JNU Students Protest, JNU Violence: वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने अपने एक लेख के जरिए कहा है कि यूनिवर्सिटीज पर कंट्रोल का ‘गुजरात मॉडल’ अब दिल्ली पहुंच चुका है। दरअसल वरिष्ठ पत्रकार ने 5 जनवरी को दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई हिंसा का जिक्र करते हुए एक आर्टिकल ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में लिखा है। लेख में अपनी बात रखते हुए वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा है कि ‘जेएनयू से पहले वडोदरा मे महाराजा सायाजीराव विश्वविद्यालय में ऐसा हुआ था। मई, 2007 में विश्व हिंदू परिषद् (VHP) के कुछ कार्यकर्ता अचानक परिसर में घुसे थे। उस वक्त विश्वविद्यालय परिसर में प्रदर्शनी चल रही थी।
वीएचपी के कार्यकर्ताओं ने उस वक्त फाइन आर्ट्स के एक छात्र चंद्रमोहन की पिटाई कर दी थी और आरोप लगाया था कि उन्होंने अपनी पेंटिग्स के जरिये धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाया है। उस वक्त जब वहां मौजूद कुछ शिक्षकों ने बीच-बचाव किया था तब पुलिस ने कैंपस में घुसकर उन्हें धमकाया था और चंद्रमोहन को गिरफ्तार भी किया गया था। विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर ने एफआईआर दर्ज कराने से मना कर दिया था और छात्रों का सहयोग करने से भी इनकार किया था। इतना ही नहीं फैकल्टी को नोटिस थमाया गया था और बाद में पुलिस ने वीएचपी के कार्यकर्ताओं को छोड़ भी दिया था।’
राजदीप सरदेसाई ने इस घटना की तुलना जेएनयू में नकाबपोशों के हमले से किया है और लिखा है कि जेएनयू की घटना यह बताती है कि विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण का यह तरीका वडोदरा से ही राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में आया है। वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा है कि गुजरात के विश्वविद्यालयों में अनुशासन के नाम पर हाल के कुछ दिनों में कई घटनाएं हुई हैं। विश्वविद्यालयों का राजनीतिकरण अकादमी की गुणवत्ता सुधारने के लिए नहीं बल्कि किसी मुद्दे पर आवाज उठाने वाले छात्रों की एकता को खत्म करने के लिए किया जाता है।
विश्वविद्यालयों में वाइस चांसलर की नियुक्ति प्रक्रिया की तरफ ध्यान खींचते हुए वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा है कि ‘सत्तारुढ़ पार्टियों के प्रति ईमानदार बने रहने वाले लोगों को ही वीसी बनाया जाता है। उन्होंने इसके लिए एक उदाहरण देते हुए बताया है कि गुजरात यूनिवर्सिटी के एक पूर्व वाइस चांसलर का जब कार्यकाल खत्म हुआ तब वो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रवक्ता बन गए। जबकि अभी जो प्रो-वीसी हैं वो भी पार्टी का हिस्सा हैं। बीजेपी मीडिया सेल के एक सदस्य अभी कच्छ विश्वविद्यालय के वीसी हैं और नॉर्थ गुजरात यूनिवर्सिटी का भी यहीं हाल है।’
वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा है कि ‘गुजरात मॉडल’ का मतलब था ‘अच्छे दिन’ ना कि छात्रों को राइट और लेफ्ट में बांटने की रणनीति। इसकी वजह से हमारे कैंपस में आए दिन खून-खराबे हो रहे हैं। अब जबकि लेफ्ट और राइट विंग के छात्र जेएनयू में हुई हिंसा के बाद एक-दूसरे पर मारपीट का आऱोप लगा रहे हैं तो क्या शिक्षकों को पीटना भारतीय संस्कृति है? और अगर शिक्षक विश्वविद्यालय में महफूज नहीं है तो फिर कौन महफूज है वहां? भूलिए मत कि साल 2002 में गुजरात दंगों के दौरान वडोदरा में प्रोफेसर जेएस बंदूकवाला के घर पर तोड़फोड़ हुई थी। गुजरात प्रशासन से जुड़े किसी भी अधिकारी ने उनसे कभी इस बारे में मिलकर पूछा तक नहीं क्योंकि वो हिंदुत्व पॉलिटिक्स की आलोचना करते थे। पूरे देश को इसपर सोचना होगा।’
