वीरेंद्र कुमार
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसान देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना की रीढ़ हैं। इसीलिए लालबहादुर शास्त्री ने देश की सीमा की रक्षा करने वालों की जय कहा, तो किसानों की भी जय कहा। जय जवान जय किसान का नारा दिया। देश की बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है। मगर किसानों की स्थिति बेहतर करने के नारे तो सरकारें खूब देती रही हैं, हकीकत में उन पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया। यही वजह है कि किसानों का आक्रोश रह-रह कर प्रकट होता रहता है। कई बार उनके आक्रोश को कुछ राजनीतिक दल दिग्भ्रमित करने के भी प्रयास करते हैं। हाल में भारत सरकार ने जो तीन कानून पारित किए, उनके विरोध में पंजाब सहित देश के विभिन्न हिस्सों में एक बड़ा किसान आंदोलन खड़ा हो गया है। पूरे देश के किसान संगठनों ने इस आंदोलन को समर्थन दिया है।
इन कानूनों को लेकर शायद भ्रम की स्थिति अधिक है। शुरू से सरकार का मानना रहा है कि इन कानूनों से देश के किसानों को अपनी फसल बेचने पर लगे लालफीताशाही बंधनों से मुक्ति मिलेगी और निजी संस्थानों के आने से कृषि में निवेश को बढ़ावा मिलेगा। सरकार का यह भी मानना है कि इन कानूनों से कांट्रैक्ट फार्मिंग यानी ठेके की खेती में भी किसान हितों की रक्षा होगी। मगर दूसरी ओर, किसान संगठनों का कहना है कि इन कानूनों के आने से न्यूनतम समर्थन मूल्य और मंडी व्यवस्था चौपट हो जाएगी, जिससे किसान बड़े व्यापारिक संस्थानों की लूट का आसान शिकार बन जाएगा।
पूर्व उपप्रधानमंत्री और किसान नेता चौधरी देवीलाल ने कहा था कि लोक-राज लोक-लाज से चलता है। एक लोकतंत्र में धरना-प्रदर्शन भी संवाद के लिए होता है। संवाद और सहयोग किसी भी लोकतंत्र के दो पहिए हैं। मगर शायद इस जनतांत्रिक मूल्य को भुला दिया गया है। इस वक्त चल रहे किसान आंदोलन की आड़ में कुछ फिल्मी सितारों, कलाकारों और तथाकथित किसान आंदोलन के समर्थन में उतरे लोगों द्वारा आंदोलन के मंच से जैसे बयान दिए जा रहे हैं, वे न तो किसान के लिए और न ही देश के लिए शुभ कहे जा सकते हैं।
मशहूर क्रिकेट सितारे युवराज सिंह के पिता और पंजाबी फिल्म के पूर्व अदाकार योगराज सिंह ने जो शर्मनाक बयान किसान आंदोलन के मंच से दिया और उस सभा में शामिल सौ-डेढ़ सौ लोगों ने ताली पीट कर, जयकारे और नारे लगा कर उनका प्रत्यक्ष समर्थन किया, उसकी तुलना कौरव सभा में द्रौपदी के चीर हरण से ही की जा सकती है। यह कैसा आंदोलन है, जिसमें मुद्दों पर संवाद होने के बजाय अन्य सभी मसलों पर बातें हो रही हैं।
शायद योगराज सिंह को एक सिख होने का भ्रम है, लेकिन सच्चाई यह है कि उनको सिख इतिहास और गुरवाणी की शिक्षाओं का कोई ज्ञान नहीं है। आश्चर्य तो इस बात का है कि सिख विद्वानों और किसान नेताओं ने भी उनके बयान पर चुप रहना ही बेहतर समझा। योगराज सिंह को शायद मालूम नहीं है कि हिंदू माताओं ने ही अपने ज्येष्ठ सुपुत्र को सिंह बना कर खालसा फौज में भेजा। जिन गुजराती महिलाओं की वे बात करते हैं, पंच प्यारों में से एक गुजराती माता की कोख से ही पैदा हुए और द्वारका से चल कर आनंदपुर साहब आकर अपना शीश दशमेश पिता को भेंट कर इतिहास में अमर हो गए। शायद योगराज सिंह को यह मालूम नहीं।
श्रीगुरु तेग बहादुर के साथ दिल्ली में शहादत देने वाले भाई मतीदास, भाई सतीदास और भाई दयाला की माताएं कौन थीं, शायद यह भी योगराज सिंह को नहीं मालूम। कैसे नवीं पातशाही श्रीगुरु तेग बहादुर जी ने कश्मीरी ब्राह्मणों के एक आह्वान पर दिल्ली जाकर औरंगजेब के जुल्म की तलवार को अपने शीश से शांत कर दिया और जम्मू की एक हिंदू माता की कोख ने माधो दास को जन्म दिया, जिसने गुरु गोविंद सिंह जी के आशीर्वाद से बंदा बहादुर बन कर अपना कर्ज अदा किया। यह भी उन्हें जानना चाहिए।
गुरु नानक देव जी ने अपनी वाणी में महिलाओं को मंदा (खराब) बोलने से मना किया है। गुरु जी कहते हैं कि जिन माताओं की कोख से राजा-महाराजा जन्म लेते हैं, उनको मंदा नहीं बोलना चाहिए। आश्चर्य है, अपने आप को सिख कहने वाले योगराज सिंह की अनर्गल बयानबाजी पर जयकारे लगाने वाले कैसे सिख हैं? सिख इतिहास और गुरवाणी को तोड़-मरोड़ कर सोशल मीडिया पर परोसने के प्रयासों पर भी अगर हम चुप रहेंगे तो आने वाली पीढ़ियां किसको अपना आदर्श मानेंगी? बेट द्वारका में माता देवीबाई की कोख से जन्म लेने वाले श्री मोहकम चंद जी को, जो अपना शीश भेंट कर भाई मोहकम सिंह के रूप में सज गए, या फिर योगराज सिंह को? किसान आंदोलन की आड़ में गुरु नानक देव जी की गुरवाणी का अपमान हमारे समाज को कहां ले जाएगा!