बांग्लादेश में बने हालात के पीछे क्या सिर्फ छात्रों का आंदोलन वजह था? क्यों बात इतनी बढ़ गई कि शेख हसीना को देश छोड़ना पड़ा? ऐसे कुछ सवालों पर जनसत्ता.कॉम के साथ बांग्लादेश की पॉलिटिक्स पर नज़र रख रहे रिसर्चर Ferdous A Barbhuiya ने बातचीत की है। उन्होंने शेख हसीना की राजनीतिक यात्रा, जमात-ए-इस्लामी की छात्रों के आंदोलन में भूमिका, खालिदा जिया के सक्रिय राजनीति में वापसी, जैसे कई सवालों के जवाब दिए हैं।

क्यों सबकुछ इतना जल्दी हुआ, क्या सिर्फ छात्रों का आंदोलन वजह है?

ऐसा नहीं है कि सबकुछ अचानक हुआ है। हम लोग थोड़ा पीछे जाकर देखें कि जब से शेख हसीना की सरकार 2009 में सत्ता में आई थी। तब से उनका और आरक्षण से जुड़े इस कानून का विरोध होता रहा है। यह कानून स्वतंत्रता सेनानियों और उनके बच्चों के लिए सरकारी नौकरियों में 30% आरक्षण देता है। जब यह लागू किया गया तो इतना बड़ा विरोध नहीं हुआ लेकिन 2016-17 के आसपास लोग इसके खिलाफ सड़क पर उतर आए थे। 2018 में शेख हसीना सरकार दबाव में आई और इस कानून को एक नोटिफिकेशन के जरिए वापस ले लिया गया। यह मामला कानूनी लड़ाई में चला गया और ढाका हाईकोर्ट ने जून के पहले हफ्ते में एक फैसला दिया कि नोटिफिकेशन को वापस लेना गलत था और इस आरक्षण को बहाल कर दिया गया।

देखने वाली बात यह है कि सरकार ने इसे सिर्फ एक नोटिफिकेशन के जरिए हटाया, कोई संवैधानिक बदलाव नहीं किया गया। यही वजह थी कि छात्रों को सरकार की मंशा पर शक हुआ और आंदोलन बढ़ा होता रहा। छात्रों ने संवैधानिक बदलाव की बात कही लेकिन सरकार ने कहा कि यह कोर्ट का मामला है।

इस पूरे आंदोलन के विस्तार होने का एक और महत्वपूर्ण कारण रहा है। कारण है प्रधानमंत्री शेख हसीना के बयान। उन्होंने विरोध कर रहे छात्रों को ‘रजाकार’ कह दिया। रजाकार उन लोगों के लिए उपयोग में लिया जाने वाला शब्द है, जिन्हें 1971 में बंगलादेशी आर्मी के साथ धोखा करने वाले और पाकिस्तान का साथ देने वाले लोगों से जोड़कर कहा जाता है। इसके बाद आंदोलन का बढ़ना और ऐसे हालात बन जाना साफ था।

इस आंदोलन में जमात-ए-इस्लामी का हाथ है? क्या जमात की छात्र शाखा ने छात्रों को भड़काया?

यह सरकार (शेख हसीना) जब से सत्ता में आई है जमात-ए-इस्लामी के साथ इनका तकरार रहा है। बांग्लादेश के हर राजनीतिक संगठन ने छात्रों के इस आंदोलन का समर्थन किया था। समझने वाली बात यह है कि सरकार ने इस पूरे आंदोलन का ब्लेम जमात पर डाल दिया। सरकार ने यह तक कह दिया कि यह विरोध प्रदर्शन जमात ने चलाया है। एक हफ्ते पहले ही जमात को बैन भी कर दिया गया। इससे पहले जमात-ए-इस्लामी को चुनाव आयोग ने चुनाव लड़ने से भी बैन कर दिया था। यह सब मिलकर जमात मुख्य भूमिका में आ गई।

यह सही है कि जमात-ए-इस्लामी इस आंदोलन को समर्थन कर रही थी लेकिन इसे जमात लीड नहीं कर रही थी। यह आंदोलन सिर्फ छात्र लीड कर रहे थे।

क्या अब जमात-ए-इस्लामी राजनीतिक फायदा हासिल कर सकती है?

देखिए, आर्मी चीफ ने बांग्लादेश के कई राजनीतिक पार्टी के लोगों से मुलाकात की है और खबर है कि जमात के सदस्य भी इस बैठक में थे। दिलचस्प बात यह है कि जमात एक तरफ तो बैन है और आर्मी चीफ भी उन्हें बुला रहे। इससे समझा जा सकता है कि जमात अब वहां की सियासत में एक भूमिका निभाएगी। जमात जब 2001 के चुनाव में वहां शामिल हुई तो वहां के संविधान को स्वीकार करते हुए शामिल हुई, जो धर्मनिरपेक्षता की बात करता है। खालिदा जिया और उनकी पार्टी पूरी तरह सेक्युलर पार्टी है और जमात-ए-इस्लामी लंबे वक़्त तक उनकी सहयोगी रही है।

भारत पर इसका क्या असर पड़ने वाला है?

जैसा कि हमने देखा है, पूरे साउथ एशिया में इस तरह की उठापटक जारी है। जैसा श्रीलंका में हुआ, म्यांमार में हुआ, पाकिस्तान में भी सबकुछ ठीक नहीं है, बांग्लादेश को देखें तो पिछले दो आम चुनावों में शेख हसीना की आवमी लीग के सामने कोई विपक्षी दल नहीं था। तो यह साफ है कि बांग्लादेश में हसीना सरकार वन पार्टी सिस्टम के तहत थी। जब बांग्लादेश आजाद हुआ और शेख मुजीबउर रहमान ने सरकार बनाने के प्रयास किए तब भी हालात ऐसे ही थे। अब यह देखना काफी अहम होगा कि जो भी अंतरिम सरकार बनने जा रही है, उसका भारत को लेकर क्या रुख होगा और भारत का उस सरकार को लेकर क्या रुख होगा? यह साफ है कि भारत और बांग्लादेश दोनों एक दूसरे के लिए काफी महत्वपूर्ण देश हैं।