देवाशीष प्रसून
पूरी दुनिया में हर साल करीब डेढ़ लाख से अधिक मानव अंगों का प्रत्यारोपण होता है, जबकि इसकी चाहत रखने वाले लोगों की गिनती पंद्रह लाख से अधिक है। भारत में मानव अंग प्रत्यारोपण कानून 1994 में लागू हुआ। उसके बाद मानव अंगों के व्यावसायिक लेन-देन को दंडनीय अपराध घोषित किया गया। अलबत्ता मानव अंग के कारोबार में संलिप्त गिरोह बहुत सुनियोजित तरीके से गरीब और असहाय लोगों को बहुत मामूली रकम की एवज में जीते-जी अपने अंग बेचने को तैयार कर लेते हैं। हालांकि कई बार पीड़ितों को तय की गई धनराशि नहीं मिलती और उन्हें वादाखिलाफी और ठगी का दंश झेलना पड़ता है।
हाल में ऐसे ही एक गिरोह का पता चला, जिसके तार बांग्लादेश से लेकर झारखंड होते हुए गुरुग्राम और जयपुर से जुड़े थे। यह गिरोह बांग्लादेश के गरीब लोगों को जीते-जी अपना गुर्दा बेचने के लिए तैयार करता था। फिर उन्हें गुरुग्राम लाया जाता, कुछ दिन वहां ठहराकर उन पर तमाम तरह की चिकित्सीय जांच होती और किडनी प्रत्यारोपण के लिए उन्हें जयपुर ले जाया जाता, जहां दो बड़े अस्पतालों में उनके स्वस्थ अंग निकाल कर किसी अमीर व्यक्ति के बीमार शरीर में लगा दिया जाता था।
कुछ मरीज जीने की लालसा में कानून तोड़ने और अंग प्रत्यारोपण के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं, भले इस प्रक्रिया में कमजोर और गरीब लोगों का भीषण शोषण होता हो। ‘ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रीटी’ द्वारा ‘वैश्विक अपराध और विकासशील विश्व’ विषय पर मार्च 2017 में प्रकाशित एक रपट में मानव-अंगों के वैश्विक वार्षिक अवैध कारोबार को करीब 84 करोड़ से 1.7 अरब अमेरिकी डालर का आंका गया, जिसमें हर वर्ष अवैध रूप से करीब बारह हजार अंग प्रत्यारोपण कराया जाता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 2007 में प्रकाशित एक शोध-प्रबंध के अनुसार भारत में 305 लोगों पर हुए एक अध्ययन में पाया गया कि अपना गुर्दा बेचने में उनतीस फीसद स्त्रियां और इकहत्तर फीसद पुरुष शामिल थे। उनमें 60 फीसद स्त्रियां और 95 फीसद पुरुष दिहाड़ी मजदूरी या रेहड़ी-पटरी पर श्रम आधारित कारोबार करते और कुल मिलाकर 71 फीसद लोग गरीबी रेखा से बेहद नीचे रहने वाले थे। अंगदान के बाद 86 फीसद लोगों ने अपनी सेहत में लगातार गिरावट महसूस किया था। 96 फीसद अंग विक्रेताओं ने कर्ज चुकाने के लिए अपना गुर्दा बेचा था। बावजूद इसके, इस सर्वेक्षण के मुताबिक उनमें से तीन-चौथाई लोग कर्जमुक्त नहीं हो पाए, क्योंकि उनकी शारीरिक क्षमता लगातार कम होती जा रही थी और वे पहले की तरह मजदूरी कर कमाने के काबिल नहीं बचे थे।
अंग प्रत्यारोपण के दौरान चिकित्सीय और साफ-सफाई के घटिया इंतजाम की वजह से हेपेटाइटिस बी, हेपेटाइटिस सी और एचआइवी जैसी बीमारियों का खतरा भी अंगदाताओं के सामने मंडराता रहता है। अंग बेचने से होने वाली मानसिक और शारीरिक पीड़ा तथा सर्जरी के बाद देखभाल के घोर अभाव के कारण होने वाले अवसाद और अन्य मानसिक बीमारियों के कारण अंगदाताओं का स्वास्थ्य निरंतर खराब होता चला जाता है। जाहिर है कि जिनकी देह से अंग निकाला जाता है, उनकी सेहत की भरपाई किसी भी तरह, कभी भी नहीं हो पाती है।
