पिछले करीब तीन दशकों में इंटरनेट ने दुनिया को जो गति और विस्तार दिया है, उसकी कल्पना शायद ही पहले की गई होगी। पूरे संसार को हमारे हाथों में मौजूद स्मार्टफोन में सिमटा देने वाली इस तकनीक को एक क्रांति के रूप में देखा जा रहा है। तीन साल पहले वर्ष 2022 में ‘चैटजीपीटी’ की शक्ल में कृत्रिम मेधा (एआइ) ने इसमें वह सुविधा जोड़ दी, जिससे कई कई तरह के काम आसान हो गए हैं। सबसे बड़ी बात यह कि कोई भी काम अब पलक झपकते ही हो जाता है।
निश्चित ही इसके कुछ फायदे हैं, पर खतरे उससे कई गुना ज्यादा। एआइ के कारण दुनिया से खत्म होती नौकरियों ने चिंता बढ़ा दी है। मगर शायद नुकसान इससे भी कहीं ज्यादा हैं। इसका अहसास तब हुआ, जब यूट्यूब (गूगल) और फेसबुक (मेटा) ने कृत्रिम मेधा से बनाई जा रही सामग्री की रोकथाम के उपायों को लागू करना शुरू किया। इन उपायों का एक उल्लेखनीय पहलू यह है कि कृत्रिम मेधा से युद्ध के लिए खुद कृत्रिम मेधा को ही सामने किया जा रहा है।
इंटरनेट कंपनियों ने हाल में कृत्रिम मेधा से पैदा होने वाली ऐसी सामग्री के खिलाफ मोर्चा खोला है, जिसे हजारों-लाखों लोग बना कर इनके मंचों (जैसे यूटूयूब, फेसबुक और इंस्टाग्राम) पर तस्वीरों और वीडियो की शक्ल में डाल रहे हैं और पैसे कमा रहे हैं। समस्या यह नहीं है कि इस तरकीब से हजारों लोग कमाई कर रहे हैं, बल्कि यह है कि इन नकलची लोगों के कारण उन्हें परेशानी हो रही है, जो मौलिक रूप से कोई रचनात्मक सामग्री तैयार करते हैं।
असली-नकली का फर्क मिटता दिख रहा है
साथ ही, समस्या है कृत्रिम मेधा के उपकरणों से बनी ऐसी नकली सामग्री की, जिसे यूट्यूब-फेसबुक आदि की निर्माता कंपनियां अपनी विश्वसनीयता के लिए खतरा मान रही हैं। खास बात यह है कि कृत्रिम मेधा की मदद से कोई सामग्री तैयार करने के उपाय खुद इन्हीं मंचों से सुझाए गए हैं, पर अब जिस तरह से नकली सामग्री की भरमार इन पर हो गई है, उससे असली-नकली का फर्क भी मिटता दिख रहा है।
कारोबारियों, विश्लेषकों और बड़ी हस्तियों समेत सैकड़ों ऐसे लोग हैं, जो शिकायत कर रहे हैं कि या तो उनके नाम पर नकली खाते बना कर लोग कई तरह के फर्जीवाड़े कर रहे हैं या फिर उनके द्वारा प्रस्तुत मौलिक सामग्री की कृत्रिम मेधा की मदद से नकल कर फर्जी सामग्री तैयार कर पैसे कमा रहे हैं। इसका असर मौलिक सामग्री परोसने वालों की कमाई पर भी पड़ रहा है, क्योंकि फेसबुक-यूट्यूब का उपभोक्ता यह अंतर नहीं कर पाता है कि कौन सी सामग्री मौलिक है और कौन नकली।
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नकली या फर्जी सामग्री की समस्या उन कृत्रिम मेधा उपकरणों की वजह से ज्यादा बढ़ी है, जिनका इस्तेमाल हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ा है। इनके जरिए वास्तविक दिखने और बोलने वाले लोगों की छवि तैयार कर दी जाती है। इससे चर्चित लोगों के चेहरे, आवाज और अंदाज की नकल भी आसानी से की जा सकती है। इसी तरह की सुविधाओं के इस्तेमाल से हजारों-लाखों लोग चर्चित नामों का सहारा लेकर नकली और फर्जी वीडियो बना रहे हैं। ऐसे में यूट्यूब-फेसबुक पर मौलिक रचनाएं पेश करने वाले रचनाकारों के लिए एक बड़ी चुनौती पैदा हो गई है। जो काम वे मौलिक ढंग से करने में कई दिन लगाते हैं, कृत्रिम मेधा की मदद से उसकी नकल कर तुरत-फुरत नई सामग्री तैयार करके सोशल मीडिया पर प्रसारित कर दी जाती है।
