सोनम लववंशी

निस्संतानता महिलाओं के जीवन पर बुरा असर डालता है। हमारे सामाजिक ताने-बाने में महिलाओं को ही इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसका नकारात्मक सामाजिक प्रभाव पड़ता है, जो कि अक्सर हिंसा, तलाक, सामाजिक विलगाव, अवसाद और चिंता की वजह बनता है। जबकि निस्संतानता के लिए सिर्फ कोई महिला जिम्मेदार नहीं होती है। बावजूद इसके पुरुषों पर सवाल नहीं उठाया जाता।

माना जाता है कि दुनिया में मातृत्व सबसे बड़ा सृजन है। एक स्त्री मां बनकर ही परिपूर्ण होती है। लेकिन आधुनिकता के इस दौर में सामाजिक मानदंड भी बदल रहे हैं। प्राचीन समय में एक स्त्री के लिए मां बनना ही सबसे बड़ा मकसद था। पर, आज इसकी परिभाषा बदल गई। अब स्त्री पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगी है। उच्च शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय की आपाधापी में उम्र बढ़ रही है, तो साथ ही बदलता परिवेश भी महिलाओं के स्वास्थ्य पर असर डाल रहा है। इसकी परिणति है कि निस्संतानता के आंकड़ों में बढ़ोतरी देखी जा रही है।

आज के दौर में रहन-सहन और दिनचर्या पूरी तरह से बदल गई है, जिसका असर हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ा है। साथ ही देरी से शादी करने और परिवार की योजना बनाने जैसे कारण भी महिलाओं की निस्संतानता का कारण बन रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रपट में इस बात का खुलासा किया गया है कि दुनिया में हर छह में से एक व्यक्ति पर ‘इनफर्टिलिटी’ यानी कि निस्संतानता का खतरा बना हुआ है।

दुनिया की करीब 17.5 फीसद जनसंख्या निस्संतानता की शिकार है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अमीर और गरीब दोनों ही देशों में बन रहे इस खतरे को लेकर अपने ताजा आंकड़े भी जारी किए हैं। इसके मुताबिक अमीर देशों में 17.8 फीसद, जबकि गरीब देशों में 16.5 फीसद लोग जीवन भर निस्संतानता का शिकार रहते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह अध्ययन 1990 से लेकर 2021 के बीच किया है, जिसमें 133 अध्ययन शामिल हैं।

चिकित्सीय अध्ययनों के अनुसार, विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में निस्संतानता का स्तर तेजी से बढ़ रहा है। विकासशील देशों में निस्संतानता के बढ़ते मामलों के पीछे अपर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल, असुरक्षित गर्भपात या प्रजनन अंगों में बढ़ता संक्रमण प्रमुख वजह है। ‘इंडियन सोसाइटी आफ असिस्टेड रिप्रोडक्शन’ की रपट भी कहती है कि भारत में लगभग दस से चौदह फीसद जोड़े निस्संतानता से प्रभावित हैं। शहरी क्षेत्रों में मामले अधिक हैं। यहां छह में से एक जोड़ा निस्संतान होने का दर्द झेल रहा है।

महिलाओं के नजरिए से देखें, तो निस्संतानता एक गंभीर चिकित्सीय समस्या है। ऐसी स्थिति में महिलाओं को गर्भधारण में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। ‘ओव्यूलेशन डिसआर्डर’, ‘फैलोपियन ट्यूब’ का बंद या क्षतिग्रस्त होना, ‘एंडोमेट्रियोसिस’, बच्चेदानी तथा उसके मुंह से जुड़ी समस्या आदि इसके प्रमुख कारण हैं। देरी से शादी, तनाव और गलत खानपान भी निस्संतानता के लिए जिम्मेदार है।

महिलाओं में निस्संतानता का कारण हार्मोन संबंधी असंतुलन, बीमारी, शराब और नशीली दवाओं का उपयोग और उम्र के साथ होने वाली सामान्य प्राकृतिक प्रक्रिया भी हो सकती है। कई बार पुरुष के कमजोर शुक्राणुओं की वजह से भी सही गर्भधारण नहीं हो पाता। मगर ये लाइलाज नहीं है। समय पर उपचार किया जाए तो निस्संतानता से छुटकारा पाया जा सकता है। बढ़ती तकनीक ने कुछ हद तक ही सही, पर निस्संतान दंपति को राहत देने का काम किया है। यही वजह है कि संतान के सपने बेचने का कारोबार बड़ी तेजी से फल-फूल रहा है। आंकड़ों के अनुसार यह करीब चार अरब अमेरिकी डालर का है।

वैसे तो एक महिला की माहवारी की अवधि 28 दिन की होती है। कभी-कभी यह चक्र 21 से 35 दिनों तक रहता है, जिसे सामान्य माना जाता है। मगर, जब यह अनियमित होता है, तो इससे महिलाओं के स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। यह हार्मोन संबंधी असंतुलन के कारण होता है। यह महिलाओं में निस्संतानता का कारण बन सकता है। बढ़ती उम्र को भी इसकी बड़ी वजह माना जा रहा है।

