आज दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश या समाज होगा, जो इंटरनेट के बिना जीने की कल्पना कर सके। सिर्फ शहरी नहीं, बल्कि निर्जन और दुर्गम इलाकों में तो इंटरनेट को और भी बड़ी जरूरत बताया जाता है और दावा किया जाता है कि इसके न होने के कारण वहां विकास ठप पड़ा है। जिस तरह डिजीटलीकरण पर जोर बढ़ रहा है और कहा जा रहा है कि अगले बीस वर्षों में जो लोग डिजिटल माध्यमों से नहीं जुड़े होंगे, उनकी पहचान ही धुंधली हो जाएगी। साथ ही, अब दुनिया 2जी, 3जी और 4जी से आगे निकल कर 5जी या कहें कि तेज गति वाले इंटरनेट के दौर में आ चुकी है, जहां कई काम पलक झपकते पूरे कर लिए जाते हैं।

हालांकि इंटरनेट में तेजी लाने के इस किस्से में दिमाग को दिग्भ्रमित करने वाली समस्याओं का उल्लेख किया जाता है, जिसमें लोग इंटरनेट का सार्थक इस्तेमाल करने के बजाय अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा व्यर्थ की सामग्री (रील आदि) देखने-सुनने में बिता देते हैं, तो भी कई महत्त्वपूर्ण कार्यों में तेज इंटरनेट की जरूरत को अनिवार्य बताया जाता है।

अंतरिक्ष में सैटेलाइट लग जाने पर बेहद दुर्गम इलाकों तक पहुंच सकेगा

तेज गति वाले इंटरनेट की जरूरत का संदर्भ भारत की दो निजी दूरसंचार कंपनियों का अमेरिकी उद्योगपति एलन मस्क की कंपनी स्टारलिंक से हुए समझौते से जुड़ता है, जिसमें उपग्रहों से संचालित बेहद तेज गति वाले इंटरनेट को आम लोगों तक पहुंचाने की पहल की जा रही है। हालांकि इस सुविधा से आम लोगों का जीवन स्तर बढ़ने का दावा किया जा रहा है, लेकिन देश में मौजूदा दरों और इंटरनेट तक गरीबों की पहुंच के तथ्यों की रोशनी में यह कवायद कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाली मुहिम ज्यादा लगती है।

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बहरहाल, जहां तक बात देश की दो दूरसंचार कंपनियों के एलन मस्क की कंपनी के साथ हुए समझौते की है, तो इस बारे में एक नजरिया यह है कि इससे देश के करोड़ों लोग तेज गति वाले इंटरनेट की सुविधा हासिल कर सकेंगे। इसका कारण यह है कि स्टारलिंक का अंतरिक्ष में तैनात हजारों उपग्रहों का संजाल शहरों-कस्बों से लेकर दूरदराज के ग्रामीण और बेहद दुर्गम इलाकों तक पहुंच सकेगा, जहां अभी इंटरनेट का कोई जरिया नहीं है। मौजूदा स्थिति यह है कि स्टारलिंक के सात हजार उपग्रह अंतरिक्ष में तैनात हैं, तो पारंपरिक तरीके से उपलब्ध होने वाले इंटरनेट की तस्वीर को पलट कर रख देंगे।

वर्ष 2024 में भारत में सक्रिय इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 88.6 करोड़

मस्क की स्टारलिंक के जाल की बात करें, तो इस समय यह दुनिया के सौ देशों में उपभोक्ताओं तक पहुंच चुका है। इसके बरक्स भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या देखें, तो लगता है कि स्टारलिंक से भारतीय कंपनियों का समझौता उपभोक्ताओं के एक विशाल वर्ग की जरूरतों को साधने के मुकाबले कारोबारी ज्यादा है। इस पहलू को ‘इंटरनेट इन इंडिया रपट 2024’ के आंकड़ों से समझा जा सकता है। इस रपट के अनुसार वर्ष 2024 में भारत में सक्रिय इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 88.6 करोड़ थी। इसमें सालाना वृद्धि दर को जोड़ कर अनुमान लगाया जा रहा है कि इस साल यानी 2025 के अंत तक देश में 90 करोड़ लोग इंटरनेट इस्तेमाल कर रहे होंगे।

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इन आंकड़ों से यह भी पता चला है कि शहरों के मुकाबले अब ग्रामीण अंचलों में इंटरनेट का तेज प्रसार हो रहा है। इसका परिणाम यह है कि फिलहाल ग्रामीण इलाकों में 48.8 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़े हुए हैं, जो देश की कुल इंटरनेट आबादी का 55 फीसद है। फिर भी आकलन कहते हैं कि देश की 40 फीसद जनता के पास इंटरनेट तक पहुंच का कोई साधन नहीं है। इसके कई कारण हैं। जैसे खरीद क्षमता न होने के कारण स्मार्टफोन हासिल न होना और बिजली का कोई स्रोत उपलब्ध नहीं होना। एक और कारण यह है कि ऐसे लोग देश के दूरदराज और दुर्गम इलाकों में रहते हैं, जहां पारंपरिक तरीकों से इंटरनेट पहुंचाना मुश्किल रहा है।

