एक ऐसे मानव-केंद्रित नजरिए की जरूरत है, जहां डिजिटल तकनीक बस एक उपकरण के रूप में काम करे। जबकि अभी स्थिति यह है कि डिजिटल तकनीक खुद ही प्राथमिक स्थान ले बैठी है। इसे नियंत्रित और सीमित करना होगा। इस बात का भी गंभीरता से ध्यान रखना होगा कि व्यवस्थाएं और प्रौद्योगिकी कोई भी हो, कभी भी किसी अध्यापक का स्थान न ले पाए।

कोरोना काल में, शिक्षा क्षेत्र में क्रांति की अलख जगाने, अलादीन के चिराग जैसा मुट्ठी में समा कर खुल जा मेरे स्कूल का करतब दिखाने वाला मोबाइल इतनी जल्दी सिरदर्द बन जाएगा, किसी ने सोचा न था। शिक्षा में मोबाइल प्रौद्योगिकी का उपयोग किस तरह किया जाए, इसका कैसा स्वरूप हो, इस पर बिना कोई विमर्श हुए पूर्णबंदी के चलते मोबाइल से पढ़ाई एकाएक शुरू हो गई।

शिक्षा का यह प्रयोग दुनिया के बहुतेरे देशों को लुभाने लगा। यह धारणा भी बनने लगी कि इससे तो शिक्षा पर व्यय होने वाली भारी-भरकम राशि बचाई जा सकती है। मगर ‘शिक्षा गुरु’ बने मोबाइल से महज एक-डेढ़ वर्ष में दिखने वाले ढेरों नकारात्मक परिणामों ने जैसे सभी की नींद उड़ा दी। दुनिया भर में पहले ही सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर चुके सोशल मीडिया के सबसे बड़े पोषक मोबाइल फोन के दुष्परिणामों पर बहस के बीच, पढ़ाई के नाम पर मासूमों के लिए गुरु कम, खिलौना ज्यादा बन गया, जो जादू का पिटारा लगने लगा। देखते ही देखते मासूमों को लत लग गई और अभिभावक समझ भी नहीं पाए।

संयुक्त राष्ट्र के शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन यानी यूनेस्को की वैश्विक शिक्षा निगरानी रिपोर्ट 2023, जिसका शीर्षक ‘टेक्नोलाजी इन एजुकेशन ए टूल आन हूज टर्म्स’ में स्कूलों में स्मार्टफोन पर प्रतिबंध लगाने का समर्थन करते हुए शिक्षा के मानव-केंद्रित दृष्टिकोण की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।

रिपोर्ट बताती है कि चौदह देशों ने मोबाइल उपकरण के चलते छात्रों का ध्यान भटकने और सीखने की प्रवृत्ति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना स्वीकार किया है। बावजूद इसके, ज्यादातर स्कूल इस पर रोक नहीं लगा सके। एक अध्ययन के हवाले से बताया गया है कि महज दो वर्ष के बच्चे से सत्रह वर्ष तक की आयु के युवाओं में ज्यादा समय तक ‘स्क्रीन’ पर आंखें गड़ाए रहने से कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हुईं, जो अमूमन इस उम्र में नहीं होतीं। इससे न केवल बच्चों की जिज्ञासा तेजी से घटी, बल्कि उनमें अवसाद सहित आत्म नियंत्रण और भावनात्मक स्थिरता भी बुरी तरह से प्रभावित दिखी।

इतना ही नहीं, बच्चों के डेटा उजागर होने की शिकायतें भी आईं, क्योंकि केवल सोलह फीसद देशों में कानूनन शिक्षा में डेटा गोपनीयता की स्पष्ट गारंटी है। वहीं एक विश्लेषण से पता चला कि कोरोना काल के दौरान मुनाफाखोरों के हथकंडों से तमाम तरह के सुदूर शिक्षा प्रौद्योगिकी आधारित उत्पादों की जैसे बाढ़ आ गई। बिना जांचे-परखे इनके उपयोग का अनुमोदन तक हो गया।

यूनेस्को ने भी माना है कि मोबाइल के अत्यधिक उपयोग से शिक्षा बुरी तरह प्रभावित हो रही है। उस जरूरत को रेखांकित किया है, जिसमें डिजिटल तकनीक, उपकरण से अधिक हमारी जरूरी प्राथमिकता बन गई। तकनीक के इस दौर में डेटा गोपनीयता अहम है। मगर मासूमों के हाथों में ऐसे डेटा उपकरण कितने, कैसे और किस तरह सुरक्षित होंगे इस पर क्या कभी सोचा गया? कभी कौतूहलवश, तो कभी अचानक स्क्रीन पर दिखने वाले लुभावने और नए-नए तौर-तरीकों के संदेशों ने भरमया। कभी एकाएक आए गुमनाम संदेशों को देखने की जिज्ञासा ने अनजाने ही पूरा डेटा दूसरी ओर बैठे साइबर चोरों के हाथों में पहुंचा दिया।

