रोहित कौशिक
जब हम अपने स्वरूप को पहचान नहीं पाते हैं तो चेहरे पर एक आवरण लगा लेते हैं। दरअसल मुखौटे लगाकर हम अपनी जिंदगी का रास्ता आसान बनाना चाहते हैं लेकिन मुखौटों के माध्यम से हम स्वयं अपने रास्ते में कांटे बो देते हैं। कभी-कभी यह महसूस होता है कि हम अपनी परेशानी के लिए स्वयं ही जिम्मेदार होते हैं। हमारी जिंदगी में कुछ परेशानियां तो अपने आप ही आ जाती हैं लेकिन कुछ परेशानियां हम स्वयं बुलाते हैं। अपने आप आने वाली ज्यादातर परेशानियां तो कुछ समय बाद चली जाती हैं लेकिन जिन परेशानियों को हम बुलाते हैं, वे आसानी से नहीं जाती हैं।
इसका कारण यह है कि हम आसानी से स्वयं में बदलाव नहीं लाना चाहते हैं। कुछ समय बाद हमें पता चल जाता है कि मुखौटे हमारी परेशानियां बढ़ा रहे हैं, इसके बावजूद हम मुखौटे उतारना नहीं चाहते हैं। यही कारण है कि समाज में सब कुछ मुखौटों के बीच चलता रहता है। हमारा मेल-मिलाप, आपसी संबंध और व्यवहार भी मुखौटों के बीच ही होता है। इस तरह समाज में एक दूसरे से हमारे वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हो पाता है। कृत्रिम स्वरूप जब आपस में व्यवहार करते हैं तो एक कृत्रिम संसार विकसित होता है, जिसमें एक दूसरे के दु:ख-सुख से सच्चा जुड़ाव नहीं हो पाता है।
आज समाज के आपसी संबंधों में जिस तरह की कृत्रिमता आ गई है, उससे हमारे व्यवहार में बहुत बदलाव आया है। हम बहुत ज्यादा स्वार्थी और मतलबी हो गए हैं। जिंदगी में कुछ स्वार्थ तो हम सभी के अंदर मौजूद रहता है। स्वार्थ के बिना जिंदगी की गाड़ी चलती भी नहीं है। लेकिन स्वार्थ ही हमारी जिंदगी का उद्देश्य हो जाए तो अनेक समस्याएं सामने आती हैं। सीधा सा अर्थ यह है कि मुखौटे हमारी जिंदगी को एक ऐसे स्वार्थ के भरोसे छोड़ देते हैं जिसमें सिर्फ अपना हित ही दिखाई देता है। मुखौटे हमारे जीवन में इतने ज्यादा स्वार्थ पैदा कर देते हैं कि हम स्वार्थ पूर्ण करने की कोशिश को ही जीवन मान लेते हैं। इस तरह हमारे चेहरे पर लगे इन आवरणों से जीवन के संबंध में गलत समझ विकसित होती है। हम कुछ ऐसे उद्देश्यों पर केन्द्रित हो जाते हैं जो हमें गलत दिशा की तरफ ले जाते हैं।
दरअसल दिशाहीन जीवन परिवार और समाज में कलह का कारण बनता है। जब हमें अपनी दिशा ही पता नहीं होती तो हम अपने संबंधों को भी निष्ठा के साथ नहीं निभा पाते हैं। संबंधों की निष्ठा तो बाद की बात है। जीवन जीने के लिए स्वयं के प्रति भी एक सच्ची निष्ठा होनी चाहिए। मुखौटे हमारी स्वयं के प्रति निष्ठा पर भी कुठाराघात करते हैं। यही कारण है कि हम स्वयं के प्रति भी ईमानदार नहीं रह पाते हैं। इसलिए मुखौटे स्वयं से भी गद्दारी करना सिखाते हैं। इस तरह के आवरण इसीलिए खतरनाक है कि ये स्वयं से ही धोखा करना सिखाते हैं। फलस्वरूप हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य धोखा देना हो जाता है।
सवाल यह है कि मुखौटों से बचा कैसे जाए? हमारे अंदर यह इच्छा कैसे पैदा हो कि किसी भी हाल में हमें मुखौटा नहीं लगाना है? यह इच्छा तभी पैदा हो सकती है जब हम अपने अंतर को साफ रखने की कोशिश करेंगे। अपने वास्तविक स्वरूप पर आवरण चढ़ाने की जरूरत तभी पड़ती है जब हमारे दिमाग में कोई खुराफात शुरू होती है। दिमाग में खुराफात शुरू होते ही हम बहुत आगे के बारे में सोचने लगते हैं। बहुत आगे के बारे में सोचकर हम अपने वर्तमान को खराब कर लेते हैं। बहुत आगे के बारे में सोचना गलत नहीं है।
समस्या यह है कि हम बहुत आगे के बारे में सकारात्मक नहीं सोचते हैं। हमारी सोच के हिसाब से तो वह सकारात्मक होता है लेकिन सच्चे अर्थों में वह नकारात्मक होता है।हमें यह समझना होगा कि मैला मन सकारात्मक सोच ही नहीं सकता। इसलिए मन को साफ रखकर ही हम मुखौटों से मुक्ति पा सकते हैं। मुखौटों से मुक्त होकर हम सच्चे अर्थों में निडर भी बन सकते हैं। इसलिए सबसे पहले अपने स्वरूप को पहचानने की जरूरत है