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इंटरनेट की पहुंच देने के पारंपरिक तरीकों में ‘सेल्युलर टावर नेटवर्क’ और ‘फाइबर केबल नेटवर्क’- दो ही उपाय हैं। मौजूदा वक्त में इन्हीं दोनों तरीकों से दूरसंचार कंपनियां अपने ग्राहकों तक इंटरनेट पहुंचाती हैं। इनमें इमारतों की छतों पर लगे टावरों से नजदीकी इलाकों में ब्राडबैंड सेवा दी जा सकती है। आमतौर इसकी गति धीमी होती है। इसके मुकाबले फाइबर केबल से अपेक्षाकृत तेज गति वाला इंटरनेट मिलता है। लेकिन दूरदराज और पहाड़ी-रेगिस्तानी दुर्गम इलाकों में भूमिगत फाइबर केबल बिछाने या सेल्युलर टावर लगाने पर होने वाले खर्च की भरपाई तभी हो सकती है, जब उनके जरिए इंटरनेट सेवाएं लेने वालों की संख्या काफी ज्यादा हो। इसके मुकाबले दुनिया के किसी भी हिस्से तक सैटेलाइट ब्राडबैंड की सुविधा देने के लिए टावर लगाने या फाइबर केबल बिछाने की जरूरत नहीं है, हालांकि उपग्रहों का नेटवर्क कायम करने का खर्च पारंपरिक नेटवर्क के मुकाबले दस गुना ज्यादा महंगा है। इसलिए यहां असली सवाल कंपनी की लागत और उपभोक्ताओं द्वारा चुकाई जाने वाली कीमत का पैदा होता है।

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फिलहाल मस्क की कंपनी ने ‘लो अर्थ आर्बिट’ (एलईओ) सैटेलाइट तकनीक के जरिए इंटरनेट मुहैया कराने के वास्ते अंतरिक्ष में उपग्रहों का संजाल बिछा रखा है। इन उपग्रहों से मिलने वाले संकेत को जमीन पर घरों-दफ्तरों या चलते-फिरते वाहनों तक में डिश और राउटर लगा कर आसानी से पकड़ा और तेज गति वाला इंटरनेट हासिल किया जा सकता है। फिलहाल इसे आजमाने की कीमत काफी ज्यादा है। अनुमान है कि भारत में इसके लिए ग्राहकों को साढ़े तीन से चार हजार रुपए प्रतिमाह चुकाने पड़ सकते हैं। इस आकलन का आधार पड़ोसी देश भूटान में स्टारलिंक द्वारा दी जा रही सेवाओं का शुल्क है। वहां 23 एमबीपीएस की गति वाले इंटरनेट के लिए हर महीने तीन हजार नोंग्त्रुम (भूटानी मुद्रा) चुकाने होते हैं, जबकि 110 एमबीपीएस की गति वाले इंटरनेट कनेक्शन के लिए 4200 नोंग्त्रुम चुकाने होते हैं। भारतीय रुपए और भूटानी मुद्रा की कीमत लगभग एक जैसी है। इसलिए माना जा सकता है कि भारतीय उपभोक्ताओं को भी तकरीबन इतनी ही रकम चुकानी होगी।

आम इंटरनेट से काफी महंगा होगा ये प्लान

ऐसे में प्रश्न है कि पहले से ही महंगी हो चुकी इंटरनेट सेवाओं से त्रस्त हमारे उपभोक्ता क्या तेज गति वाले इंटरनेट के लिए और ज्यादा रकम चुका सकते हैं? साथ ही, जिन दूरदराज और दुर्गम इलाकों में सैटेलाइट ब्राडबैंड देने की बात हो रही है, वहां की ज्यादातर जनता गरीब है। वे सामान्य इंटरनेट का खर्च उठाने की स्थिति में नहीं है। इंटरनेट की अच्छी गति पाना हर नागरिक का अधिकार हो सकता है, जिस ढंग से लोगों की इंटरनेट पर निर्भरता लगातार बढ़ रही है, उसमें यह और जरूरी हो गया है। मगर यहां ध्यान रखना होगा कि हमारे देश में पहले ही उपभोक्ताओं से ज्यादा शुल्क लेना शुरू कर दिया गया है। ऐसी स्थिति में देश की गरीब और मध्यवर्गीय जनता को अत्यधिक महंगे इंटरनेट कनेक्शन लेने के लिए बाध्य किया जाता है, तो कह सकते हैं कि आने वाले वक्त में लोग फिर से इंटरनेट-विहीन दिनचर्या की ओर मुड़ सकते हैं, भले ही उन्हें इसका खमियाजा क्यों न उठाना पड़े। फिलहाल हमें इंटरनेट सेवाओं के बदलते परिदृश्य के लिए तैयार रहना चाहिए।