50 Years of Emergency: 25 जून 1975 से पूरे देश में आपातकाल शुरू हुआ था। 21 महीने चली इस इमरजेंसी के दौरान एक लाख से ज्यादा लोगों को बिना किसी सुनवाई के हिरासत में रखा गया। इसमें विपक्ष के कई बड़े नेता भी शामिल थे। इस काले समय के दौरान, सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने खुद की कीमत पर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए कार्यकारी शक्ति के खिलाफ खड़े होकर एक अमिट छाप छोड़ी।

यह कोई और नहीं बल्कि जस्टिस हंस राज खन्ना थे। उन्होंने भारत के सीजेआई बनने का मौका खो दिया था और विचाराधीन मामला बंदी प्रत्यक्षीकरण या एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामला था। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने इस सवाल पर विचार किया कि क्या आर्टिकल 21 के तहत अदालत जाने का अधिकार – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार आपातकाल लागू होने पर निलंबित रहता है। 4:1 के बहुमत के फैसले से कोर्ट ने फैसला सुनाया कि नागरिक आपातकाल के दौरान जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन के खिलाफ मुकदमा नहीं कर सकते। इस पर जस्टिस खन्ना सहमत नहीं थे।

जस्टिस खन्ना ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में क्या लिखा?

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस खन्ना ने अपनी ऑटोबायोग्राफी नीदर रोजेज नॉर थॉर्न्स में अटॉर्नी जनरल नीरेन डे की दलील को याद करते हुए कहा कि आपातकाल के दौरान बिना सुनवाई के हिरासत में लिए गए लोगों की याचिकाएं स्वीकार्य नहीं थीं। उन्होंने आगे कहा कि ‘मेरे कुछ सहकर्मी जो अतीत में मानवाधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता के बारे में बहुत मुखर रहे थे, वे चुप बैठे हैं।’

इमरजेंसी में कई नेता सलाखों के पीछे पहुंचे

जस्टिस खन्ना ने डे से एक सवाल पूछा, ‘क्या कोई उपाय होगा यदि कोई पुलिस अधिकारी व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण किसी दूसरे व्यक्ति की हत्या कर दे?’ इस पर, एजी ने जवाब दिया, ‘मेरे तर्क के अनुसार, जब तक आपातकाल जारी रहेगा, ऐसे मामले में कोई न्यायिक उपाय नहीं होगा। यह आपकी अंतरात्मा को झकझोर सकता है, यह मेरी अंतरात्मा को झकझोरता है, लेकिन मेरे तर्क के अनुसार, इस आधार पर अदालत में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है।’

जस्टिस खन्ना ने अपना फैसला लिखा

छह या सात हफ्ते तक बहस जारी रही, जिसके बाद जस्टिस खन्ना ने अपना फैसला लिखना शुरू किया। उन्होंने अपनी आत्मकथा में अपने तर्क की पंक्ति को याद किया, ‘अनुच्छेद 21 को लागू करने के अधिकार का निलंबन अनुच्छेद 21 को निरस्त करने से अधिक प्रभाव नहीं डाल सकता था। मान लीजिए कि संविधान में अनुच्छेद 21 नहीं था, तो कोई भी राज्य और कोई भी पुलिसकर्मी, उस अनुच्छेद की अनुपस्थिति में भी, कानून के अधिकार के बिना किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं कर सकता। अगर वे ऐसा करते हैं, तो वे गैर इरादतन हत्या या अवैध कारावास के दोषी होंगे।’

जस्टिस खन्ना ने कहा, ‘मेरे विचार से अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एकमात्र भंडार नहीं था। ये अधिकार संविधान के निर्माण से पहले भी मौजूद थे। यह मानना ​​कि अनुच्छेद 21 के प्रवर्तन के लिए अदालत जाने के अधिकार के निलंबन के कारण कोई भी पुलिसकर्मी किसी भी व्यक्ति की दुर्भावना से हत्या कर सकता है या उसे कैद में रख सकता है और ऐसी हत्या या हिरासत के खिलाफ कोई उपाय नहीं होगा, यह घोषित करने के समान है कि अब कानून का कोई शासन नहीं है।’

मुझे भारत के चीफ जस्टिस का पद खोना पड़ेगा- जस्टिस खन्ना

28 अप्रैल 1976 को फैसला सुनाए जाने से पहले जस्टिस खन्ना ने याद किया कि उन्होंने हरिद्वार की पारिवारिक यात्रा के दौरान अपनी पत्नी और बहन से कहा था, ‘मैंने एक फैसला तैयार किया है, जिसके कारण मुझे भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद खोना पड़ेगा।’ आपातकाल के दौरान भी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के पक्ष में एकमात्र असहमति जताने वाले जस्टिस खन्ना ने अपना फैसला पढ़ते हुए कहा, ‘ऐसी सर्वसम्मति जो केवल औपचारिक हो और जो प्रबल विरोधाभासी विचारों की कीमत पर दर्ज की गई हो, अंतिम उपाय की अदालत में वांछनीय नहीं है।’

28 जनवरी 1977 को जब वे काम से घर लौटे तो उन्होंने रेडियो पर सुना कि उनसे जूनियर जज जस्टिस मिर्जा हमीदुल्लाह बेग को CJI नियुक्त किया गया है। उन्होंने तुरंत अपना इस्तीफा लिखकर भारत के राष्ट्रपति को भेज दिया। जस्टिस खन्ना ने फेयरवेल डिनर ने कहा, ‘कानून के शासन में गिरावट का इससे बड़ा संकेत और कुछ नहीं हो सकता कि एक दब्बू बार, एक अधीनस्थ न्यायपालिका और एक घुटन भरी या कठोर अंतरात्मा वाला समाज हो। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों से ही निडरता बार की परंपरा रही है। जहां डर है, वहां न्याय नहीं हो सकता।’ इंदिरा गांधी की सबसे बड़ी परेशानी थे राज नारायण पढ़ें पूरी खबर…