भारतवासियों ने बड़ी उम्मीद के साथ इस नए वर्ष का स्वागत किया है। सत्ता ने उन्हें बताया है कि दुनिया में आज भारत का सानी नहीं। अंतरिक्ष से लेकर अर्थव्यवस्था तक इसका डंका बज रहा है। कहा जा रहा है कि भारत अपने अतीत को भविष्य में बदल देगा। यानी वह विश्वगुरु था और अब फिर बन जाएगा। वैसे भी अब ‘जय जवान जय किसान’ से ‘जय अनुसंधान’ हो गया है। देश तेजी से आत्मनिर्भर हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत का महत्त्व इतना बढ़ गया है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। मगर अपना प्रशस्ति गान करने के इस दंभ में कुछ चुनौतियां भी देश की अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी हो गई हैं।

ये पहले से शुरू हो गई थीं और सिवाय मंचीय भाषणों और दावों के, इन समस्याओं को हल करने का कभी गंभीर प्रयास नहीं किया गया। भूख मिटाने की गारंटी तो दे दी, लेकिन देश के बेकार हाथों को काम देने की गारंटी नहीं दी। देश को आत्मनिर्भर बनाने की बात कही गई, लेकिन उसके लिए कच्चे माल और ऊर्जा स्रोतों का सृजन भारत में नहीं हुआ।

मनाया गया आजादी का अमृत महोत्सव

देश में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया गया। महोत्सव के बाद घोषणा हुई कि अब त्वरित गति से पूंजी निर्माण होगा। इसके साथ ही देश में बुनियादी उद्योगों की ऐसी नींव डाली जाएगी कि फुटकर उद्योगों को अपना रास्ता पकड़ने में कठिनाई नहीं होगी। दुनिया में भारत की आबादी सभी देशों से अधिक हो गई है। इस आबादी को काम देने के लिए सहकारी आंदोलन को नया जीवन देने की घोषणा संसद में बार-बार होती रही। मगर अभी तक यह सहकारी आंदोलन अपने पुराने भ्रष्टाचारों के आतंक से बाहर नहीं आ सका है। बार-बार एक लाख नौजवानों को राजनीति में लाने की बात हुई, लेकिन नजर आया कि देश की रगों में नए रुधिर के नाम पर परिवारवाद ही प्रोत्साहित हो रहा है।

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आज नए वर्ष की एक सार्थक शुरूआत करने की बात कहनी हो, तो हमें देश के बुनियादी उद्योगों का सबल विकास, नींव के रूप में बनाने पर चर्चा करनी चाहिए, लेकिन पहला सवाल यही है कि बीते नवंबर में देश के आठ बुनियादी उद्योगों में उत्पादन धीमा कैसे हो गया! आधिकारिक आंकड़े कहते हैं कि यह 4.3 फीसद रहा। एक साल पहले यह 7.9 फीसद था। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि हमारा सपना तो दुनिया की पांचवीं आर्थिक महाशक्ति से आगे बढ़ कर तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनना है। मगर नवंबर 2024 कहता बीत गया कि कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के उत्पादन में कमी आई है।

कोयला, रिफाइनरी उत्पाद, उर्वरक, इस्पात और बिजली के उत्पादन में वृद्धि के बजाय कमी नजर आने लगी है। सबसे अधिक कमी कोयला उत्पादन में आई है, कोई 7.5 फीसद। जबकि वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के रूप में सौर ऊर्जा की बहुत बातें होती हैं। इसके उपयोग के लिए तैयार होने वालों के लिए कुछ प्रोत्साहन भी घोषित किए गए हैं, लेकिन इस देश में लोग आज भी कोयले को ही ताप और ऊर्जा का बड़ा साधन मानते हैं।

विकास दर में आई गिरावट

जब इन मूल उद्योगों के उत्पादन की ओर पिछले वर्ष के आंकड़ों को जांचते हैं, तो पाते हैं कि तुलनात्मक ढंग से आज की तुलना में तब इन सभी बुनियादी उद्योगों में विकास की गति अधिक्र थी। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इस वर्ष अप्रैल-नवंबर के दौरान बुनियादी ढांचे की वृद्धि दर 4.2 फीसद रही। जबकि पिछले वित्तवर्ष में यह 8.7 फीसद थी। बुनियादी ढांचे के विकास को इतनी बड़ी ठोकर क्यों लगी? इसका कारण है कि निवेशक और उद्योगपति अपने हर निवेश से त्वरित लाभ की आशा करते हैं, लेकिन देश का बुनियादी ढांचा तो केवल भावी उत्पादन का आधार बनता है।

