हत्या के प्रयास में दो पार्टियां आपस में समझौता करके कोर्ट के सामने पहुंची तो केरल हाईकोर्ट का पारा चढ़ गया। हाईकोर्ट ने दो टूक कहा कि वो समझौते को मंजूरी नहीं दे सकता। ये बात बिलकुल गंवारा नहीं की जा सकती कि आप लोग राजीनामा करके आपस में ही मामला निपटा लें। जो अपराध हुए उसकी गंभीरता को कम करके नहीं आंका जा सकता। राजीनामे को मंजूरी दी तो इसका गलत संदेश जाएगा।

दरअसल कोर्ट हत्या के प्रयास के मामले में दो याचिकाओं की सुनवाई कर रही थी। जस्टिस ए बदरुद्दीन ने अपने फैसले में कहा कि जो अपराध हुआ वो किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं था। वो कृत्य सारे समाज के खिलाफ था। ऐसे में कोर्ट अपनी आंखें कैसे बंद कर सकती है। हम इस समझौते को नहीं मानते। उनका कहना था कि हत्या के प्रय़ास का मामला समझौता करने लायक नहीं माना जा सकता। ये मामला Code of Criminal Procedure, 1973 की धारा 320 के साथ जोड़ा जा सकता है। कोर्ट का कहना था कि ये मामला जघन्य अपराध की श्रेणी में आता है।

हाईकोर्ट का कहना था कि Cr PC की धारा 482 का इस्तेमाल करके इसे यूं ही बंद नहीं किया जा सकता। इस मामले में सजा होने के चांस भी बहुत ज्यादा हैं। हम केवल इस तथ्य को मानकर समझौते पर मुहर नहीं लगा सकते कि दोनों पार्टियों के बीच अदालत के बाहर आपस में समझौता हो गया है। हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देकर कहा कि जब जांच चल रही है तो ऐसे में मामला खत्म तो बिलकुल भी नहीं किया जा सकता। कोर्ट का कहना था कि हत्या के प्रयास के मामले में कई पहलू होते हैं। इसमें मेडिकल रिपोर्ट भी खासा महत्व रखती है।

पब्लिक प्रासीक्यूटर ने भी अदालत की बात से सहमति जताते हुए कहा कि वो समझौते से इत्तेफाक नहीं रखते। अपराध सामान्य श्रेणी का नहीं है बल्कि ये जघन्य की श्रेणी में आता है। ऐसे में हम आंख मूंदकर कैसे कह सकते हैं कि चलो आप लोगों के बीच समझौता हो गया है तो सभी मान लेंगे। अगर पीड़ित को अब आरोपी से कोई शिकायत नहीं है तो ये उसका मसला है लेकिन कोर्ट का काम यहीं पर खत्म नहीं हो जाता। इस मामले में दो याचिकाएं दाखिल की गई थीं। एक में कोर्ट से दरखास्त की गई थी कि वो 307 की FIR को निरस्त करे। जबकि दूसरी याचिका में स्पेशल कोर्ट के उस फैसले को खारिज करने की मांग की गई थी जिसमें अपराध में शामिल कार को रिलीज करने से इनकार कर दिया था।