संचार मंत्री के रूप में देश विदेश में चर्चित हुए हिमाचल प्रदेश के मंडी कस्बे के रहने वाले 96 साल के पंडित सुखराम का 11 मई को निधन हो गया। वे अंत तक राजनीति में सक्रिय रहे। भले ही एक दशक पहले उन्होंने चुनावी राजनीति से अपने बेटे अनिल शर्मा को विरासत सौंप कर सार्वजनिक तौर पर संन्यास ले लिया था, मगर इसके बावजूद वे हर चुनाव में अपनों के लिए वोट मांगने पहुंच जाते थे। 95 साल की उम्र में भी बीते साल अप्रैल महीने में अपने शहर मंडी में नगर निगम के चुनाव में भी उन्होंने कांग्रेस पार्टी के लिए वोट देने की न केवल अपील जारी कर दी थी बल्कि प्रचार भी किया था।
वर्ष 1962 से लगातार राजनीति में सक्रिय, सबसे ज्यादा चुनाव लड़ने व जीतने वाले पंडित सुखराम कई बार प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की दहलीज तक पहुंचे मगर शायद उनके हाथ में इस कुर्सी पर बैठने की रेखा नहीं थी। ऐन मौके पर पासा पलटता रहा और यह कुर्सी छिटकती रही। 1997 में तो उन्होंने कांग्रेस से बागी होकर हिमाचल विकास कांग्रेस बना दी और पूरे प्रदेश में तहलका मचा दिया। 1998 में हुए विधानसभा चुनावों में पांच सीटें भी जीत लीं और वीरभद्र सिंह को सत्ता से बाहर करके अल्पमत वाली भाजपा का साथ देकर प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री बनवा दिया। हिमाचल की राजनीति में वे एक ऐसा चेहरा रहे, जिन्हें हर कोई जानता था। इस दावे से किसी को शायद ही कोई आपति हो कि छह बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह को केवल पंडित सुखराम से ही राजनीतिक भय रहता था।
प्रदेश में यदि चार पांच बड़े नेता डा वाईएस परमार, वीरभद्र सिंह, शांता कुमार व प्रेम कुमार धूमल का नाम लिया जाए तो इनमें पंडित सुखराम अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखेंगे। अब सवाल यही पैदा हो रहा है कि प्रदेश के मध्य में स्थित मंडी को प्रदेश की राजनीति की धुरी बनाने का काम पंडित सुखराम के बलबूते पर होता रहा है। यहां से दूसरे बड़े नेता ठाकुर कौल सिंह व रंगीला राम राव हैं मगर सुखराम के कद तक वे पहुंच नहीं पाए हैं।
अब सवाल यह है सखराम के इस राजनीतिक खालीपन को कौन भरेगा? यह खालीपन महज उनके बेटे अनिल शर्मा के विधायक या मंत्री बनने से तो भरने से रहा और न ही उनके पोते प्रदेश कांग्रेस में मीडिया सेल के प्रभारी आश्रय शर्मा के राजनीति में आ जाने से भरेगा। इसके लिए तो एक ऐसे नेता की जरूरत है जो न केवल मंडी जिले की दस विधानसभा क्षेत्रों की राजनीति में सर्वमान्य हो, बल्कि मंडी संसदीय क्षेत्र की 17 विधानसभा सीटों के अलावा प्रदेश में भी अपनी पूरी पहचान रख सकता है।
ठाकुर कौल सिंह इस दिशा में जरूर प्रयासरत रहे हैं। दो बार प्रदेशाध्यक्ष भी रह चुके हैं। आठ बार विधायक रहे हैं मगर अब 75 की उम्र पार कर जाने से शायद वे पंडित सुखराम की तरह अपने को स्थापित कर सकें। रंगीला राम राव भी जिले के सबसे पुराने नेता हैं जो 1972 से राजनीति में हैं मगर लगातार कर्नल इंद्र सिंह से तीन बार हार जाने व स्वास्थ्य कारणों से वे सुखराम की जगह नहीं ले पाएंगे। ऐसे में राजनीति के इस चाणक्य ने जो प्रदेश की राजनीति में एक खालीपन पैदा किया है वह शायद ही कोई भर पाए।