इस तरह की गतिविधियों के कारण सोशल मीडिया मंचों ने हाल में कुछ नीतिगत बदलाव भी किए हैं। जैसे, यूट्यूब ने अपनी नीति को अद्यतन करते हुए यह नियम लागू किया है कि उसके मंच से उन चैनलों का मौद्रीकरण रोक दिया जाएगा, जिन पर विशुद्ध रूप से कृत्रिम मेधा के उपकरणों से बनाई गई सामग्री डाली जाती है। यानी ऐसी सामग्री, जिसे बनाने में कोई मौलिकता नहीं है और जिसमें कोई इंसानी मेहनत नहीं लगी है। इसी तरह जिस सामग्री में दोहराव होगा (यानी जिसे किसी स्थापित रचनाकार ने पहले पेश कर दिया है, उसकी नकल कर तैयार की गई सामग्री), या जिसमें कोई नयापन नहीं होगा, उन चैनलों को यूट्यूब के मंच से हटा दिया जाएगा।
इसी तरह फेसबुक और इंस्टाग्राम ने भी कृत्रिम मेधा से बने नकली और दोहराव वाली तथा कम मेहनत वाली सामग्री पर अंकुश लगाने के लिए कुछ उपाय लागू किए हैं। इसके अंतर्गत इन मंचों पर मौजूद कृत्रिम मेधा से बनी तस्वीरों-वीडियो की पहचान की जाएगी कि वे असली हैं या तकनीक की मदद से फर्जी तौर पर बनाए गए हैं। इसके बाद ऐसी सामग्रियों को प्रतिबंधित किया जाएगा।
दुनिया भर में बड़े पैमाने पर नकली सामग्री तैयार की जा रही है
यहां एक रोचक प्रश्न यह है कि खुद ही कृत्रिम मेधा और उसके उपकरणों को चलन में लाने को अब इसकी फिक्र क्यों होने लगी है कि वे उसकी रोकथाम के उपायों पर गंभीरता से विचार करने पर मजबूर हो गए हैं। पूछा जाना चाहिए कि क्या इनको मौलिकता की वास्तव में कोई परवाह है। यदि ऐसा है, तो ऐसे एआइ उपकरणों की अनुमति क्यों दी जाती हैं, जिनके जरिए नकली सामग्री तैयार की जाती है। आज अगर दुनिया भर में बड़े पैमाने पर नकली सामग्री तैयार की जा रही है, तो उसके पीछे कृत्रिम मेधा तकनीक ही है। इन तकनीकों की मदद से ही रोजाना बड़ी मात्रा में कचरा पैदा हो रहा है, जिसकी साफ-सफाई की चिंता फेसबुक-यूट्यूब के नए उपायों में दिखाई दे रही है।
यूट्यूब के नए नीतिगत बदलावों के मुताबिक, ऐसी सामग्री की गुणवत्ता (मौलिकता के पैमाने पर) बेहद घटिया होती है। ऐसी ज्यादा सामग्री दोहराव वाली होती है, यानी उसे पहले ही कई बार दिखाया-सुनाया जा चुका होता है। साथ ही इसमें इंसानी मौलिकता का कोई योगदान नहीं होता, क्योंकि इन्हें तकनीक की मदद से तैयार किया जाता है। यह कचरा नकली आवाजों, स्वचालित लेखन या नकल करके बनाए गय वीडियो क्लिप आदि के रूप में इन मंचों पर इतना ज्यादा मौजूद है कि उसका पता लगाना भी मुश्किल हो रहा है। सोशल मीडिया मंचों को भी शायद इसका अहसास हो रहा है कि ऐसी सामग्री का उद्देश्य उपयोगकर्ताओं का मनोरंजन करना या उन्हें कोई शिक्षा अथवा नई जानकारी देना नहीं है। बल्कि हजारों-लाखों की संख्या में कृत्रिम मेधा की मदद से रोजाना ऐसी सामग्री का पहाड़ खड़ा कर असली सामग्री को दबा देना और अपनी कमाई करना है।
सबसे रोचक पहलू यह है कि कृत्रिम मेधा-उत्पादित सामग्री की पहचान करने और उसे प्रतिबंधित करने के लिए भी कृत्रिम मेधा उपकरणों का ही सहारा लिया जा रहा है। उनका ऐसा करना स्वाभाविक भी है, क्योंकि हर दिन लाखों-करोड़ों की संख्या में पैदा हो रही फर्जी सामग्री से इंसानी क्षमता के बल पर निपटना मुश्किल काम है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या ये प्रबंध नियमों को सही तरीके से लागू कर पाएंगे। कहीं ऐसा तो नहीं कि ये प्रबंध वास्तविक और मौलिक सामग्री को प्रतिबंधित कर दें और नकली सामग्री को बढ़ावा देने लग जाएं। ऐसे में मशीन और इंसान- दोनों को साथ लाने वाले मिश्रित माडल को अपनाना होगा। इसलिए इन कोशिशों का कोई मतलब तभी है, जब ईमानदारी से नए नियमों को लागू किया जाए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो मौलिक सृजन कृत्रिम मेधा से उपजे कचरे के नीचे दबता जाएगा।