्केन के खिलाफ राष्ट्रपति का चुनाव लड़े थे तब उनका प्रचार अभियान इतना सटीक था कि दुनिया को लग रहा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए सही विकल्प बराक ओबामा ही हैं। उसी तरह मोदी के कैंपेन में भी युवा से लेकर मीडिया तक, सब कुछ मजबूत टीम वर्क की बदौलत सटीक था और नतीजा सबके सामने रहा। लगभग एकतरफा। मोदी भारी बहुमत से जीते।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में मोदी ने वही तरीका अपना कर वही सफलता दोहरानी चाही। मुकाबले को मोदी बनाम केजरीवाल बना दिया। पर इस बार बात नहीं बनी। नतीजा हैरान करने वाला था। एकतरफा। पूरी तरह केजरीवाल के पक्ष में गया। अगर दिल्ली विधानसभा के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ कराए जाते तो नतीजे कुछ और हो सकते थे। लेकिन लोगों को वक्त मिला और इस दौरान उन्होंने मोदी के गवर्नेंस की झलक देख ली। नतीजतन उन्होंने केजरीवाल को चुना।
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दिल्ली के अनुभव को भुलाते हुए मोदी ने एक बार फिर वहीं मॉडल अपना कर बड़ा दांव खेला है। प्रधानमंत्री ने बिहार के चुनावी मुकाबले को मोदी बनाम नीतीश बना दिया है। बिना यह सोचे कि नीतीश राहुल नहीं हैं। नीतीश अनुभवी नेता हैं और राज्य की राजनीति में उनकी जड़ें गहरी हैं। वह बिहारी जनता का मानस भी अच्छी तरह समझते हैं।
नीतीश सत्ता विरोधी (एंटी इनकम्बेंसी) फैक्टर से बेअसर रहने वाले हैं। दिल्ली की तरह बिहार के वोटर्स भी जानते हैं कि मोदी सीएम कैंडिडेट नहीं हैं और वह किसी भी सूरत में बिहार को नीतीश/लालू से बेहतर नहीं समझ सकते। यही कारण है कि नीतीश ने बहुत सोच-समझ कर ‘बिहार बनाम बाहरी’ का नारा चुना और इस्तेमाल किया। अगर बीजेपी के पास मुख्यमंत्री पद के लिए कोई बिहारी चेहरा होता तो शायद बात कुछ और हो सकती थी।
बिहार चुनाव के परिणाम पर पूरा देश (शायद पूरी दुनिया भी) नजरें गड़ाए बैठा है। इसकी वजह यह है कि यह चुनाव परिणाम देश की राजनीतिक दशा-दिशा बदल सकता है। अगर मोदी जीतते हैं (हालांकि, इसमें बड़ा किंतु-परंतु है) तो वह पार्टी और सरकार से ऊपर उठ जाएंगे। वह इस जीत को अपने कामकाज के ऊपर रायशुमारी मानेंगे और कहीं ज्यादा आक्रामक व अधिकारवादी हो जाएंगे।
लेकिन, अगर मोदी हार जाते हैं तो पार्टी और सरकार पर उनकी पकड़ काफी ढीली पड़ जाएगी। पार्टी के भीतर के प्रतिद्वंद्वदी अभी खामोश हैं। लेकिन तब वे खुल कर सामने आ जाएंगे और जुबानी हमले करेंगे। अमित शाह पर भी दबाव बढ़ेगा। उनके दूसरी बार अध्यक्ष पद पर बने रहने को पार्टी के भीतर से कोई चुनौती दे सकता है।
पार्टी के नेता घरेलू मामलों की अनदेखी कर लगातार विदेश दौरों के लिए भी मोदी को दोषी ठहरा सकते हैं। जिस तरह कुछ लोगों ने पंडित नेहरू पर तोहमत लगाई थी कि वैश्विक नेता की छवि बनाने के लिए उन्होंने घरेलू मामलों की अनदेखी की। मीडिया को भी अचानक मोदी की सारी गलतियां दिखाई देने लगेंगी।
इन सब की पहली बलि संसद का शीतकालीन सत्र चढ़ सकता है। पर जो भी हो, पिछले चुनाव नतीजों के अनुभवों से यही लगता है कि जो जीतता है वही बादशाह होता है। इसका असर पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, यूपी, पंजाब, केरल, असम आदि राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों पर भी दिख सकता है।
मोदी का दांव कामयाब रहेगा या उल्टा पड़ेगा, यह देखने के लिए तो चुनाव परिणाम का इंतजार करना होगा। लेकिन एक बात साफ है कि अगर नीतीश जीतते हैं तो वह विपक्षी पार्टियों के लिए बड़े नेता बन कर उभरेंगे। कइ र्लोग उन्हें भावी पीएम कैंडिडेट के तौर पर भी देखने के लगेंगे। देखते हैं, 8 नवंबर, 2015 को क्या होता है।
(लेखक तृणमूल कांग्रेस के सांसद और पूर्व रेल मंत्री हैं। 2012-13 में बजट पेश करने के कुछ ही समय बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। यहां लिखे विचार उनके निजी हैं)