राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने शुक्रवार को कहा कि संसद चर्चा के बजाय लड़ाई का मैदान बन गई है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र की संस्थाएं दबाव में हैं और इसके लिए सुधार भीतर से ही होना चाहिए। संसद के मानसून सत्र में कोई भी काम नहीं हो पाने के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रपति ने अपनी टिप्पणी में कहा कि अगर लोकतंत्र की संस्थाएं दबाव में हैं तो लोगों और उनकी पार्टियों के लिए गंभीरता से विचार करने का यही समय है।
देश के 69वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए मुखर्जी ने प्रकट रूप में खंडित राजनीति और संसद को लेकर चिंता व्यक्त की। जीवंत लोकतंत्र के संदर्भ में उन्होंने कहा- जडें गहरी हैं लेकिन पत्तियां कुम्हलाने लगी हैं। नवीनीकरण का यही समय है। उन्होंने कहा कि अगर हमने अभी कार्रवाई नहीं की तो क्या सात दशक बाद के हमारे उत्तराधिकारी हमें उस आदर-सम्मान से याद रखेंगे, जैसे हम उन्हें याद रखते हैं, जिन्होंने 1947 में भारत के सपने को आकार दिया था? उत्तर शायद सुखद नहीं होगा लेकिन प्रश्न तो पूछा ही जाएगा।
राष्ट्रपति ने कहा कि संविधान का सबसे कीमती उपहार लोकतंत्र है। हमारी संस्थाएं इस आदर्शवाद का बुनियादी ढांचा हैं। अच्छी से अच्छी विरासत के संरक्षण के लिए उसकी लगातार देखरेख करते रहने की जरूरत है। उन्होंने कहा- लोकतंत्र की हमारी संस्थाएं दबाव में हैं। संसद चर्चा के बजाय युद्ध का मैदान बन गई है। उन्होंने कहा कि अगर लोकतंत्र की संस्थाएं दबाव में हैं तो समय आ गया है कि जनता और उसके दल गंभीर चिंतन करें।
मुखर्जी ने कहा कि हमारे देश की उन्नति का आकलन हमारे मूल्यों की ताकत से होगा। लेकिन साथ ही यह आर्थिक प्रगति और देश के संसाधनों के समतापूर्ण वितरण से भी तय होगा। हमारी अर्थव्यवस्था भविष्य के लिए बहुत आशा बंधाती है। उन्होंने कहा कि भारत गाथा के नए अध्याय अभी लिखे जाने हैं। आर्थिक सुधारों पर काम चल रहा है। राष्ट्रपति ने कहा कि पिछले दशक के दौरान हमारी उपलब्धि सराहनीय रही है। यह खुशी की बात है कि कुछ गिरावट के बाद हमने 2014-15 में 7.3 फीसद की विकास दर वापस पा ली है।
मुखर्जी ने कहा कि विकास का लाभ सबसे धनी लोगों के बैंक खातों में पहुंचे इससे पहले उसे निर्धनतम व्यक्ति तक पहुंचना चाहिए। हम एक समावेशी लोकतंत्र और एक समावेशी अर्थव्यवस्था हैं। धन-दौलत की इस व्यवस्था में सभी के लिए जगह है। लेकिन सबसे पहले उनको मिलना चाहिए जो अभावों के कगार पर हैं और कष्ट उठा रहे हैं। हमारी नीतियों को भविष्य में भूख से मुक्ति की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होना चाहिए। उन्होंने कहा कि हमारा लोकतंत्र रचनात्मक है क्योंकि यह बहुलवादी है, परंतु इस विविधता का पोषण सहिष्णुता और धैर्य के साथ किया जाना चाहिए। स्वार्थी तत्व सदियों पुरानी इस पंथनिरपेक्षता को नष्ट करने के प्रयास में सामाजिक सौहार्द को चोट पहुंचाते हैं।
मुखर्जी ने कहा कि लगातार बेहतर होती जा रही प्रौद्योगिकी से त्वरित संप्रेषण के इस युग में हमें यह सुनिश्चित करने के लिए सतर्क रहना चाहिए कि कुछ इने-गिने लोगों की कुटिल चालें हमारी जनता की बुनियादी एकता पर कभी भी हावी न होने पाएं। उन्होंने कहा कि सरकार और जनता दोनों के लिए कानून का शासन परम पावन है। पर समाज की रक्षा कानून से बड़ी एक शक्ति द्वारा भी होती है और वह है मानवता। महात्मा गांधी ने कहा था, आपको मानवता पर भरोसा नहीं खोना चाहिए। मानवता एक समुद्र है और यदि समुद्र की कुछ बूंदें मैली हो जाएं, तो समुद्र मैला नहीं हो जाता।
मुखर्जी ने कहा- शांति, मैत्री और सहयोग विभिन्न देशों और लोगों को आपस में जोड़ता है। भारतीय उपमहाद्वीप के साझा भविष्य को पहचानते हुए, हमें संयोजकता को मजबूत करना होगा, संस्थागत क्षमता बढ़ानी होगी और क्षेत्रीय सहयोग के विस्तार के लिए आपसी भरोसे को बढ़ाना होगा। जहां हम विश्व भर में अपने हितों को आगे बढ़ाने की दिशा में प्रगति कर रहे हैं, वहीं भारत अपने निकटस्थ पड़ोस में सद्भावना और समृद्धि बढ़ाने के लिए भी बढ़-चढ़कर काम कर रहा है।
उन्होंने कहा कि हम भले ही मित्रता में अपना हाथ स्वेच्छा से आगे बढ़ाते हैं पर हम जानबूझ कर की जा रही उकसावे की हरकतों और बिगड़ते सुरक्षा परिवेश के प्रति आंखें नहीं मूंद सकते। भारत सीमा पार से संचालित होने वाले शातिर आतंकवादी समूहों का निशाना बना हुआ है। हिंसा की भाषा और बुराई की राह के अलावा इन आतंकवादियों का न तो कोई धर्म है और न ही वे किसी विचारधारा को मानते हैं। उन्होंने कहा कि हमारे पड़ोसियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके भू-भाग का उपयोग भारत के प्रति शत्रुता रखने वाली ताकतें न कर पाएं।
हमारी नीति आतंकवाद को बिल्कुल भी सहन नहीं करने की बनी रहेगी। राज्य की नीति के एक उपकरण के रूप में आतंकवाद का प्रयोग करने के किसी भी प्रयास को हम खारिज करते हैं। हमारी सीमा में घुसपैठ और अशांति फैलाने के प्रयासों से कड़ाई से निपटा जाएगा।
राष्ट्रपति ने कहा कि भारत 130 करोड़ नागरिकों, 122 भाषाओं, 1600 बोलियों और सात धर्मों का एक जटिल देश है। इसकी शक्ति, प्रत्यक्ष विरोधाभासों को रचनात्मक सहमतियों के साथ मिलाने की अपनी अनोखी क्षमता में निहित है। पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में यह एक ऐसा देश है जो मजबूत परंतु अदृश्य धागों से एक सूत्र में बंधा हुआ है और इसके इर्द-गिर्द एक प्राचीन गाथा की मायावी विशेषता व्याप्त है।