ऐसे में गर्भधारण अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है। तीस वर्ष की उम्र तक अंडों की गुणवत्ता अच्छी होती है, उसके बाद उनकी मात्रा में गिरावट शुरू हो जाती है और चालीस वर्ष की उम्र के करीब आने पर और भी कम हो जाती है। यही वजह है कि वर्तमान दौर में गर्भवती होना अधिक कठिन हो गया है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारी आने वाली पीढ़ी को इस समस्या से बचना है, तो ‘इंडोक्राइन डिसरप्टिंग’ पदार्थ में हो रही मिलावट को कम करना होगा। ये पदार्थ अंडाशय को प्रभावित करते हैं। ये कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल, प्लास्टिक के जलने, औद्योगिक कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट में पाए जाते है। मगर बढ़ते बाजारवाद के दौर में हानिकारक चीजों की भरमार है, जिससे बचना लगभग नामुमकिन है। अगर इस समस्या से हमें बचना है तो हमें जीवनशैली को संतुलित रखना होगा। उचित आहार और नियमित व्यायाम से इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।

निस्संतानता महिलाओं के जीवन पर बुरा असर डालता है। हमारे सामाजिक ताने-बाने में महिलाओं को ही इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसका नकारात्मक सामाजिक प्रभाव पड़ता है, जो कि अक्सर हिंसा, तलाक, अवसाद और चिंता की वजह बनता है। जबकि निस्संतानता के लिए सिर्फ एक महिला जिम्मेदार नहीं होती है। बावजूद इसके पुरुषों पर सवाल नहीं उठाया जाता।

यहां तक कि हमारे देश में पुरुष अक्सर परीक्षण करवाने से मना कर देते हैं क्योंकि पुरुष निस्संतानता को पौरुष और सम्मान से जोड़कर देखते हैं। यही वजह है कि पुरुष जांच कराने में असहज महसूस करते हैं। लेकिन पुरुष निस्संतानता के परीक्षण में स्वास्थ्य की जांच की जाती है, यह एक सामान्य शारीरिक परीक्षण होता है, जिसके बाद शुक्राणु विश्लेषण होता है।

निस्संतानता की बढ़ती समस्या की प्रमुख वजह वर्तमान दौर में तेजी से बढ़ता प्रदूषण है, जो किसी न किसी रूप में हमारे शरीर में जहर घोलने का काम कर रहा है। आधुनिकता के इस दौर में हमारी जीवनशैली भी तेजी से बदलती जा रही है। हमारा रहन-सहन खानपान सब कुछ बदल गया है। बदलती दिनचर्या के साथ ही जलवायु परिवर्तन भी इस पर असर डाल रहा है।

निस्संतानता की सबसे ज्यादा दर 20.2 फीसद प्रशांत महासागर क्षेत्र में है। इसमें चीन, जापान, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देश शामिल हैं। जबकि ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों में यह दर 16.5 फीसद है, यानी यहां हर छठवां व्यक्ति निस्संतानता की समस्या का शिकार है। वहीं अमेरिका में यह आंकड़ा बीस फीसद है, जो कि बहुत ज्यादा है।

भारत में भी यह आंकड़ा बीस फीसदी के करीब है। एक अन्य रपट के मुताबिक जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और झारखंड में निस्संतानता की समस्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 15 से 49 वर्ष की महिलाओं के आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है।

निस्संतानता वित्तीय कठिनाइयों के रूप में भी एक दंपति के जीवन पर असर डालता है। हमारे देश में निस्संतानता की समस्या में बढ़ोतरी के बावजूद इसके रोकथाम, निदान और उपचार के लिए कोई विशेष समाधान नहीं किए जा रहे हैं। यहां तक कि ‘इन विट्रो फर्टिलाइजेशन’ (आइवीएफ) जैसी तकनीक को भी पर्याप्त वित्तपोषण नहीं मिल पा रहा है। अधिक धन खर्च करने के साथ ही सामाजिक दृष्टि और सीमित उपलब्धता के कारण निस्संतानता का उपचार कठिन हो जाता है।

खासकर यह मध्यवर्गीय और गरीब परिवार के लोगों की क्षमता से दूर है। सरकार को इस दिशा में पहल करनी चाहिए, ताकि सार्वजनिक वित्तपोषण निस्संतानता के उपचार तक पहुंच को आसान बना सकें। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी अपनी अनुशंसा में कहा है कि दुनिया भर की सरकारों को निस्संतानता को सार्वजनिक स्वास्थ्य का विषय मानते हुए इस पर खर्च बढ़ाना चाहिए। जरूरतमंद लोगों के लिए सस्ते और उच्च गुणवत्ता वाले प्रजनन केंद्र जैसे आइवीएफ की पहुंच सुनिश्चित करनी चाहिए, ताकि निस्संतानता पर लगाम लगाई और एक खुशहाल परिवार की नींव रखी जा सके।