यूनेस्को की इसी रिपोर्ट में डिजिटल शिक्षा द्वारा उत्पन्न, विषमताओं को रेखांकित किया गया है। कोरोना के दौरान विश्व भर में लगभग पचास करोड़ बच्चे अनचाहे ही बेलगाम आनलाइन मंचों के प्रयोग की तरफ बढ़ गए। इससे वे शिक्षा से तो वंचित हुए ही, साइबर अपराधियों का शिकार भी बन गए। अपने जाल में फंसा कर उन्होंने ‘गेमिंग’ या ‘बुलिंग’ के जरिए बच्चों का बेतहाशा और कई तरह का शोषण किया। इन अपराधियों का शिकार होकर न जाने कितने घरों के चिराग बुझ गए।

यूनेस्को की महानिदेशक आड्री अजूले भी इस बारे में सचेत करते हुए कहती हैं कि डिजिटल क्रांति में संभावनाएं तो अपार हैं, लेकिन जिस तरह से समाज में इस पर कानूनन नकेल की चेतावनियां भी हैं, ठीक वैसे ही शिक्षा में इसके प्रयोग पर ध्यान देना जरूरी है। वे भी मानती हैं कि इसका प्रयोग, वृहद शिक्षा अनुभवों तथा छात्रों-अध्यापकों की बेहतरी के लिए होना चाहिए, न कि उनके रास्तों में व्यवधान उत्पन्न करने के लिए।

अगर मान भी लें कि तकनीक ने कई अवसर पैदा किए हैं और इसके दुष्परिणामों पर जल्द ही नियंत्रण कर लिया जाएगा, लेकिन इस सच्चाई से कैसे इंकार किया जा सकता है कि दुनिया में चार में से एक प्राथमिक विद्यालय में आज भी बिजली नहीं है। ऐसे में तकनीक से शिक्षा में परिवर्तन की राह पर चल पड़ी दुनिया के सभी स्कूलों को इंटरनेट से जोड़ने के लिए समय मान लक्ष्य निर्धारित करने होंगे।

ऐसा होने पर ही वंचित वर्ग भी इसके दायरे में आ सकेगा और तभी शिक्षा में समानता की बात युक्तिसंगत लगेगी। इसी रिपोर्ट में दिख रही चिंता सही प्रतीत होती है, जिसमें कहा गया है कि शिक्षा का अधिकार सार्थक ‘कनेक्टिविटी’ के अधिकार का पर्यायवाची बना हुआ है।

अब जब दुनिया एक और अत्याधुनिक विधा आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस यानी कृत्रिम मेधा की ओर जाती दिख रही है, तो दबाव और मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। सच है कि दुनिया में अभी कुछ ही देश हैं, जो तकनीक के क्षेत्र में लंबी छलांग लगा रहे हैं, जहां जल्दी-जल्दी नई-नई तकनीक अपनाई जा रही है। ऐसे में शेष दुनिया का इनसे पीछे रहना और मोबाइल तक सिमटना भी एक अभिशाप जैसा है।

समूची दुनिया का समानता के लिए नई तकनीक से जुड़ना अभी बेहद कठिन है। कहीं न कहीं यूनेस्को भी यह मानता है कि तकनीक का विकास शिक्षण तंत्रों पर अपने अनुरूप ढलने के लिए दबाव पैदा कर रहा है। वहीं कृत्रिम मेधा के बढ़ते आकर्षण के बीच डिजिटल साक्षरता और तार्किक सोच यानी किसी की कही गई बात को आंख मूंद कर मान लेने के बजाय उसे समझना, उसके बारे में जानकारी जुटाना, विश्लेषण करना और उसके बाद सच्चाई को परख कर निर्णय लेने के महत्त्व को समझना जरूरी हो गया है।

इस संबंध में किए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि चौवन फीसद देशों ने ऐसे कौशल के विकास पर जोर दिया है, जो भविष्य में काम आएंगे। वहीं इक्यावन में से केवल ग्यारह देशों ने कृत्रिम मेधा को पाठ्यक्रम में शामिल किया है। यह भी सच है कि डिजिटल दुनिया में गोते लगाने के लिए किसी खास क्षमता या कौशल की जरूरत नहीं होती, लेकिन यांत्रिक शिक्षा में उपयोग के लिए शिक्षकों को तो पूरी दक्षता से प्रशिक्षित करना होगा।

साफ है कि जो काम स्कूल में अध्यापक कर सकते हैं वह मोबाइल फोन नहीं कर पाएगा। यूनेस्को भी मानता है कि तकनीक का विकास शिक्षण तंत्रों को उसके अनुकूल ढलने के लिए दबाव पैदा कर रहा है, वहीं कृत्रिम मेधा के आने से डिजिटल साक्षरता और तार्किक सोच का काम कोई जानकार या दक्ष अध्यापक ही कर सकता है, जाहिर है वह मोबाइल नहीं होगा।

वास्तव में एक ऐसे मानव-केंद्रित नजरिए की जरूरत है, जहां डिजिटल तकनीक बस एक उपकरण के रूप में काम करे। जबकि अभी स्थिति यह है कि डिजिटल तकनीक खुद ही प्राथमिक स्थान ले बैठी है। इसे नियंत्रित और सीमित करना होगा। इस बात का भी गंभीरता से ध्यान रखना होगा कि व्यवस्थाएं और प्रौद्योगिकी कोई भी हो, कभी भी किसी अध्यापक का स्थान न ले पाए। ये केवल अध्यापकों के द्वारा पढ़ाई जाने वाली कक्षाओं में गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करने का सहारा बनें, न कि लोग इनके सहारे हों।