हम आबादी के लिहाज से चीन को पछाड़ चुके हैं। अगर पहले दुनिया में सातवां आदमी भारतीय था और पांचवां चीनी, तो आज स्थिति विपरीत है। अब हर पांचवां आदमी भारतीय और शायद सातवां आदमी चीनी होगा। जहां तक इस देश का संबंध है, तो न तो हम इसमें 142 करोड़ लोगों की सेहत की स्थिति पर गर्व कर सकते हैं और न ही उनके ज्ञान की क्षमता पर। सेहत के माडल बना कर उन्हें आम आदमी की पहुंच तक लाकर चुनावी एजंडे बनाए जाते हैं और ‘जय जवान, जय किसान’ के साथ जय अनुसंधान का नारा लगाया जाता है।

मगर वास्तविकता यह नहीं है। जहां तक शिक्षा से प्राप्त ज्ञान का संबंध है, तो दुनिया कृत्रिम मेधा के युग तक आ गई है। हमारे यहां पुस्तक संस्कृति से लेकर अन्वेषण उद्यम तक की मौत होती नजर आ रही है। जब युवा पीढ़ी के ज्ञान का परीक्षण होता है, तो पता चलता है कि दसवीं और बारहवीं पास भी दूसरी और तीसरी कक्षा के स्तर के गुणा-भाग और जमा करने में असफल रहते हैं। क्या इस देश को शिक्षा और चिकित्सा में एक नई क्रांति की जरूरत है?

देश में उपचार कराना है बहुत महंगा

अभी पंजाब में एक विस्तृत परख कार्यक्रम शुरू किया गया है, जिसमें यह जांचा जाना है कि पढ़े-लिखे नौजवानों की शिक्षा का वास्तविक स्तर क्या है। बेहतर होता कि इससे पहले उन्हें पढ़ाने वाले अध्यापकों की शिक्षा और उनके सामान्य ज्ञान का स्तर भी जांच लिया जाता। इससे भी अधिक बल सेहत पर दिया जाना चाहिए। देश में उपचार बहुत महंगा हो गया है। सरकारी अस्पताल लोगों की कसौटी पर पूरा नहीं उतर पाते और निजी अस्पताल बहुत महंगे हैं। इस समस्या का सामना करने के लिए आयुष और आयुष्मान योजना लाई गई।

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मगर आयुष योजना में आयुर्वेदिक, यूनानी और एलोपैथी का सही समावेश हम नहीं पाते। आयुष्मान योजना को लेकर निजी क्षेत्र उत्साहित नहीं है। निजी अस्पतालों का विचार है कि आयुष्मान कार्ड जारी तो कर दिए जाते हैं, लेकिन मरीजों के उपचार के बाद उनका भुगतान जारी नहीं होता। पिछले दिनों तो पंजाब में बार-बार आयुष्मान योजना को निजी चिकित्सा क्षेत्र ने नकारा। अभी हाल में जब सत्तर वर्ष से अधिक उम्र के वरिष्ठ नागरिकों के लिए भी आयुष्मान योजना और उसमें पांच लाख रुपए तक के मुफ्त इलाज की स्वीकृति मिली, तब भी निजी क्षेत्र की यही शिकायत थी कि जब पहले त्वरित भुगतान नहीं हुआ, तो अब हो जाएगा, इसकी क्या गारंटी? सरकारी अस्पतालों में पहले की तरह इलाज संभव है, लेकिन वहां उचित दवाओं, उचित सुविधाओं और चिकित्सकों की कमी मरीजों के लिए बड़ी परेशानी का कारण है।

इलाज के नाम पर फर्जीवाड़ा

देश में उपचार के नाम पर फर्जीवाड़ा शुरू हो गया है। हम दवाइयों के उत्पादन में आत्मनिर्भरता की घोषणा करते हैं। इसके निर्यात का प्रयास कर रहे हैं। मगर हमारी दवाओं का स्तर यह है कि जब कोरोना काल में हमने अपने उत्पादित टीकों के साथ कोरोना पर विजय पाने की घोषणा कर दी तो उन टीकों को विदेशियों ने प्रभावहीन कह कर नकार दिया। निस्संदेह चिकित्सा के क्षेत्र में हमने क्रांति की बातें की हैं, लेकिन उसमें अपनी साख बनाने के लिए अपेक्षित प्रयास नहीं दिखता।

