हाल ही में पेरिस में संपन्न हुए पैरालंपिक खेलों में भारत के खिलाड़ियों ने निस्संदेह उल्लेखनीय प्रदर्शन किया। पेरिस पैरालंपिक-2024 में भारतीय खिलाड़ियों ने उनतीस मेडल जीत कर पदक तालिका में देश को अठारहवें पायदान पर खड़ा कर दिया। दस पदक तो बेटियों ने ही जीते। हौसले और जुनून की बानगी कहे जा सकने वाले खेलों के इस आयोजन में इस बार भारत ने पाकिस्तान, दक्षिण कोरिया और बेल्जियम जैसे कई देशों को पीछे छोड़ दिया है। भारतीय खिलाड़ियों ने सात स्वर्ण, नौ रजत और तेरह कांस्य पदक अपने नाम किए हैं। वर्ष 2021 में तोक्यो पैरालंपिक में पहली बार भारत दहाई का आंकड़ा छूने में कामयाब रहा था। इस वर्ष भारतीय खिलाड़ियों का प्रदर्शन सराहनीय ही नहीं, ऐतिहासिक भी रहा। भारत ने इस बार पैरालंपिक में कुल चौरासी खिलाड़ी भेजे थे।

दरअसल, भारतीय पैरा खिलाड़ियों की यह सफलता देशवासियों को गर्व महसूस करवाने वाली तो है ही, हर खिलाड़ी की यात्रा भी किसी न किसी मोर्चे पर प्रेरणादायी है। यही कारण है कि आत्मविश्वास के बूते अविश्वसनीय प्रदर्शन कर देश का मान बढ़ाने वाले दिव्यांग खिलाड़ियों ने पदक ही नहीं, देशवासियों का दिल भी जीता है। अपनी पहचान बनाने की यात्रा में शारीरिक-मानसिक प्रतिकूलताओं से जूझ कर जीतने वाले खिलाड़ियों की सफलता सराही गई। आभासी दुनिया से लेकर असल संसार तक, विजेताओं को खूब शाबाशी दी गई। अवनी लेखरा ने तो पेरिस पैरालंपिक में महिलाओं की दस मीटर एअर राइफल श्रेणी में लगातार दूसरी बार स्वर्ण पदक जीता। वहीं नीतेश कुमार ने भी रोमांचक मुकाबले को जीत कर स्वर्ण पदक देश के नाम किया।

पैरालंपिक 2024 में भाला फेंक प्रतियोगिता में सुमित अंतिल ने अपना ही कीर्तिमान तोड़ कर स्वर्ण पदक हासिल किया। भारत के पैरा खिलाड़ी तीरंदाज हरविंदर सिंह ने भी इतिहास रचते हुए व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतकर बड़ी उपलब्धि दर्ज की। ओलंपिक या पैरालंपिक में किसी भी भारतीय तीरंदाज का यह पहला स्वर्ण पदक है। पैरा एथलीट धरमबीर ने भी न केवल पुरुष क्लब थ्रो में नया एशियाई कीर्तिमान बनाते हुए स्वर्ण पदक जीता, बल्कि भारत के लिए पहली बार पैरालंपिक खेलों में क्लब थ्रो स्पर्धा में पदक हासिल किया। इसी प्रतियोगिता में खिलाड़ी प्रणव सूरमा ने रजत पदक जीत कर देश को गौरवान्वित किया है। प्रवीण कुमार ने ऊंची कूद में स्वर्ण पदक जीता, तो नवदीप सिंह ने बड़ी कामयाबी हासिल करते हुए भाला फेंक प्रतियोगिता में भारत को स्वर्ण पदक दिलाया। किसी खिलाड़ी ने अंगों की विकृतियों, तो किसी ने मांसपेशियों की समस्याओं से जूझते हुए अपनी जीत दर्ज की। गौरतलब है कि 1968 में पहली बार भारत ने पैरालंपिक खेलों में भाग लिया था। इस भागीदारी के चार साल बाद देश को पदक मिल सका था।

अनगिनत मुश्किलों के बीच मिली कामयाबी

हमारे परिवेश में देखने में आता है कि शारीरिक अशक्तता से जूझ रहे लोगों को आम जीवन में सहज सहयोग और सराहना नहीं मिल पाती। कामयाबी के शिखर पर पहुंचने के बाद ही उनके प्रति स्वीकार्यता का भाव दिखता है। किसी भी क्षेत्र में कमाल कर दिखाने के बाद पहचान और मान मिलना सही है, पर आम नागरिक की तरह जीते हुए तो अनगिनत मुश्किलें उनके हिस्से होती हैं। निशक्तजनों के प्रति उपहास उड़ाने और असभ्य भाषा का व्यवहार आम है। तेलंगाना के वारंगल जिले के काल्लेड़ा गांव की दीप्ति जीवनजी को भी गांव के लोग चिढ़ाते हुए ताने मारते थे। बीस वर्षीय दीप्ति पैरालंपिक में कांस्य पदक हासिल कर भारत की पहली ‘इंटेलक्चुअली इंपेयर्ड एथलीट’ बन गई हैं। इतना ही नहीं, दीप्ति, 2022 के ‘एशियन पैरा गेम्स’ और 2024 की ‘वर्ल्ड पैरा चैंपियनशिप’ में भी स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं।

