मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला ने 16 साल लंबी भूख हड़ताल खत्‍म कर चुनाव लड़ने का एलान किया है। आर्म्‍ड फोर्सेज स्‍पेशल पावर्स एक्‍ट (Afspa) को खत्‍म करने के लिए चल रही उनकी लड़ाई में यह फैसला कितना अहम है, आइए इस पर नजर डालते हैं।

क्या है पूरा मामला-
Afspa 1958 में बना एक कानून है जो उत्‍तर-पूर्व के ज्‍यादातर हिस्‍सों और कश्‍मीर में लागू है। यह कानून सुरक्षा बलों को तलाशी और देखते ही गोली मारने का अधिकार देता है। नवंबर 2000 में इंफाल के पास मालोम में असम राइफल्‍स के जवानों के हाथों 10 लोग मारे गए थे। यह घटना 2 नवंबर की थी। इसके तीन दिन बाद से ही इरोम शर्मिला Afspa को हटाए जाने के लिए अहिंसक आंदोलन कर रही हैं। उन्‍होंने प्रण लिया था कि जब तक यह कानून खत्‍म नहीं करा देंगी, तब तक न बालों को कंघी करेंगी और न आईना देखेंगी। उन्‍हें आत्‍महत्‍या की कोशिश करने का आरोप लगा कर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और एक अस्‍पताल में बतौर कैदी रख कर जबरन पाइप के जरिए खिलाया जा रहा है। इरोम का कहना है कि मणिपुर में ऐसी युद्ध जैसी कोई स्थिति नहीं है कि Afspa लागू रखा जाए। 2004 में मणिपुर के सात विधानसभा क्षेत्रों से Afspa हटाया भी गया। उसी साल मनमोहन सिंह ने एक कमेटी बनाई। 2005 में कमेटी ने Afspa हटाने की सिफारिश की। पर इस पर सरकार ने कोई एक्‍शन नहीं लिया। इरोम अपनी लड़ाई लेकर दिल्‍ली आईं, पर यहां भी उनकी नहीं सुनी गई।

इरोम शर्मिला के चुनाव लड़ने के फैसले का क्‍या मतलब है?
उनका ये फैसला काफी अहम है। ये सिस्‍टम की नाकामी और सिस्‍टम में यकीन का परिचायक है। नाकामी इस लिहाज से कि 16 साल तक एक आम आदमी भूख हड़ताल करता है और सिस्‍टम उसे उसकी बात सुनी जाने तक के लिए आश्‍वस्‍त नहीं कर पाता। वह 43 साल की हैं और 16 साल से अनशन पर ही हैं। मतलब उन्‍होंने जिंदगी के अनमोल दिन अपने मकसद को समर्पित कर दिए, पर हासिल कुछ नहीं हुआ। और, यकीन इस बात का कि 16 साल बाद शर्मिला ने ऐसा फैसला लिया है जो उनके पहले के निर्णय से ज्‍यादा सकारात्‍मक है। उन्‍होंने जान देने के बजाय लड़ने और सिस्‍टम में शामिल होकर लड़ने का फैसला किया।

क्‍या नए रास्‍ते से इरोम के लिए मंजिल पाना आसान होगा?

यह कहना अभी जल्‍दबाजी होगी, लेकिन इतना तय है कि इस रास्‍ते से उनका सफर आसान बनेगा।