सदाचरण में पहले सोचने फिर बोलने और ऐसा कुछ भी न बोलने की नसीहत है, जिससे दूसरे के मन को ठेस पहुंचती हो। मगर राजनीति में शायद सदाचार का अब कोई मोल नहीं रहा। खासकर चुनावों के दौरान उन्माद, उत्तेजना पैदा करने और जानबूझ कर आहत करने वाले बयान देना जैसे राजनेताओं ने अपनी शान समझ ली है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में चुनाव प्रचार के दौरान कई राजनेता निस्संकोच ऐसे बयान देते देखे जा रहे हैं, जिन्हें किसी रूप में मर्यादित और संवैधानिक नहीं कहा जा सकता।

अभी पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी न जाने किस भावावेश में मतदाताओं से अपील कर गए कि यूपी बिहार के भैयों को सत्ता में घुसपैठ मत करने दो। बस क्या था, आम आदमी पार्टी के मुखिया समेत तमाम विपक्षी दलों को उन्हें निशाना बनाने का मौका हाथ लग गया। हालांकि अरविंद केजरीवाल खुद भूल गए कि ठीक ऐसा ही बयान कुछ साल पहले उन्होंने भी दिया था कि यूपी, बिहार के लोग दिल्ली में आकर मुफ्त में इलाज करा जाते हैं। अब जिस तरह अपने बयान पर चन्नी सफाई देते फिर रहे हैं, कुछ उसी तरह केजरीवाल भी तब देते फिरे थे।

उत्तर प्रदेश, बिहार के लोग देश के विभिन्न शहरों में रोजी-रोटी या नौकरियों की वजह से जाकर बसे हैं। यह पहला मौका नहीं है, जब किसी राज्य का मुखिया उनकी तादाद से इस तरह असहज दिखा हो। असम और महाराष्ट्र में तो इन राज्यों से गए लोग पीटे और भगाए जाते ही रहे हैं, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी एक बार कहा था कि यूपी, बिहार के लोगों की वजह से दिल्ली की आधारभूत संरचना पर भारी दबाव पड़ रहा है।

दरअसल, पूरबिया या भैया कहे जाने वाले इन लोगों के प्रति बहुत सारे राज्यों में एक आम धारणा हिकारत की ही रही है, इसलिए चन्नी के भीतर की वही धारणा जुबान पर उतर आई होगी। मगर ऐसी धारणाएं और बयान देश की संघीय व्यवस्था के खिलाफ हैं, इसलिए उन पर आपत्ति स्वाभाविक है। देश के किसी भी हिस्से के किसी भी नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में जाकर काम करने और बस जाने का अधिकार है।

हालांकि चुनाव प्रचार के दौरान चन्नी का बयान इकलौता नहीं है, जिसे लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा भी अपनी पार्टी की अच्छी-खासी किरकिरी करा चुके हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तो आए दिन ऐसा कुछ बोल देते हैं, जिसे लेकर पार्टी और उन पर अंगुलियां उठनी शुरू हो जाती हैं।

चुनाव प्रचार के दौरान प्रतिपक्षी की कमियां बताना गलत नहीं है, मगर जब नेताओं के बयान व्यक्तिगत आक्षेप या किसी की जाति, धर्म पर प्रहार के रूप में प्रकट होने लगते हैं, तो उन्हें किसी भी रूप में मर्यादित नहीं कहा जा सकता। चुनाव आचार संहिता में भी ऐसे बयानों पर प्रतिबंध है। इसलिए कुछ नेताओं के खिलाफ मुकदमे भी दर्ज हुए हैं, मगर अब तक का अनुभव यही है कि चुनाव के दौरान दिए गए ऐसे बयानों के खिलाफ किसी को कोई भारी नुकसान नहीं उठाना पड़ा है। इसलिए भी नेताओं को अपनी जुबान पर लगाम लगाना शायद जरूरी जान नहीं पड़ता। मगर विडंबना है कि इस तरह के असंयमित और अमर्यादित बयान देकर आखिर ये राजनेता समाज में क्या नजीर पेश कर रहे हैं। क्या सचमुच उन्हें लोकतंत्र का प्रहरी माना जा सकता है!