विभिन्न रपटों के विश्लेषण से पता चलता है कि मानव अंगों में सबसे अधिक बिकने वाला अंग गुर्दा या किडनी है, जिसकी कीमत तेरह सौ से डेढ़ लाख अमेरिकी डालर है। इसके बाद औसतन चार हजार से लेकर 1.57 लाख अमेरिकी डालर तक की कीमत पर उपलब्ध लीवर दूसरा सबसे अधिक बिकने वाला अंग है। इनके अलावा नेत्रपटल, अनिषेचित मानव अंडे, रक्त, त्वचा, अस्थियों और अस्थि-बंधनों की भी मांग बनी रहती है। हृदय और फेफड़ा जैसे महत्त्वपूर्ण अंगों की तो बहुत अधिक मांग है, इसलिए इनकी कीमतें भी बहुत अधिक हैं, पर प्रत्यारोपण सर्जरी की परिष्कृत प्रकृति और तकनीकी जटिलता के कारण इनका अवैध कारोबार कम ही होता है।
गैर-कानूनी अंग प्रत्यारोपण में भेदभाव से जुड़ा एक और चिंताजनक आयाम यह है कि अमूमन स्वस्थ अंगों की बिक्री सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर लोग करते हैं और इसके लाभार्थी अक्सर संपन्न लोग होते हैं। इस प्रवृत्ति का खुलासा कई स्तरों पर होता है- मसलन, विकासशील देशों के लोग अंगदाता होते हैं और विकसित देशों के लोग प्राप्तकर्ता। महिलाएं अंग देनेवाली होती हैं और लेनेवाले पुरुष। मसलन, अश्वेत लोगों से गुर्दा, जीवित ऊतक या लीवर आदि लेकर गोरे लोगों में लगाया जाता है। बड़े शर्म की बात है कि अफ्रीकी, दक्षिण एशियाई या फिलिपिनो लोगों के गुर्दा के मुकाबले तुर्किए या पेरू मूल के लोगों का गुर्दा कई गुना महंगा है। मानो, मानव अंग न हुआ, अलग-अलग नस्लों की भेड़-बकरियां हों।
‘वर्ल्ड किडनी फोरम’ के दिसंबर 2009 अंक में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार 5.4 अरब लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले 98 देश, जो दुनिया की तत्कालीन आबादी का 82 फीसद हिस्सा थी, पर हुए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि वर्ष 2004 में किडनी प्रत्यारोपण के 10 फीसद मामलों में विकसित देशों के मरीजों ने आर्थिक रूप से विपन्न राष्ट्रों के अंगदाताओं से स्वस्थ गुर्दा की खरीदारी की थी।
इस अध्ययन के अनुसार, पाकिस्तान, भारत और तुर्किए जैसे आर्थिक रूप से पिछड़े देशों ने दुनिया भर में सबसे लोकप्रिय ‘किडनी बाजार’ होने की अप्रिय प्रतिष्ठा हासिल कर ली थी, जहां महज पंद्रह हजार से लेकर डेढ़ लाख अमेरिकी डालर तक के पैकेज में गुर्दा प्रत्यारोपण का धंधा जोरों पर चल रहा था। कीमतें मांग और आपूर्ति के बाजार नियम से संचालित होती हैं, जिसकी बोलियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगती हैं। 2007 में पाकिस्तान से 2500 गुर्दे बिके, जिनके दो-तिहाई खरीदार विदेशी थे। भारत में भी 2008 में अरबों रुपए का ‘किडनी घोटाला’ सामने आया था, जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गरीबों से गुर्दा लेकर यूएस, यूके, कनाडा, सऊदी अरब और ग्रीस के ग्राहकों में प्रत्यारोपित किया गया था।
अंगों की कालाबाजारी में मनुष्यता का यों पतन कर उसे ऐसे जानवरों की तरह बना देना, जिसके अंगों का खरीद-बिक्री खुले बाजार में होती हो, मानवाधिकारों का घोर अपमान है। अंगों के कालाबाजारी की आपराधिक पृष्ठभूमि के चलते उपजी गोपनीयता के कारण वर्तमान हालात के बारे में कोई सटीक ताजा आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, फिर भी पुराने आंकड़ों से हम इस धंधे की भयावहता का अंदाजा लगा सकते हैं। लिहाजा, अंगदाताओं की ऐसी करुण-कथा के मद्देनजर आज आवश्यक हो गया है कि इस तरह के मामले में निजी स्वार्थों से ऊपर उठ कर इंसानियत के मूल्यों की रक्षा की जाए और अपने जीवन की तरह लोग दूसरों के जीवन के प्रति भी संवेदनशील बनें। विचारणीय है कि स्वार्थवश किसी मजलूम की मजबूरियों का फायदा उठा कर अगर कोई अपनी धनशक्ति की बदौलत दूसरों के अंग छीनकर दो-चार साल की उम्र बढ़ा भी ली जाए, तो यह अमानवीयता से कम नहीं होगी।