मेधा
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास उतना पुराना नहीं है, जितना कि स्त्री-मुक्ति की चेतना का इतिहास। आधुनिक स्त्री-अधिकारों के लिए संघर्ष का प्रतीक बन चुके आठ मार्च को सबसे पहले सोशलिस्ट पार्टी के आह्वान पर 1909 में मनाया गया। वर्ष 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल का कोपेनहेगन सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में इसे अंतरराष्ट्रीय दर्जा दिया गया। उस समय तक दुनिया के अधिकतर देशों में महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था।
दरअसल, स्त्री-मताधिकार के लिए संघर्ष ही उस समय ‘महिला दिवस’ का मुख्य ध्येय था।उसके बाद महिला दिवस पर 1917 में जार शासित रूस की महिलाओं ने रोटी और कपड़े के लिए हड़ताल पर जाने का फैसला किया। यह हड़ताल भी ऐतिहासिक थी। जार ने सत्ता छोड़ी, अंतरिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया। इस तरह महिला दिवस स्त्री के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक अधिकारों का प्रतीक बन गया।
मगर हम अतीत के पन्नों को पलटना शुरू करें, तो न केवल भारत, बल्कि पूरे विश्व में स्त्री-मुक्ति का पहला मुखर स्वर संभवत: ईसा पूर्व छठी सदी में दिखाई देता है, जब पहली बार गौतम बुद्ध स्त्रियों को बौद्ध विहार में प्रवेश की अनुमति देते हैं। तब पहली बार जाति, वर्ग और पितृसत्ता से पीड़ित स्त्रियां बौद्ध धर्म स्वीकार कर भिक्षुणियों का जीवन वरण करती हैं।
इन भिक्षुणियों को ‘थेरी’ कहा गया और इन्होंने जो अपनी आपबीती लिखी, उसे ‘थेरीगाथा’। इसमें ज्ञानप्राप्त 73 थेरियों के संघर्ष की कथा 522 गाथाओं में संकलित है। इन कथाओं में एक स्त्री के रूप में उनके शोषण की अभिव्यक्ति है, तो उसके प्रति बहुत गहरा विद्रोह भी है। इस तरह थेरीगाथा को स्त्री-मुक्ति का प्रारंभिक दस्तावेज कहा जा सकता है। दरअसल, थेरियों ने धर्म और अध्यात्म को पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक दासता से मुक्ति का माध्यम बनाया, जो अंतत: आत्म-साक्षात्कार का भी माध्यम बना।
मगर यहीं तक थेरियों का संघर्ष सीमित नहीं रह जाता, बल्कि वे बतौर स्त्री अपनी पीड़ा और उसके सांसारिक कारण को समझती हैं। अपना व्यक्तित्व अर्जित करती और फिर भौतिक संसार से परा-भौतिक संसार की यात्रा को अपना ध्येय बना कर परमपद प्राप्त करती हैं। कहा जा सकता है कि पितृसत्तात्मक संरचना द्वारा किए जा रहे दमन-शोषण के अहसास को दर्ज करने की मानसिक तैयारी और उसकी अभिव्यक्ति स्त्री-मुक्ति की पहली सीढ़ी है।
उस शोषण से इनकार, उसके खिलाफ संघर्ष को बुलंद करना उसकी दूसरी सीढ़ी हो सकती है। इस संघर्ष के दौरान अपने विचार और रचनाशीलता की धार को तेज कर स्त्री अपना व्यक्तित्व अर्जित करती है, जब वह बेधड़क प्रश्न कर सकती है। समाज से और राज्य से उत्तर की मांग कर सकती है। मगर यहां तक की यात्रा महज स्त्री होने भर की यात्रा है। स्त्री को असल आजादी तो तब मिलेगी, जब स्त्री नाम की संज्ञा और विशेषण- दोनों ही से उसे मुक्ति मिल जाए और उसे एक इंसान के बतौर जीने का हक मिल सकेगा। तब उसके लिए मनुष्य होने की परम संभावना तक पहुुंचने की यात्रा थोड़ी सहज हो सकेगी।
