समन्वयवादी दृष्टिकोण के बिना हमें आंतरिक खुशी नहीं मिल सकती। समन्वय न केवल हमारे घर-परिवार और समाज के लिए जरूरी है बल्कि संपूर्ण राष्ट्र के विकास में भी सहायक है। समन्वयवादी दृष्टिकोण के अभाव में किसी भी समाज और राष्ट्र के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि बुझे हुए मन में न ही तो समन्वय की भावना पनप सकती है और न ही उत्साह और उमंग का भाव हिलोरे मार सकता है। इसलिए समन्वय की कोशिश तभी सफल हो सकती है, जब हमारा मन बुझा हुआ न रहे। मन बुझा हुआ रहेगा तो हम कुछ भी अच्छा सोचने की शक्ति खो देंगे। इस स्थिति में हमारे अंदर जो विचार उत्पन्न होंगे, वे हमें प्रकाश की ओर ले जाने की बजाय अंधकार में धकेल देंगे।

समन्वय की भावना पैदा करने के लिए हमारे विचारों में भी शक्ति होनी चाहिए। कमजोर विचारों के माध्यम से न ही तो समन्वय की भावना पैदा होगी और न ही समन्वय की कोशिश साकार होगी। नि:संदेह हमारे मन में तरह-तरह के विचार आते रहते हैं और फलीभूत भी होते रहते हैं। सकारात्मक रूप से अंतत: वे ही विचार फलीभूत होते हैं जिनमें एक नई ऊर्जा होने के साथ-साथ हमारी जिंदगी को गति प्रदान करने की कुव्वत भी होती हैं।

दरअसल विचारों का संबंध हमारे दिल से है। अगर दिल की खिड़कियां और दरवाजे बंद हैं तो हमारा मन भी उदास ही रहेगा। अगर बंद दिल में बाहर की ताजी हवा नहीं जाएगी तो निश्चित रूप से वहां नफरत की गंदगी और सीलन ही पैदा होगी। बाहर की ताजी हवा ही दिल को स्वच्छ और तरोताजा रख सकती है। मन में एक नया उत्साह जगाने के लिए यह जरूरी है कि सबसे पहले हम अपने दिल की सभी खिड़कियां और दरवाजे खोल दें।

जब दिल खुलते हैं तो मन अपने आप खुल जाते हैं। खुले दिल के माध्यम से ही हमारे मन में नए एवं प्रगतिशील विचारों का प्रवाह होता है। नए और प्रगतिशील विचार ही सच्चे अर्थों में हमारी प्रगति का द्वार खोलते हैं। हम ऐसे विचारों के माध्यम से ही न सिर्फ अपना बल्कि समाज का कल्याण कर सकते हैं।

संकुचित दिल में समन्वयवादी विचारों के लिए जगह कम पड़ जाती है। यही कारण है कि इस स्थिति में विचारों के आदान-प्रदान का रास्ता भी बंद हो जाता है और अन्तत: संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। किसी भी समाज में विचारों का आदान-प्रदान ही जीवन को गतिशील रखता है। जिस समाज में विचारों का आदान-प्रदान नहीं होता, वह मुर्दा समाज होता है।

ऐसा हृदयविहीन समाज जिसमें संवेदना के लिए कोई जगह नहीं होती है। जब हम दिल की खिड़कियां खोलते हैं तो एक तरह से अपनी सोई हुई संवेदना को भी जाग्रत करने का काम करते हैं। जाहिर है एक संवेदनशील इंसान ऐसे समाज का निर्माण करना चाहेगा जिसमें एक-दूसरे के दु:ख-दर्द को महसूस करने का जज्बा तो हो ही, बल्कि एक-दूसरे के सुख को बांटने की हिम्मत भी हो। निश्चित रूप से ऐसा समाज आत्माविहीन समाज नहीं हो सकता। लेकिन क्या ऐसे समाज का निर्माण दिवास्वप्न ही है? क्या हम वास्तव में ऐसा समाज बना सकते है?

इस प्रश्न का उत्तर हम सभी को ढूंढ़ना है। दरअसल जब हमारा दिल खुलता है तो हर विषय पर हमारे सोचने-समझने की शक्ति भी बढ़ जाती है यानी हमारे अंदर दूरदर्शिता का विकास होता है। सोचने-समझने की यह शक्ति ही परिवार, समाज और राष्ट्र को जोड़े रखती है।

इसी संवाद के माध्यम से हम पूरे विश्व में शांति का राज्य स्थापित कर सकते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज हर जगह दूरदर्शिता का अभाव दिखाई दे रहा है। दूरदर्शिता के अभाव के कारण ही हमारी सोच सतही होती जा रही है। सतही सोच के कारण हमें तात्कालिक लाभ तो हो सकता है लेकिन स्थायी लाभ कभी नहीं होता। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हम हमेशा तात्कालिक लाभ प्राप्त करने के चक्कर में स्थायी लाभ से हाथ धो बैठते हैं।

दरअसल सतही सोच के कारण हमारी मानसिकता तो संकुचित होती ही है, हम समाज में आपसी समन्वय भी स्थापित नहीं कर पाते हैं। वास्तविकता यही है कि हम तात्कालिक लाभ के लिए अपने दिल को भी छोटा कर लेते हैं। छोटे दिल में सबके कल्याण का भाव नहीं समा पाता है। ‘हमें लाभ हो’ के भाव को त्यागकर धीरे-धीरे हम सोचने लगते हैं कि ‘सिर्फ हमें ही लाभ हो’। जब हम स्वयं पर केंद्रित हो जाते हैं तो बहुत सारी समस्याएं पैदा होती हैं। सभी समस्याओं को खत्म करने के लिए हमें अपने दिल की खिड़कियां खोलनी ही होंगी।