भारत कभी विश्व में कपास का एक प्रमुख उत्पादक और निर्यातक था। मगर आज कपास उत्पादन गंभीर संकट से जूझ रहा है। यह संकट न केवल किसानों की आजीविका पर खतरा पैदा कर रहा है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था और वस्त्र उद्योग पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। कपास भारत की महत्त्वपूर्ण नकदी फसल है, जिसका देश की कृषि अर्थव्यवस्था में अहम योगदान है। यह लाखों किसानों और कृषि श्रमिकों के लिए आय का मुख्य स्रोत है। इसके अलावा, यह भारतीय वस्त्र उद्योग की रीढ़ की हड्डी है, जो देश के सबसे बड़े रोजगार सृजन क्षेत्रों में से एक है। सदियों से, भारत ने उच्च गुणवत्ता वाले कपास का उत्पादन किया है और वैश्विक बाजार में प्रमुख स्थान बनाए रखा है।
हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में, भारतीय कपास उत्पादन कई चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिससे इसके उत्पादन में गिरावट आई है और किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। कीटों का प्रकोप, मिट्टी की उर्वरता में कमी, पानी की कमी, बढ़ती लागत और बाजार की अस्थिरता जैसे कारकों ने मिल कर इस संकट को जन्म दिया है। इस संकट का सीधा असर किसानों की आर्थिक स्थिति, वस्त्र उद्योग में प्रतिस्पर्धा और अंतत: देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है।
भारतीय कृषि के लिए बड़ा खतरा बन गया जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन भारतीय कृषि के लिए बड़ा खतरा बन गया है। कपास उत्पादन भी इससे अछूता नहीं है। अनियमित वर्षा, अत्यधिक गर्मी, सूखा और बाढ़ से कपास की फसल बुरी तरह प्रभावित हो रही है। लंबे समय तक सूखे के कारण सिंचाई के लिए पानी की कमी हो जाती है, जबकि अत्यधिक वर्षा और बाढ़ से फसलें नष्ट हो जाती हैं। बदलते मौसम के कारण कीटों और बीमारियों का प्रकोप भी बढ़ गया है, जिससे फसल की पैदावार और गुणवत्ता दोनों प्रभावित हो रही हैं। दरअसल, कपास की फसल विभिन्न प्रकार के कीटों और बीमारियों के प्रति संवेदनशील होती है।
इनमें सबसे प्रमुख गुलाबी ‘बालवर्म’ है, जिसने हाल के वर्षों में देश के कई कपास उत्पादक क्षेत्रों में भारी तबाही मचाई है। बीटी कपास, जिसे ‘बालवर्म’ के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के लिए जेनेटिक रूप से संशोधित किया गया था, शुरू में काफी सफल रहा, लेकिन धीरे-धीरे कीटों ने इसके प्रति भी प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। इसके अलावा, सफेद मक्खियों और अन्य बीमारियों ने भी कपास की फसल को नुकसान पहुंचाया है, जिससे किसानों को भारी आर्थिक नुकसान हुआ है।
जोखिम की राह पर रेलयात्रा, रेल सुरक्षा और यात्री सुविधा की गुणवत्ता पर फोकस की जरूरत
लगातार एक ही प्रकार की फसल उगाने और रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग के कारण देश के कई कपास उत्पादक क्षेत्रों में मिट्टी की उर्वरता कम हो गई है। मिट्टी में जैविक कार्बन की कमी हो गई है, जिससे मिट्टी की जल धारण क्षमता और पोषक तत्त्वों को बनाए रखने की क्षमता कम हो गई है। इसके परिणामस्वरूप, कपास की पैदावार में गिरावट आई है और उत्पादन लागत बढ़ गई है। कपास पानी की खपत वाली फसल है। भारत के कई कपास उत्पादक क्षेत्र पहले से ही पानी की कमी से जूझ रहे हैं। भूजल स्तर में गिरावट और सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता में कमी के कारण किसानों को कपास की खेती करने में कठिनाई हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है।
पहले के अपेक्षा कपास की खेती करना अब हो गया है महंगा
