रंजना मिश्रा
हमारा देश आज एक सामाजिक चुनौती का सामना कर रहा है, वह है खासी संख्या में किशोरों में बढ़ती हिंसक और आपराधिक प्रवृत्ति। यह समस्या न केवल समाज की शांति और सुरक्षा के लिए तात्कालिक खतरा है, बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों के नैतिक और सामाजिक ताने-बाने पर भी गहरा असर डाल रही है। किशोरावस्था 13 से 19 वर्ष की आयु तक की अवधि है। यह समय व्यक्ति के जीवन का अत्यंत महत्वपूर्ण और संवेदनशील दौर होता है। इस दौरान किशोर शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों से गुजरते हैं। यह पहचान बनाने, मूल्यों को आत्मसात करने और भविष्य की नींव रखने का समय होता है। इस नाजुक दौर में उन्हें सही मार्गदर्शन, भावनात्मक समर्थन और सकारात्मक एवं सुरक्षित माहौल की आवश्यकता होती है।
दुर्भाग्यवश, आज के जटिल सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में ऐसे कई नकारात्मक कारक सक्रिय हैं, जो इन युवाओं को रचनात्मकता और विकास के मार्ग से भटका कर हिंसा और अपराध के अंधकारमय गलियारों की ओर धकेल रहे हैं।
परिवार किसी भी बच्चे की पहली पाठशाला होता है
किशोरों में हिंसा और अपराध की बढ़ती प्रवृत्ति किसी एक कारण का परिणाम नहीं है, बल्कि यह कई परस्पर जुड़े हुए कारकों का जटिल जाल है, जो एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। परिवार किसी भी बच्चे की पहली पाठशाला होता है, जहां उसके चरित्र और मूल्यों की नींव रखी जाती है। भारतीय समाज में पारंपरिक रूप से संयुक्त परिवारों की एक सुदृढ़ व्यवस्था थी, जहां बच्चे दादा-दादी और अन्य बड़ों के स्नेह एवं मार्गदर्शन में पलते थे। यह संरचना एक प्राकृतिक सुरक्षा कवच का काम करती थी। मगर शहरीकरण और आधुनिकीकरण की लहर ने इस व्यवस्था को कमजोर किया है और एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ा है।
इन छोटे परिवारों में अक्सर माता-पिता दोनों ही आर्थिक दबावों और करिअर की महत्त्वाकांक्षाओं के कारण काम में व्यस्त रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि किशोरों को पर्याप्त समय व भावनात्मक सहारा नहीं मिल पाता और वे अकेलेपन एवं उपेक्षा का शिकार हो जाते हैं।
इसके अलावा, एकल-पालन-पोषण करने वाले परिवारों की बढ़ती संख्या, माता-पिता के बीच कलह और तलाक के मामले किशोरों के मन पर गहरा आघात करते हैं।
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वे असुरक्षित महसूस करते हैं और उनका घर से विश्वास उठने लगता है। जब घर में संवाद की कमी होती है और बच्चों को अपनी भावनाओं, डर और शंकाओं को साझा करने का मंच नहीं मिलता, तो वे इस भावनात्मक शून्य को भरने के लिए बाहर की दुनिया में स्वीकृति और अपनापन खोजते हैं। यहीं पर वे अक्सर गलत संगति और ऐसे मित्र समूहों के संपर्क में आते हैं, जो उन्हें हिंसा, नशा और अपराध की दुनिया में खींच ले जाते हैं।
हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली ज्ञान और रचनात्मकता को बढ़ावा देने के बजाय अंकों और प्रतिस्पर्धा पर केंद्रित हो गई है। यह किशोरों में भारी मानसिक तनाव का प्रमुख कारण है। बोर्ड एवं प्रतियोगी परीक्षाओं और उच्च अंक लाने की अंधी दौड़ ने शिक्षा को एक उत्सव के बजाय युद्ध बना दिया है। माता-पिता, शिक्षक और समाज की ‘सफलता ही सब कुछ है’ की मानसिकता उन पर असहनीय दबाव डालती है।
हर किशोर की अपनी क्षमता और रुचि होती है, लेकिन उन्हें एक ही पैमाने पर तौला जाता है। जब कोई छात्र इन अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाता, तो उसे न केवल बाहरी आलोचना का सामना करना पड़ता है, बल्कि उसका आत्म-सम्मान भी बुरी तरह आहत होता है। वह खुद को असफल समझने लगता है। असफलता की यह ग्लानि अक्सर निराशा, क्रोध और आक्रामक व्यवहार में बदल जाती है।
