जापान ने जाजम पर बैठकर सलीके से पेश की जाने वाली सिट-कॉम ‘राकुगो’ के मार्फत अपनी संस्कृति में रचे बसे किस्से कहानियों को बड़े मंचों तक पहुंचाया है। ‘राकुगो’ के मायने हैं झरते हुए अल्फाज। किस्सों में पिरोई जापानी को यूट्यूब पर कई भाषाओं में सुनकर महसूस किया जा सकता है कि कोई देश अपने आपको कला और कहन के अंदाज में कैसे महफूज रखता है।

दरअसल, हमारी लोक-परंपराओं में किस्से-कहानियों के जरिए लोकमानस भी तैयार होता रहा है। यह लीक पहले की तरह अमिट रहनी चाहिए यह समझ जहां कहीं भी दूर छूटी है अफसोस की एक लंबी लकीर खींच गई है।

राजस्थान में ‘कावड़ बांचने’ और ‘बापू जी की फड़’ जैसी कथा कहने के बेहद जुदा लोकमाध्यम अब नई पीढ़ी तक नहीं पहुंच पा रहे। इन्हें नया जीवन देने की ताकत अब तकनीक के पास ही है जो अभी गरीबी में गुजर बसर करने वाले कलाकारों के बस का तो नहीं। कथा उत्सवों ने अभी हमारे यहां वो मुकाम नहीं पाया है जिस तरह इस्राइल की वाइब इस्राइली अकादमी सहित और संस्थाएं किस्सागोई को दुनिया से खुद को जोड़ने का जरिया बनाने में कामयाब हुई हैं।

यहूदियों ने अपने इतिहास को अपने नजरिए से दुनिया के सामने रखा है। फिर वो येरूशलम के ‘याद वशम’ म्यूजियम में बोलती कहानियां हों या फिर हिबू्र जबान में कहानी कहता ‘मगीद’ यानी पेशेवर कथाकार। दास्तानगोई का यह तरीका 16वीं और 17वीं सदी के दौरान यहूदी धर्म की कहानियों के उपदेश देने वाले राब्बियों के जवाब में हसीदी आंदोलन ने ईजाद किया। हालांकि इसका भी असल मकसद यहूदी धर्म का प्रचार-प्रसार ही रहा।

हमारे यहां लोक-कलाकार तीजन बाई ने जिस तरह पांडवानी गाकर हमारे दिलों में जगह बनाई वो दूरदर्शन के कैमरों के बगैर कभी नहीं बनी होती। लीक और तकनीक का यह मेल अनूठा है। अच्छी बात यह है कि लोक-शैलियों को नई तकनीक की ताकत से लैस करने का हुनर अब वो पीढ़ी सीख रही है जिसे बाजार की भी समझ है।