कपास की खेती की लागत पिछले कुछ वर्षों में काफी बढ़ गई है। बीज, उर्वरक, कीटनाशक और श्रम की लागत में वृद्धि के कारण किसानों के लिए कपास की खेती करना महंगा हो गया है। इसके अलावा, कीटों और बीमारियों के प्रकोप के कारण किसानों को अतिरिक्त कीटनाशक खरीदने और उनका उपयोग करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिससे उत्पादन लागत और बढ़ जाती है। कपास की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है, जिससे किसानों के लिए अपनी उपज की बिक्री से स्थिर आय प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। कई बार, किसानों को अपनी फसल को लागत से भी कम कीमत पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिससे उन्हें भारी नुकसान होता है। सरकारी समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था भी सभी किसानों तक प्रभावी रूप से नहीं पहुंच पाती है। कई क्षेत्रों में किसानों को नकली या निम्न गुणवत्ता वाले बीजों का सामना करना पड़ता है, जिससे फसल की पैदावार और गुणवत्ता प्रभावित होती है। बढ़ती लागत के कारण कई किसान कर्ज के जाल में फंस गए हैं।
कपास उत्पादन संकट से निपटने तथा कपास किसानों और वस्त्र उद्योग के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग को कम करने और मिट्टी के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए टिकाऊ कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना महत्त्वपूर्ण है। जैविक खेती, प्राकृतिक खेती और एकीकृत कीट प्रबंधन जैसी तकनीक अपनाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। कपास की खेती में पानी के कुशल उपयोग को बढ़ावा देने के लिए ‘स्प्रिंकलर सिंचाई’ जैसी आधुनिक सिंचाई तकनीकों को अपनाने के लिए किसानों को वित्तीय सहायता और तकनीकी मार्गदर्शन प्रदान किया जाना चाहिए। जल संरक्षण और वर्षा जल संचयन के उपायों को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। कीटों और बीमारियों के प्रकोप से निपटने के लिए अनुसंधान और विकास में निवेश बढ़ाने की आवश्यकता है।
भारत में कपास उत्पादन का संकट गंभीर चुनौती
किसानों को उनकी उपज के लिए उचित मूल्य मिले, यह सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी बाजार समर्थन प्रणाली और मूल्य स्थिर रखने के उपायों को लागू करने की आवश्यकता है। सरकारी खरीद केंद्रों को मजबूत किया जाना चाहिए और किसानों को समय पर भुगतान सुनिश्चित किया जाना चाहिए। किसानों को आसानी से और उचित मूल्य पर अच्छी गुणवत्ता वाले बीजों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी बीज उत्पादन और वितरण प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है। नकली और निम्न गुणवत्ता वाले बीजों की बिक्री रोकने के लिए सख्त नियम और कानून लागू किए जाने चाहिए। कपास की खेती से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर अनुसंधान और विकास में अधिक निवेश करने की आवश्यकता है। इसमें नई किस्मों का विकास, कीट और रोग प्रबंधन की बेहतर तकनीक और टिकाऊ कृषि पद्धतियां शामिल हैं। किसानों को आधुनिक कृषि तकनीकों, फसल प्रबंधन, कीट और रोग नियंत्रण, और बाजार की जानकारी के बारे में शिक्षित और प्रशिक्षित करना महत्त्वपूर्ण है।
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भारत में कपास उत्पादन का संकट गंभीर चुनौती है, जिसका सामना देश के किसान, वस्त्र उद्योग और अर्थव्यवस्था कर रहे हैं। इस संकट का किसानों की आजीविका पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। हालांकि, सही नीतियों और रणनीतियों को अपना कर इस संकट से निपटा जा सकता है। टिकाऊ कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना, पानी के कुशल उपयोग को प्रोत्साहित करना, कीटों और बीमारियों के प्रबंधन के लिए प्रभावी रणनीतियां विकसित करना, मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार करना, बाजार समर्थन सुनिश्चित करना और किसानों को शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करना कुछ महत्त्वपूर्ण कदम हैं, जो कपास उत्पादन को फिर से पटरी पर लाने में मदद कर सकते हैं।