देश के चुनावी इतिहास में 1977 के आम चुनाव काफी चर्चित चुनाव रहे हैं। जब इंदिरा गांधी को जनता पार्टी के राज नारायण ने रायबरेली लोकसभा में 55 हजार वोटों से हराया था। आजादी के बाद ऐसा पहली बार था कि कांग्रेस को करारी शिकस्त मिली। इधर इंदिरा तो हारी ही थीं उनके बेटे संजय गांधी भी अमेठी की सीट को बचाने में नाकामयाब हुए।
अचानक हुई चुनावी घोषणा से विपक्ष नाखुश था लेकिन इंदिरा गांधी के दिमाग में क्या चल रहा था, यह किसी के लिए भी समझना आसान नहीं था। इंदिरा गांधी ने चुनाव से पहले 40 हज़ार किलोमीटर की यात्रा की और देश के हर हिस्से में पहुंचीं। उन्हें यह अंदाज़ा था कि आपातकाल की घोषणा और कुछ सख्त फैसलों के रहते जनता काफी नाराज़ है।
इंदिरा गांधी की हार के बाद कैसा था माहौल?
इंदिरा गांधी यह चुनाव 55 हजार वोटों से हार गईं लेकिन उन्हें ऐसी उम्मीद नहीं थी। जब नतीजे आ रहे थे और इंदिरा पिछड़ती दिखाई दीं तो रायबरेली के जिला मजिस्ट्रेट विनोद मल्होत्रा पर यह दबाव डाला गया कि वह फिरसे गिनती करवाएं। बीबीसी ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि चुनावी परिणाम के दिन इंदिरा गांधी 1 सफ़दरजंग रोड पर अपने आवास पर मौजूद थीं और रात तक नतीजे देखती रहीं।
एक वीडियो इंटरव्यू में मेनका गांधी बताती हैं- “यह चुनाव काफी मुश्किल था, मैं कई इलाकों में संजय (उनके पति) के साथ गई, मैंने उनके साथ काम किया, लेकिन वह हार गए।”
जिस रात परिणाम सामने आ चुके थे उस रात का ज़िक्र करते हुए मेनका कहती हैं- “जिस रात चुनाव हारे, हम लखनऊ से लौटे, हमने घर में प्रवेश किया, सिर्फ अंधेरा था और एक बत्ती जल रही थी। हम अंदर गए तो वहां मेरी सास (इंदिरा गांधी) अपनी दोस्त पुपुल जयकर के साथ बैठीं थीं। उनके अंदर भयानक शांति थी। इतने बड़े घर में कोई और नहीं था। हम वहां बैठे लेकिन हमारी चुनाव को लेकर कोई बात नहीं हुई।” कहा जाता है कि चुनाव खत्म होने के तीन महीने बाद तक इंदिरा गांधी काफी शांत रहीं।
हार के बाद इंदिरा गांधी ने 22 मार्च 1977 को चुनाव के फैसले को स्वीकार कर लिया और तत्कालीन कार्यवाहक राष्ट्रपति बीडी जट्टी को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया। 25 मार्च 1977 को जनता पार्टी गठबंधन के नेता चुने जाने के बाद मोरारजी देसाई ने भारत के प्रधान मंत्री के तौर पर शपथ ली थी। वह गैर-कांग्रेस पीएम बनने वाले पहले नेता थे।