बाहुबलियों की धरती उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार की मौत पर युवा नेतृत्व वाली सरकार का कानफाड़ू मौन प्रदेश की राजनीतिक तौर पर विवश सरकार की कहानी खुद ही बयान करने वाला है।
प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एक युवा, जो प्रदेश के ही पूर्व मुख्यमंत्री और प्रमुख राजनीतिक पार्टी के मुखिया का सुपुत्र भी है, से प्रदेश की कमान युवा या क्रांतिकारी नहीं हो जाती। इस मुद्दे पर आरोपी मंत्री के बचाव में उतरी सरकार सहज ही यह भूल गई कि मामला इतना भी सीधा नहीं कि यह कह कर टाल दिया जाए कि जब तक आरोप साबित न हो, अपराध सिद्ध नहीं हो जाता।
जागेंद्र सिंह का परिवार चीख-चीख कर दुहाई दे रहा है। घटना का चश्मदीद गवाह है और सबसे ऊपर मरने वाले की जुबान से इस पर हुए हमले की पूरी कहानी और इसमें प्रदेश के राज्यमंत्री राममूर्ति सिंह और दरोगा श्रीप्रकाश राय के अलावा चार अज्ञात पुलिसकर्मियों की भूमिका पर भी सवाल हैं।
पुलिस महानिरीक्षक (कानून-व्यवस्था) ए सतीश गणेश ने मीडिया को जो बताया, उसका सार यह कि जागेंद्र सिंह की कथित हत्या में नामजद शाहजहांपुर चौक थाने के तत्कालीन दरोगा श्रीप्रकाश राय समेत छापा दल में शामिल रहे सभी पांच पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया है। इस मामले में दर्ज प्राथमिकी में प्रदेश के राज्यमंत्री राममूर्ति सिंह और दरोगा श्रीप्रकाश राय के अलावा चार अज्ञात पुलिसकर्मियों का भी जिक्र है।
जख्मों पर इससे ज्यादा नमक छिड़कने वाली बात और क्या हो सकती है कि एक सरकारी नुमाइंदा पत्रकार के परिवार को यह कह कर सांत्वना का ढोंग कर रहा है कि आग लगाने के लिए घर जाना क्या जरूरी है, क्या उसके लिए थाना ज्यादा उपयुक्त नहीं था?
कुछ गलत भी नहीं कह रहे हैं ये साहब। उत्तर प्रदेश के थानों में क्या होता है? प्रदेश के जिलों में क्या होता है? प्रदेश के राजनेता अपने बाहुबल के दम पर क्या-क्या नहीं करते? यह सब किससे छुपा है। लेकिन इस खास मामले में, जहां मामला एक पत्रकार से जुड़ा था, बड़ा राजनीतिक संदेश दिया जाना जरूरी था। ताकत के सरेआम इजहार के लिए खाकी वर्दी से बेहतर कौन?
लेकिन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को शायद निराशा ही हो, क्योंकि उनके मंत्री का यह संदेश उलटा पड़ता दिखाई दे रहा है। राजनैतिक शुचिता को ताक पर रख कर सरकार चाहे पूरी बेशर्मी से अपने मंत्री की वकालत करे, उसका बचाव करे, उसे कैसी भी कार्रवाई से दूर रखे, लेकिन इस हादसे पर सरकार का रुख उसके समाजवादी रूप को बेनकाब करने वाला है।
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रखवाली सरकार किस मुंह से समाजवाद का दम भरेगी, यह तो बाद की बात है और भरे भी तो कोई अचरज नहीं। अगर सरकार इतनी बेहयाई के साथ जनमानस की भावनाओं के विपरीत अपने मंत्री को संरक्षण दे सकती है तो अगले चुनाव तक वह लोगों में जाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समाजवादी सोच का दम भी भर सकती है।
प्रदेश सरकार की इस राजनीतिक हठधर्मिता और अभिमान के बीच जिस दृढ़ता से जागेंद्र सिंह का परिवरा खड़ा है, उसकी हिम्मत को सहज ही सलाम है। जागेंद्र के त्रासद अंजाम ने भी इस परिवार को और ताकत दी है। यह लड़ाई जारी रहेगी। सुनवाई के लिए आज नहीं तो कल कभी तो सरकार को चेतना ही है। हालांकि सरकार से परिवार की दरकार कुछ खास नहीं। मामले की जांच सीबीआइ से करवाने पर एतराज हैरतअंगेज है। अगर सरकार अपने मंत्री की बेगुनाही से इतनी ही निश्चिंत है तो फिर जांच सीबीआइ से कराने में एतराज क्यों?
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शायद सरकार दिल्ली के हालिया वाकये से त्रस्त है, जहां मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सरकार अपने मंत्री जितेंद्र सिंह तोमर के बचाव में डट के खड़ी हुई, लेकिन जैसे-जैसे मामले की जांच में सच की परतें खुलीं, केजरीवाल के पास तोमर से नाराज होने के अलावा कोई चारा न रहा। कार्रवाई का शायद वहां भी अभी इंतजार है।
न सिर्फ प्रदेश की अखिलेश सरकार वरना सारे ममले में जिस तह केंद्र सरकार भी मूक दर्शक बनी है, वह हैरान करने वाला है। जागेंद्र के परिवार को इस समय अगर कुछ कायम रख सकता है तो वह है उनका अपना हौसला। यह परिवार जो अभी तक अपने बेटे को इंसाफ दिलाने के लिए व्यवस्था से लड़ रहा है, आखिर अपने संघर्ष को हासिल करके रहेगा।
जरूरत है, इस परिवार को इंसाफ पसंद ताकतों की मदद की। ताकि उत्तर प्रदेश के इस अपेक्षा व कम पहचाने जाने वाले इलाके के एक संघर्षशील पत्रकार का बलिदान बेकार न जाए। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी समझना होगा कि इतिहास अपने मूक दर्शकों को कहीं दर्ज नहीं करता। इतिहास के पन्नों पर उन्हीं को जगह मिलती है जो अपनी विवशताओं की बेड़ियों को तोड़ कर अपनी आवाज बुलंद करते हैं और उनके लिए यह समय अभी है। इसी पल है।
मुकेश भारद्वाज