हाल में विदेश मंत्रालय के दो अधिकारियों को तालिबानी नेताओं से बात करने कतर भेजा गया। उसके बाद विदेश मंत्री कतर गए और वहां के शीर्ष नेतृत्व से मिले। कतर के मुख्य वार्ताकार मुतलाक बिन मजीद अल कहतानी ने पुष्टि की है कि भारत ने तालिबान से संपर्क करना शुरू किया है। अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान से हटने को लेकर वहां काफी कुछ बदल रहा है। तालिबान मजबूत हो रहा है।
अफगानिस्तान में भारत का काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है। मजबूत होते तालिबान के कारण भारत को अपनी नीति बदलनी पड़ रही। अफगानिस्तान से 20 साल बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी 11 सितंबर तक पूरी होगी। इस बीच तालिबान ने अफगानिस्तान के 50 जिलों पर कब्जा कर लिया है। तालिबान ने अफगानिस्तान के चार प्रमुख शहरों को भी घेरा हुआ है। अफगान नेशनल आर्मी और पुलिसबल कमजोर मनोबल, भ्रष्टाचार से जूझ रही हैं। काबुल से मिलने वाली सहायता में कमी के कारण सुरक्षाबलों ने पहले ही तालिबान के सामने आत्मसमर्पण किया हुआ है। जो बचे हैं, वे तालिबान के आत्मघाती कार बम और आइईडी हमलों का सामना करने में असमर्थ हैं।
भारत की कवायद
कतर की राजधानी दोहा में भारतीय अफसरों और तालिबानी नेताओं के बीच बातचीत हुई है। विदेश मंत्रालय आधिकारिक तौर पर इस बारे में चुप्पी साधे हुए है। कतर में तालिबानी नेताओं से बातचीत को अफगान-तालिबान वार्ता का एक हिस्सा बताया जा रहा है। दरअसल, कूटनीतिक गलियारे में इस कवायद को गंभीरता से लिया जाने लगा है, क्योंकि विदेश मंत्री एस जयशंकर दो हफ्तों में दो बार दोहा पहुंचे और कतर के शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात की। कतर में तालिबान का राजनीतिक नेतृत्व जमा हुआ है। वे लोग वहां कई पक्षों से बात कर रहे हैं।
जाहिर है, विश्व मंच पर यह मान लिया गया है कि अफगानिस्तान को लेकर तालिबान अहम खिलाड़ी बना हुआ है। ऐसे में भारत भी अफगानिस्तान की बदलती हकीकत को स्वीकार करके तालिबान को तवज्जो देने लगा है। जानकारों की राय में इस तरह के संपर्क किसी न किसी स्तर पर पहले भी थे। वर्ष 1990 के आसपास तो तालिबान ने खुद भारत से संपर्क किया था। खुफिया स्तर पर तो संपर्क रहा ही है।
फिलहाल, दोहा जैसी कवायद पहली बार हो रही है। भारत ने अफगानिस्तान को पेशेवर, ढांचागत विकास, यातायात और सुरक्षा के लिए बड़ी आर्थिक सहायता प्रदान की है। भारतीय बाजारों में अफगान उत्पादों के शुल्क मुक्त पहुंच ने इस देश को और मजबूत बनाने में मदद की है। वर्ष 2018-19 में भारत और अफगानिस्तान के बीच लिपक्षीय व्यापार करीब 1.5 अरब डॉलर का था। भारत अफगानिस्तान में भारत एक व्यापक आधार वाली प्रतिनिधि सरकार की स्थापना चाहता है, जो शांति, स्थिरता और समावेशी शासन प्रदान कर सके और यह सुनिश्चित कर सके कि पिछले 20 वर्षों की प्रगति सुरक्षित है।
तालिबान को लेकर आशंकाएं