पढ़ाई में विफलता को व्यक्तिगत अस्वीकृति के रूप में देखने वाले कई किशोर इस कुंठा को बाहर निकालने के लिए हिंसात्मक कृत्यों, तोड़-फोड़ या धौंस जमाने जैसे तरीकों का सहारा लेते हैं, जो उनके आपराधिक व्यवहार की पहली सीढ़ी बन सकती है। तकनीकी प्रगति ने जहां एक ओर ज्ञान और संचार के द्वार खोले हैं, वहीं दूसरी ओर इसने कई किशोरों के लिए एक खतरनाक मायाजाल भी बिछा दिया है।
सोशल मीडिया, आनलाइन खेल और वीडियो प्रसारित करने वाली कई वेबसाइट पर हिंसक, अश्लील और अन्य आपत्तिजनक सामग्री की भरमार है, जो बिना किसी प्रभावी नियंत्रण के आसानी से उपलब्ध हैं। इससे बहुत सारे किशोरों का कोमल मन प्रभावित होता है और वे वास्तविक जीवन की समस्याओं को हल करने के लिए हिंसा को एक वैध और प्रभावी तरीके के रूप में देखने लगते हैं।
इसके अलावा, ‘साइबरबुलिंग’ एक और गंभीर समस्या है, जिसमें सोशल मीडिया पर तंग करना, अफवाहें फैलाना या व्यक्तिगत तस्वीरों का दुरुपयोग कर किसी को मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। यह पीड़ित किशोर के आत्म-सम्मान को चकनाचूर कर सकता है और प्रतिशोध की भावना को जन्म दे सकता है, जो आक्रामकता के रूप में सामने आती है।
अपराध की दुनिया में कदम रखने वाले किशोर का भविष्य अंधकारमय हो जाता है। एक आपराधिक रेकार्ड बन जाने से उसे अच्छी शिक्षा नहीं मिलती। रोजगार के अवसर लगभग समाप्त हो जाते हैं। समाज ऐसे किशोरों को अपराधी के रूप में देखता है, जिससे उसका आत्म-सम्मान और भी गिर जाता है और वह अपराध के दुश्चक्र में गहरे धंसता चला जाता है। यह परिवार के लिए एक सामाजिक कलंक और भावनात्मक आघात होता है। माता-पिता को शर्मिंदगी, दुख और कानूनी प्रक्रिया पर खर्च का सामना करना पड़ता है।
पारिवारिक रिश्ते टूट जाते हैं और घर का शांतिपूर्ण माहौल नष्ट हो जाता है। समाज में भय, अविश्वास और असुरक्षा का माहौल बनता है। यह सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करता है और सामुदायिक सद्भाव को प्रभावित करता है। वहीं न्यायिक प्रणाली पर बोझ बढ़ता है, क्योंकि किशोर न्याय बोर्ड और सुधार गृहों की सीमित क्षमता इस तरह के अपराधों की बढ़ती संख्या को संभालने में अकसर अपर्याप्त साबित होती है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर किशोर अपराध का एक पीड़ित होता है, जिसे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक आघात से गुजरना पड़ता है, जिसका असर उस पर जीवन भर रह सकता है। इस गंभीर समस्या का समाधान किसी एक संस्था या प्रयास से संभव नहीं है।
परिवारों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।
माता-पिता को अपने बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताना चाहिए। उनके साथ एक दोस्त की तरह खुल कर बातचीत करनी चाहिए। उनकी समस्याओं, दोस्तों और ऑनलाइन गतिविधियों के बारे में जानना चाहिए। घर में प्रेम, सम्मान और नैतिक मूल्यों का माहौल बनाना चाहिए, ताकि बच्चे बाहरी नकारात्मक प्रभावों से बच सकें। किशोरों में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति चेतावनी है कि हमारे समाज की नींव कहीं न कहीं कमजोर हो रही है।
यह केवल कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं है, बल्कि एक गहरी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्या है। इसका समाधान केवल पुलिस या अदालतों के पास नहीं है, बल्कि हम सभी के पास है। परिवार, स्कूल, समाज, सरकार, मीडिया और न्यायपालिका, जब ये सभी स्तंभ मिल कर अपनी जिम्मेदारी निभाएंगे, तभी इस चुनौती का सामना किया जा सकता है। हमें एक ऐसा सहायक और पोषण करने वाला वातावरण बनाना होगा, जहां हर किशोर को सुरक्षा, सम्मान, अवसर और सही मार्गदर्शन मिले। आज के किशोर ही कल का भारत हैं।