दिव्यांगों के प्रति तयशुदा सोच को इसी बात से समझा जा सकता है कि आज देश का नाम चमकाने वाली इस पैरा खिलाड़ी के लिए लोग यह तक कहने लगे थे कि ऐसी लड़की को अनाथालय भेज देना चाहिए। ‘मेन्स जेवलिन थ्रो’ में स्वर्ण पदक देश की झोली में डालने वाले नवदीप को भी बौना-बौना कह कर चिढ़ाया जाता था। ऐसे तानों के कारण नवदीप कई-कई दिनों तक घर से बाहर नहीं निकलते थे। ऐसे उदाहरण इस कटु सच को सामने रखते हैं कि आज भी निशक्तजनों को उपहास उड़ाने की मानसिकता का सामना करना पड़ता है। आज भी समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो उन्हें आश्रित इंसान के रूप में ही देखते हैं।

2.2 फीसदी आबादी जूझ रही विकलांगता से

ऐसे में दिव्यांग खिलाड़ियों की सफलता पर शाबाशी देने के साथ ही समाज की सोच बदलने की जरूरत है। आज देश में अलग-अलग श्रेणियों में दिव्यांगों की आबादी दो करोड़ से भी ज्यादा है। ‘राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय’ के 2018 में हुए एक सर्वे के मुताबिक भारत की 2.2 फीसद आबादी विकलांगता से जूझ रही है। भारत में आम खिलाड़ियों के लिए ही तमाम चुनौतियां हैं, तो शारीरिक अशक्तता से जूझ रहे इन चेहरों के सामने कितनी मुश्किलें आती होंगी। ऐसे में पदक जीतने वाले खिलाड़ियों के लिए आगे खेलने के मोर्चे पर भी बेहतर परिवेश बनाने के प्रयास आवश्यक हैं।

पैरालंपिक खेलों में उनतीस पदक पाने तक पहुंचने की यात्रा भी बहुत-सी कोशिशों का ही परिणाम है। ताजा उपलब्धियों के पीछे की सधी तैयारियां और व्यवस्थागत प्रयास ही हैं। पैरालंपिक खिलाड़ियों की तैयारी के लिए न केवल वित्तीय सहायता बढ़ी है, बल्कि पैरा खिलाड़ियों को मुख्यधारा के खिलाड़ियों की तरह अहमियत भी मिलने लगी है। भारत सरकार ने पेरिस पैरालंपिक 2021-2024 के लिए 74 करोड़ रुपए आबंटित किए गए थे।

भारत की पहली महिला पैरालंपिक पदक विजेता और एशियन पैरालंपिक समिति की सदस्य होने के साथ ही वर्ष 2020 में ‘पैरालंपिक कमेटी आफ इंडिया’ की अध्यक्ष बनीं दीपा मलिक के अनुसार हालिया वर्षों में पैरालंपिक के लिए जो नीति बनी है, उसमें ‘टारगेट ओलंपिक पोडियम’ के तहत खिलाड़ियों को तैयारी के हिसाब से राशि दी जा रही है। साथ ही, खुद खिलाड़ी भी अपने हिसाब से तैयारी कर रहे हैं। पैरालंपिक में पदक बढ़ने की एक वजह यह भी रही कि अब जमीनी स्तर पर कई खिलाड़ियों के लिए तैयारी के वास्ते ‘एक्सीलेंस प्रोग्राम’ और ‘खेलो इंडिया पैरा गेम्स’ जैसे कार्यक्रम हो रहे हैं। वहीं, पैरा खिलाड़ियों को केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं के माध्यम से विशेष उपकरणों के लिए वित्तीय सहायता मिली है।

खिलाड़ियों के संघर्ष को जानने में लोग दिखा रहे दिलचस्पी

उचित प्रशिक्षण ने भी प्रदर्शन में सुधार किया। सुखद यह है कि सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से आमजन भी इनके संघर्ष के बारे में जानने में दिलचस्पी ले रहे हैं। इनके हौसले को सराह रहे हैं। उम्मीद है कि दिव्यांग खिलाड़ियों को गिनती के दिनों के लिए चर्चित चेहरा मानने के बजाय उनसे हमेशा के लिए समाज की सोच में बदलाव आएगा।

दिव्यांग खिलाड़ियों की सफलता पर शाबाशी देने के साथ ही समाज की सोच बदलने की जरूरत है। आज देश में अलग-अलग श्रेणियों में दिव्यांगों की आबादी दो करोड़ से भी ज्यादा है। ‘राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय’ के 2018 में हुए एक सर्वे के मुताबिक भारत की 2.2 फीसद आबादी विकलांगता से जूझ रही है। भारत में आम खिलाड़ियों के लिए ही तमाम चुनौतियां हैं, तो शारीरिक अशक्तता से जूझ रहे इन चेहरों के सामने कितनी मुश्किलें आती होंगी। ऐसे में पदक जीतने वाले खिलाड़ियों के लिए आगे खेलने के मोर्चे पर भी बेहतर परिवेश बनाने के प्रयास आवश्यक हैं।