भारतीय कूटनीतिज्ञों का मानना है कि अमेरिकी मदद, सलाहकारों और हथियारों के अभाव में ऐसी आशंका है कि राजधानी काबुल थोड़े समय में तालिबानों के हाथ में आ जाए। हालांकि, अफगान राष्ट्रपति आशावादी बने हुए हैं। अगर ईरान, रूस और अन्य देशों लारा समर्थित हजारा, ताजिक और उजबेक नेताओं जैसे अन्य जातीय समूह तालिबान के खिलाफ सक्रिय रूप से लड़ते हैं, तो अफगानिस्तान में गृह युद्ध लंबा खिंच सकता है। अफगानिस्तान में मौजूदा हुकूमत से हमारे बहुत अच्छे रिश्ते हैं। लेकिन बदलती परिस्थितियों में तालिबान भी भारत से बातचीत चाहता है। ऐसे में भारतीय राजनयिक नई दोस्ती परख रहे हैं। हालात अब वैसे नहीं रहे, जैसे कंधार विमान अपहरण कांड के वक्त थे। अब बदलाव का संकेत देते हुए विदेश मंत्रालय ने हाल में कहा कि हमने हमेशा अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता को बढ़ावा देना चाहा है। इसके लिए हम कई पक्षों से संपर्क में हैं।’
पाकिस्तान-तालिबान रिश्ते
पाकिस्तान और तालिबान के गहरे रिश्ते हैं। वर्ष 1989 में सोवियत सेनाओं के अफगानिस्तान से निकलते वक्त जो समझौता हुआ था, उसमें पाकिस्तान भी शामिल था। जब पाकिस्तान ने 2001 में अमेरिका को सैन्य और वायुसेना के अड्डे दिए तो तालिबान उसका दुश्मन बन गया। पेशावर के सैन्य स्कूल पर हमला तालिबान ने कराया था। अमेरिका ने सैकड़ों बार पाकिस्तान पर आरोप लगाया कि वह तालिबानी गुट हक्कानी नेटवर्क को पनाह दे रहा है।
तालिबान क्या है
1979 से 1989 तक अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का शासन रहा। अमेरिका, पाकिस्तान और अरब देश अफगान लड़ाकों (मुजाहिदीन) को पैसा और हथियार देते रहे। जब सोवियत सेनाओं ने अफगानिस्तान छोड़ा तो मुजाहिदीन गुट एक बैनर तले आ गए। इसको नाम दिया गया तालिबान। हालांकि अब तालिबान कई गुटों में बंट चुका है। तालिबान में 90 फीसद पश्तून कबायली लोग हैं। इनमें से ज्यादातर पाकिस्तान के मदरसों से जुड़े हैं।
– पश्चिमी और उत्तरी पाकिस्तान में भी काफी पश्तून हैं। अमेरिका और पश्चिमी देश इन्हें अफगान तालिबान और पाकिस्तानी तालिबान के तौर पर बांटकर देखते हैं। 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत रही। तब सिर्फ तीन देशों – सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान ने इन्हें मान्यता दी।
क्या कहते
हैं जानकार
तालिबान अपने नियंत्रण का विस्तार करने और ताकतवर बनने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और वरिष्ठ नेता अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने अमेरिकी राष्ट्रपति से भरोसा लिया है कि वे विभिन्न सहायता प्रदान करना जारी रखेंगे। भारत की अहम भूमिका है, क्योंकि भारत ने अफगानिस्तान को बड़ी आर्थिक सहायता दी है।
– योगेश गुप्ता, अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत
तालिबान के साथ भारत किस स्तर पर बात कर रहा है और भविष्य में करेगा, यह सब इस पर निर्भर करता है कि तालिबान लोकतांत्रिक तरीके अपनाता है या नहीं। अब परिस्थितियां पहले जैसी नहीं हैं। 20 साल में काफी कुछ बदला है। भारत हमेशा से ही अफगानिस्तान के आम लोगों के साथ ही खड़ा है और भारत ने अफगानिस्तान के साथ गहरे संबंध स्थापित किए हैं।
– निरंजन देसाई, पूर्व राजनयिक