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क्या कारण है कि फार्मा उद्योग के कच्चे माल के लिए हम आज भी चीन पर निर्भर हैं। जबकि चीन से आयात का बहिष्कार करने की घोषणा हमने काफी दिनों से कर रखी थी। कहा जा रहा है कि अब सीमा पर सेनाओं में तनातनी नहीं रहेगी, लेकिन पीठ पीछे वार करने की प्रवृत्ति और पाकिस्तान से प्रेरित आतंकवाद को लुकाछिपा प्रोत्साहन चीन को अभी भी स्वीकार्य नहीं बनाता, तो उससे आए हुए कच्चे माल कैसे स्वीकार करेंगे।

देश में बढ़ रही बुजुर्गों की आबादी

देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा बुजुर्गों का है। उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन क्या अपने वरिष्ठजनों की सेहत संभाल के भगीरथ प्रयास हमने किए हैं? क्या उनके शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कल्याण की शपथ ली है? ताकि ये लोग भी स्वस्थ जीवन जी सकें। आज इक्कीसवीं सदी में भारत के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक चुनौती यह है कि अगले पच्चीस वर्षों में जब बुजुर्गों की आबादी तीन गुना बढ़ जाएगी, उनके उपचार के लिए क्या हम कोई अग्रिम योजना बना रहे हैं?

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अभी भी वृद्धाश्रमों को देश में भिक्षुगृह से ऊंचा दर्जा नहीं दिया जाता है। भौतिकवाद के प्रसार ने संयुक्त परिवारों को तोड़ दिया है। दुखद है कि अब बूढ़े मां-बाप की देखभाल के लिए संतान तत्पर नहीं, चाहे उनकी संपत्ति के एक-एक पैसे का वह बंटवारा कर लेना चाहती है। बेशक योग और ध्यान करके अपने बुढ़ापे को थामने की बातें होती हैं। मगर याद रखा जाए कि ये केवल उपक्रम भर हैं। वास्तव में बुजुर्गों को सही मायने में प्राथमिकता देने की जरूरत है। देश में एक-तिहाई हो जाने वाले इन वरिष्ठों के वर्ग को कोई काम नहीं मिलता। तर्क यही है कि जब देश के युवाओं को काम नहीं, तो बूढ़ों को कहां से दे दें?

परिवार नियोजन को लेकर नहीं है कोई प्रतिबद्धता

अब बुजुर्गों के बाद बच्चों की भी सुध लेने की आवश्यकता है। बेशक प्रजनन दर कुछ कम हुई है, लेकिन केवल एक वर्ग में। देश के अधिकांश वर्गों में परिवार नियोजन को लेकर प्रतिबद्धता नहीं। इसीलिए आबादी की बड़ी समस्या पैदा हो रही है। चाहे सरकार ने किसी को भी भूख से न मरने देने की गारंटी दे रखी है, लेकिन देश की वंचित और निम्न मध्यवर्ग की आबादी में कुपोषण की गंभीर समस्या तो है ही। सर्वेक्षण बताते हैं कि कुपोषण के कारण पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे अचानक मौत का शिकार हो रहे हैं।

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देश के अधिकतम राज्यों में गरीब परिवारों की महिलाओं को प्रसव का कष्ट भोगना पड़ता है, लेकिन तेजी से समृद्ध हो रहे उच्च मध्यवर्ग की स्त्रियों पर प्रसव के दौरान ‘सीजेरियन’ के लिए दबाव रहता है। यह दबाव निजी क्षेत्र के अस्पताल ही बनाते हैं। अंदाजा है कि वंचित वर्ग के मुकाबले इस वर्ग में ‘सीजेरियन’ की दर कम से कम दोगुनी है। इस अनावश्यक ‘सीजेरियन’ की वजह से सामान्य प्रसव के दौरान डर भी शामिल हो जाता है। इस बीच लोगों में कृत्रिम गर्भाधान से बच्चे पैदा करने की लालसा पैदा हुई।

भौतिकवाद के प्रसार के साथ लोग शादियों को टाल रहे हैं और सह-जीवन में जा रहे हैं। समाज के इस बदलते स्वरूप में सेहत सुधार के पुराने नियम नहीं चलते। खेल के मैदानों की जगह बहुमंजिली इमारतें सामने आ रही हैं। ‘खेलो इंडिया’ और ‘फिट इंडिया’ के नारे किताबी हो रहे हैं। ऐसी अवस्था में हम सस्ते स्वास्थ्य माडलों की चाहे जितनी बात कर लें, लेकिन जब तक यह स्थिति नहीं बदलती, तब तक देश के आम लोगों में बीमारी से बचाव की क्षमता में वृद्धि नहीं होगी और निजी उपचार क्षेत्र की लूटमार जारी रहेगी।