अखिल भारतीय भक्ति आंदोलन में स्त्री-मुक्ति की एक पूर्ण व्यवस्था दिखती है। हालांकि यह व्यवस्था सायास नहीं थी, लेकिन वहां उसकी उपस्थिति तो थी। ऐसा होने का कारण भक्ति आंदोलन की प्रकृति में ही छिपा है। भक्ति आंदोलन में बहुत कुछ ऐसा था, जिसे आधुनिक कहा जा सकता है और भक्ति का भाव आधुनिक चित्त से बहुत कुछ मेल खाता है।
भक्ति आंदोलन में धर्म दरवाजे तक चला आता है। शास्त्रों, पंडितों और देवालयों की कैद से मुक्ति न केवल धर्म को, बल्कि ईश्वर को भी मिलती है। धर्म और ईश्वर दोनों ही दरवाजे पर दस्तक देते हैं और सामान्य लोगों के जीवन में प्रवेश कर जाते हैं। तब का ईश्वर जितना दिव्य था, उतना ही मानवीय भी। उसका भी अपना परिवार था, एक स्वभाव था। भगवान भी मनुष्य की भांति विरोधाभासों का पुतला बना। ईश्वर अब आभिजात्य भाषा में बात नहीं कर रहा था। अब वह देशज भाषा में, लोक मुहावरों में बोल-बतिया रहा था। इस तरह भक्ति आंदोलन में भगवान जनता के वृत्त में आ गए और धर्म की दुनिया में एक किस्म का लोकतंत्र घटित हुआ।
इस प्रक्रिया में समाज के हाशियाकृत समुदाय, जिनमें स्त्री भी थी, ने प्रश्न करने का साहस पाया। वे न केवल धार्मिक संरचनाओं में अंतर्निहित विषमताओं पर सवाल उठा सके, बल्कि सामाजिक सत्ता संरचनाओं में उपस्थित शोषण के ताने-बाने पर भी प्रहार कर सके।
जब अपने ईश्वर से सवाल किया जा सकता है, तो समाज की वर्चस्वकारी शक्तियों से क्यों नहीं! भक्ति उस वक्त लोगों को सशक्त कर रही थी। वैसे ही जैसे कि आधुनिक समय में लोकतंत्र नागरिकों को शक्तिसंपन्न बनाता है।
भक्ति-आंदोलन की यह प्रवृत्ति आधुनिक समय में लोकतंत्र की मूल प्रकृति बनती है कि ‘मेरी इयत्ता मेरी सत्ता का केंद्र है, मैं ही हूं और मैं प्रश्न पूछूंगी।’ और यह सवाल पूछने का साहस और सामर्थ्य ही बतौर स्त्री एक नई यात्रा को जन्म देती है। भक्ति आंदोलन का संदर्भ स्त्री-मुक्ति की रचना और संघर्ष यात्रा के लिए जरूरी इसलिए भी हो जाता है, क्योंकि आज की स्त्री के जो प्रश्न हैं, वे भक्ति आंदोलन की स्त्री के भी प्रश्न थे। आज की स्त्री भी बाहर से थोपी गई भूमिकाओं, लादे गए दायित्वों से अलग अपने एक निजी ‘स्पेस’ की कामना करती है। और इसी निजी स्पेस के लिए उसे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में रोज-रोज संघर्ष करने पड़ रहे हैं।
पितृसत्तामक समाज आज तक स्त्रियों पर इल्जाम लगाता आ रहा है कि वह लालची स्वभाव की होती हैं और इन्हें भौतिक संसार के सुख से कभी फुर्सत ही नहीं मिलती। मगर हम देखते हैं कि चाहे उत्तर की मीरां हों या दक्षिण की अक्क या कश्मीर की ललद्यद- सबने इस इल्जाम को झूठा साबित कर दिया। अंग्रेजी के नाटककार इब्सन ने कहा था कि मनुष्य को जीने के लिए एक ‘वाइटल लाइ’ यानी खुशफहमी की जरूरत होती है और जरूरी है कि वह खुशफहमी जीवनपर्यंत बनी रहे।
कहना न होगा कि भक्ति आंदोलन की संत स्त्रियां ‘वाइटल लाइ’ के तौर पर अपने-अपने ईश्वर को चुनती हैं, तो आज की स्त्रियां भी अपने लिए अलग-अलग ढंग से ‘वाइटल लाइ’ का वरण करती हैं, कभी चारदीवारी के भीतर, तो कभी चारदीवारी के बाहर। मीरां के कृष्ण, आंडाल के विष्णु, अक्क महादेवी के चेन्नामलिकार्जुन और जनाबाई के विठ्ठल।
ये सब ईश्वर के रूप में इन स्त्रियों के मनचीते पुरुष हैं, जिनके लिए उनके मन में उद्दाम कामना है। जब ईश्वर ही मेरा है, मेरे कहे में है तो फिर डर किसका- यह भाव ही संत कवयित्रियों के जीवट का मूल मंत्र था। अपने-अपने ईश्वर के जरिए ये संत कवयित्रियां नई स्त्री के लिए नया पुरुष कैसा हो- इसका खाका भी तैयार कर रही थीं।