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देश के विकास का ठोस धरातल बनता है। इसलिए तत्काल लाभ न मिलने की वास्तविकता के कारण निजी निवेशक इस ओर पैसा नहीं लगाना चाहते। वादे के बावजूद सरकार पूंजी निर्माण और बुनियादी उद्योगों के विकास के लिए अतिरिक्त राशि नहीं निकाल पाती। जहां तक अनुसंधान का संबंध है, हमने ‘जय अनुसंधान’ तो कह दिया, लेकिन दूसरी महाशक्तियों के मुकाबले हमारा अनुसंधान के लिए व्यय उनसे तीन-चार गुना कम है। इसके लिए गंभीर प्रयास भी नजर नहीं आते। अंतत: इसका प्रभाव अंतरराष्ट्रीय व्यापार में देश की साख पर पड़ता है।

दवा उत्पादन क्षेत्र पर होते रहे हैं गर्वित

हम अपने दवा उत्पादन क्षेत्र पर बहुत गर्वित होते रहे हैं। जब कई दावों के बाद दुनिया में दवाओं और अन्य संबंधित वस्तुओं का निर्यात बढ़ा, तो पता चला कि यहां स्तरहीन दवाओं का निर्माण हो रहा है। नकली दवाएं भी खूब बन रहीं। बाद में देश को मिले निर्यात के आदेश निरस्त होने लगे। दवाएं वापस आकर देश के निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बनने के सपनों को झुठलाने लगीं। केवल दवाएं ही क्यों, हमने जो माल इस देश से निर्यात किया, वह अधिक लागत वाला माना गया। इसके लिए विदेशों से निर्यात के वो आदेश हमें नहीं मिले, जिसकी हमें उम्मीद थी। अधिकतर पैसा तेजी से विकसित होते कुछ देशों की ओर चला गया। आप देखिए कि दुबई में भारतीयों ने कितना पैसा लगाया है, क्योंकि वहां व्यापार की सहजता और सुलभता है। ऐसा तीसरी दुनिया के अन्य कई देशों में भी है।

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भारत कार्य व्यापार के दावों को सहज करने के बावजूद नौकरशाही और लालफीताशाही की नाक में नकेल नहीं डाल सका। अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षक बताते हैं कि सुधार के दावे तो बहुत किए गए, लेकिन उत्पादन के हर चरण पर इजाजत का ऐसा चक्रव्यूह व्यापारियों को झेलना पड़ता था कि उन्होंने भी उन देशों का रुख करना शुरू कर दिया, जहां नियम कायदों का यह तंत्र जाल नहीं था। तंत्र के हर मोड़ पर भ्रष्ट अधिकारी अपना मुंह खोले बैठे थे। नया युग लाना है, लेकिन उसकी सबसे बड़ी दुविधा यही है कि हमारी मुद्रा डालर के मुकाबले लगातार गिरती जा रही है और हमारे स्वर्ण भंडार का क्षरण हो रहा है। इस समय डालर के मुकाबले रुपया 86 रुपए प्रति डालर से ऊपर चला गया है। इस गिरावट को थामने के लिए हम वैकल्पिक मुद्रा भी प्रयोग नहीं कर सकते, जैसा ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान सोचा गया था।

दूसरी ओर, बचत के पारंपरिक तरीके सोने की तेजी को छू नहीं पा रहे। चांदी भी लगातार तेज हो रही है। देश में आर्थिक सुरक्षा के लिए सोने का संग्रह करना पुरानी रिवायत है। सोने के पीछे बौराई जनता उसे इस नए आर्थिक वर्ष में 90 हजार रुपए प्रति तोला तक ले जा सकती है। अभी यह अस्सी हजार पार करने को बेताब है। यह न भूलें कि सोने का अपने देश में उत्पादन बहुत कम है। मुख्यत: सोना भी आयात किया जाता है। अब अगर आर्थिक सुरक्षा की तलाश में देशवासी सोने-चांदी जमा करने के लिए भागते हैं, तो अंदाजा लगाइए कि इन मूल्यवान धातुओं के आयात से हमारी आयात व्यवस्था कैसे गड़बड़ा जाएगी और जिस देश को हम निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बनाने की बार-बार घोषणा करते हैं, क्या यह घोषणा मात्र एक सपना ही रहेगी?