करीब चौंतीस साल बाद 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के एक मामले में मंगलवार को दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत ने जो फैसला दिया, उसका इंतजार देश और दुनिया के बहुत सारे लोगों को था। सजा की प्रकृति का मसला अलग है, लेकिन मूल बात यह थी कि किसी देश की न्याय-प्रक्रिया में न्याय हासिल करने का रास्ता और अवधि क्या है! गौरतलब है कि उन दंगों से जुड़े एक मामले में अदालत ने हत्या के दोषी ठहराए गए नरेश सहरावत और यशपाल सिंह के अपराध को पूरी साजिश के तहत अंजाम दिया गया और बेहद गंभीर प्रकृति का माना। इसलिए नरेश सहरावत को उम्रकैद और यशपाल सिंह को मौत की सजा सुनाई। इसके अलावा दोनों दोषियों पर पैंतीस-पैंतीस लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया गया है। दिल्ली के महिपालपुर इलाके में एक नवंबर 1984 को वही हुआ था, जो बाकी दंगों में होता है। करीब एक हजार लोगों की हिंसक भीड़ ने आसपास की दुकानें जला दीं, एक कमरे में कुछ लोगों के छिपे होने के बारे में जानते हुए भी उसमें आग लगा दी। उसमें हरदेव सिंह और अवतार सिंह की मौत हो गई और तीन लोग किसी तरह जिंदा बच गए। उस समूचे दंगे में भीड़ ने जो बर्बरता की, उसमें यह घटना महज एक उदाहरण थी और कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अपराधियों को सख्त सजा देने की ही मांग करता।

दरअसल, इस मामले में विशेष जांच दल के गठन और उसकी जांच के बाद यह पहली बार है जब किसी को मौत की सजा सुनाई गई है। इस फैसले की अहमियत इसलिए ज्यादा है कि घटना के बाद जांच के बावजूद जब आरोपियों के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं मिल पाए थे, तब पुलिस ने 1994 में यह मामला बंद कर दिया था। लेकिन बाद में दंगों की जांच के लिए गठित एसआइटी ने इस मामले को दोबारा खोला और इसे मौजूदा अंजाम तक पहुंचाया। विडंबना यह है कि अदालत के फैसले के बाद कुछ दलों के नेताओं के बीच इसका श्रेय लेने की होड़ देखी गई। जबकि पिछले करीब साढ़े तीन दशक के दौरान दंगों में मार डाले गए और किसी तरह बच सके पीड़ितों और उनके परिजनों को किन हालात में रहना पड़ा, इंसाफ की उनकी उम्मीद को किन झंझावातों का सामना करना पड़ा, उसकी फिक्र शायद ही किसी को हुई हो! यह किसी एक दंगे का सवाल नहीं है। देश की जनता की नुमाइंदगी करने वालों की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह लोगों के साथ होने वाली नाइंसाफी के खिलाफ खड़े हों। लेकिन यह छिपा नहीं है कि धर्म और समुदाय की पहचान के आधार पर दंगे होने पर राजनीतिक जमात या तो मूकदर्शक बन जाता है या फिर उसमें प्रच्छन भूमिका निभाता है।

31 अक्तूबर 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश भर में सिख समुदाय के लोगों को किस त्रासदी का सामना करना पड़ा था, यह सभी जानते हैं। अकेले दिल्ली में दो हजार से ज्यादा लोगों को मार डाला गया था। ये सब अब इतिहास में दर्ज तथ्य हैं। उसमें मारे गए सिख समुदाय के निर्दोष लोगों के परिजनों की आंखें इंसाफ के इंतजार में शायद निराश हो रही थीं। ऐसे में पटियाला हाउस कोर्ट का ताजा फैसला दंगों के दूसरे मामलों में भी न्याय की आस बंधाता है। लेकिन यह भी सच है कि न्याय में बहुत देरी कई बार उसके मतलब को बेमानी बना देती है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि देश भर में समूचे सिख समुदाय के खिलाफ एक बड़ी सुनियोजित तबाही के मामलों में मुकम्मल इंसाफ होना बाकी है।