वादित इमारत के सामने की ओर से रोके जाने की लाख कोशिशों के बावजूद कारसेवक कंटीली बाड़ फांदकर ढांचे की बाहरी दीवार और गुंबदों पर चढ़ गए। पूरा माहौल एकदम बदल गया। सुरक्षा बल जब तक कुछ समझते तब तक वहां जमा लाखों कारसेवकों का रुख ढांचे की तरफ हो गया था। समूची व्यवस्था फेल हो गई। कोई दो सौ लोग गुंबद के ऊपर थे और 25 हजार के आसपास विवादित परिसर में थे। लाखों कारसेवक, जो इधर-उधर रामकथा कुंज में भाषण सुन रहे थे, वे भी विवादित ढांचे के चारों ओर गोलबंद होने लगे…।’ दो छोटे गुंबदों के बीच बड़े गुंबद पर लहराता ध्वज। काले आवरण यानी श्वेत-श्याम तस्वीर पर झंडे का रंग भगवा है। श्वेत-श्याम तस्वीर में उभरता यह तीसरा रंग पत्रकार हेमंत शर्मा की कलम का है जो अपनी खबरनवीसी से इन तीन गुंबदों को देश और दुनिया की सामूहिक स्मृति में दर्ज करवा देते हैं। प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित ‘अयोध्या का चश्मदीद’ का आवरण पृष्ठ ही अपने-आप में बहुत कुछ कहता है। समाज, राजनीति और परंपरा का गहरा अनुभव और विद्यार्थी वाला मिजाज ही वह तत्त्व है जो इनकी दर्ज खबरों को अखबारों के पन्नों से निकाल समसामयिक इतिहास की किताब बना देता है। अयोध्या आंदोलन में ताला खुलने से लेकर ढांचा टूटने तक के घटनाक्रम की लगातार खबरनवीसी करने वाले चुनिंदा पत्रकारों में हेमंत शर्मा का नाम लिया जाता है।

जब हम हेमंत शर्मा की इस किताब से गुजरते हैं तो हमारे सामने से पत्रकार गायब हो जाता है और बाकी रह जाता है वह देश, काल और समाज जो एक खास जगह पर खास तरह की प्रतिक्रिया दे रहा है। इतिहासकार जीएच कार कहते हैं कि इतिहास अतीत से लेकर वर्तमान का निरंतर संवाद है। हेमंत शर्मा की पत्रकारिता में वह माद्दा है कि वे उन तीन गुंबदों के साथ आज की पीढ़ी का साक्षात्कार करवाते हैं जो अब नहीं हैं।

‘युद्ध में अयोध्या’ में हेमंत शर्मा लिखते हैं, ‘अब इतिहास और पुरातत्त्व अयोध्या विवाद के केंद्रीय बिंदु बन गए थे। चौतरफा ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल शुरू हो गई। ढांचा गिरने के बाद 1993 में भारत के राष्टÑपति ने प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के जरिए सुप्रीम कोर्ट से पूछा कि राम जन्मभूमि/बाबरी ढांचे से पहले यहां किसी हिंदू मंदिर या धार्मिक भवन का अस्तित्व था? सुप्रीम कोर्ट को लगा कि सरकार उसके कंधे पर रख बंदूक चलाना चाहती है। लिहाजा लंबी सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल पर राय देने से मना कर दिया और संविधान के अनुच्छेद 143-ए के तहत किया गया रेफरेंस सरकार को लौटा दिया गया।’

अब जब ढांचा विवाद में पुरातत्त्व भी शामिल कर लिया गया था तो हेमंत शर्मा इसकी हर गतिविधि पर निगाह रख रहे थे। अदालती कार्रवाई की टिप्पणियों से लेकर उस समय जारी किए गए प्रेस बयानों तक। पहले लोग क्या बोल रहे थे और अब उनकी भाषा क्या हो गई थी। ‘युद्ध में अयोध्या’ में हेमंत शर्मा लिखते हैं, ‘शुरुआती खुदाई से जो सांकेतिक अवशेष निकले, उन्होंने बाबरी समर्थक खेमे के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दीं। नतीजतन आनन-फानन में इस खेमे ने एक बयान जारी कर कहा कि यह खुदाई बेमानी होगी, इससे गलत नजीर पड़ेगी। उनकी दलील थी कि इस आधार पर किसी भी इमारत को ध्वस्त किया जा सकता है, अगर उसके नीचे यह सबूत मिल जाए कि वहां पहले कभी दूसरे समुदाय का धार्मिक ढांचा मौजूद था। कोर्ट के इस आदेश से गलत मिसाल वाले इस सिद्धांत को न्यायिक मान्यता मिल जाएगी, अत: उसे रोका जाए। बयान जारी करने वालों में प्रो. इरफान हबीब, केएम श्रीमाली, सूरज भान और एडवोकेट राजीव धवन थे।’ नेताओं की निजी बातचीत से लेकर गुप्त सरकारी चिट्ठी-पत्री, सरकारी गलियारों से लेकर अखबारों तक में जो छुप जाता है, हेमंत शर्मा ने उसे पूरी तरह उघाड़ दिया है।

अयोध्या को युद्ध में झोंकने की तैयारी कब और कैसे हुई इस युद्ध का वर्णन हेमंत शर्मा उस संजय की तरह करते हैं जो धृतराष्टÑ की आंख यानी महाभारत का हिस्सा है। अयोध्या को जंग-ए-मैदान बनाने के लिए सवाल देश के पहले प्रधानमंत्री से लेकर आज तक के शासकों से है। नब्बे के दशक में जो युवा अपने खून को पानी नहीं समझ खौलाने के लिए अयोध्या जा चुके थे, आज वे प्रौढ़ हो चुके हैं। इन जुड़वां किताबों को वे प्रौढ़ भी पढ़ेंगे जो कल कारसेवक थे और वे युवा भी पढ़ेंगे जिन्होंने अपने जन्म के बाद अयोध्या को विवादों के रूप में जाना है। यह किताब पत्रकारिता के छात्रों के साथ ही एक बड़े पाठक वर्ग को आकर्षित करेगी जो भारत के राज और समाज में अयोध्या के युद्ध को समझना चाहते हैं।

युद्ध के चश्मदीद की एक पंक्ति ‘उस रोज मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम पर हर कोई अमर्यादित था…।’ अपनी मौजूदगी तब तक बनाए रखेगी जब तक हम रहेंगे और रहेगा अयोध्या का युद्ध। हेमंत शर्मा ने लिखा है, ‘मेरे सामने सिर्फ साढ़े चार सौ साल पुराना बाबरी ढांचा नहीं टूट रहा था बल्कि विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की मर्यादाएं भी टूट रही थीं’।