Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय करोल ने शुक्रवार को कहा कि संविधान में केवल भारत के नागरिकों के लिए ही नहीं, बल्कि पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्यों के लिए करुणा निहित है। जबलपुर स्थित धर्मशास्त्र राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय (डीएनएलयू) में बोलते हुए जस्टिस करोल ने इस बात पर जोर दिया कि संवैधानिक भावना राष्ट्रीय सीमाओं से परे होनी चाहिए।
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस संजय करोल ने कहा कि संविधान सिर्फ़ इस देश के नागरिकों के लिए नहीं है। इस धरती पर सभी मनुष्यों के प्रति करुणा संविधान में निहित है। उन्होंने कि संविधान के निर्माण में 238 से ज्यादा वकीलों ने योगदान दिया था तथा इस बात पर जोर दिया कि इसे पढ़ना कर्तव्य और दायित्व की याद दिलाता है।
करोल ने कहा कि मैं हर रोज संविधान का एक भाग पढ़ता हूं। इससे मुझे अपने कर्तव्य और दायित्वों की याद आती है। संविधान मेरी पसंदीदा किताब है। उन्होंने कहा कि संविधान सिर्फ़ इस देश के नागरिकों के लिए नहीं है। इस धरती पर रहने वाले सभी मनुष्यों के प्रति करुणा संविधान में निहित है।
जस्टिस करोल ने ज़ोर देकर कहा कि जागरूकता और प्रसार एक लोकतांत्रिक समाज की मुख्य चुनौतियां हैं। उन्होंने कहा कि संविधान को समझना केवल पहला कदम है, और अगला कदम उस ज्ञान को दूसरों के साथ साझा करना है। उन्होंने कहा कि आपके सामने दोहरी चुनौती है। पहली है जागरूकता – संविधान में क्या लिखा है, इसके बारे में। दूसरी है अपने पड़ोसी को बताना कि संविधान में क्या लिखा है। हम एक छोटी सी दुनिया में रह रहे हैं।
उन्होंने छात्रों से कहा कि उन्हें संविधान निर्माताओं के बलिदानों को याद रखना चाहिए और कानूनी पेशे को केवल एक करियर विकल्प के रूप में नहीं, बल्कि एक महान कार्य के रूप में देखना चाहिए। उन्होंने उन्हें यह भी याद दिलाया कि कानून के क्षेत्र में अवसर विविध हैं – मुकदमेबाजी और कॉर्पोरेट प्रैक्टिस से लेकर शिक्षा, पत्रकारिता और यहां तक कि प्रभाव डालने तक।
न्यायमूर्ति करोल ने कहा कि हमारे बुजुर्ग हमें बताया करते थे कि यह एक सज्जनों का पेशा है। आप एक ऐसे पेशे में प्रवेश कर रहे हैं जिसमें समाज की सेवा करना ज़रूरी है। जब आप इस पेशे में आते हैं तो पैसों की कोई कमी नहीं होती। आपस में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती। आप स्वयं अपने प्रतिस्पर्धी होते हैं।
न्यायाधीश ने लोकप्रिय संस्कृति की कहानियों और अदालतों के समक्ष प्रस्तुत कहानियों के बीच समानताएं रेखांकित कीं, तथा छात्रों से आग्रह किया कि वे प्रत्येक केस फाइल में जीवन को महसूस करें। उन्होंने कहा कि क्या आप नेटफ्लिक्स देखते हैं? हर सेमेस्टर एक सीज़न की तरह होता है। हर सेमेस्टर की एक कहानी होती है। इसी तरह अदालत में हर केस की एक अलग कहानी होती है। हर केस फ़ाइल का एक जीवन होता है। उस जीवन को महसूस करना, उसमें डूब जाना और उस पर फैसला लेना ही न्याय है।
न्यायमूर्ति करोल ने धर्मनिरपेक्षता, तकनीक और सामाजिक दूरियों को पाटने में युवा वकीलों की भूमिका पर भी विचार व्यक्त किए। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को अपने पड़ोसी को स्थान देने के रूप में समझाया और कहा कि अदालतें हर आवाज़ को सुनकर इसी भावना से काम करती हैं। उन्होंने छात्रों को यात्रा करने, कानूनी सेवा में शामिल होने और लोगों के साथ बातचीत करने की सलाह दी, ताकि समाधान तैयार किए जा सकें और पेशेवर के रूप में विकसित हुआ जा सके।
करोल ने कहा कि हमारा समाज वर्षों से विभिन्न धर्मों और मान्यताओं के साथ घुला-मिला है। धर्मनिरपेक्षता का यही अर्थ है। जब हम धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं, तो इसका मतलब अपने पड़ोसी को जगह देना होता है। उसकी बात सुनें, देखें कि वह क्या कह रहा है। अदालतों में हम यही करते हैं। उन्होंने कहा कि जब हम धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं, तो इसका मतलब है अपने पड़ोसी को जगह देना। उसकी बात सुनो, देखो वो क्या कह रहा है।
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उन्होंने विद्यार्थियों को प्रौद्योगिकी का जिम्मेदारी से उपयोग करने तथा इससे सावधान रहने के लिए भी प्रोत्साहित किया। जस्टिस करोल ने कहा कि जितना हो सके, तकनीक का इस्तेमाल करें। लेकिन जो कुछ भी उपलब्ध है, उससे गुमराह न हों। न्याय करना कुछ और नहीं… बल्कि संविधान में लिखी बातों पर सोचना है।
अपने संबोधन के दौरान न्यायमूर्ति करोल ने अदालती ड्रामे के बारे में भी बात की तथा बताया कि किस प्रकार कानूनी पेशे को अक्सर गलत तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। उन्होंने कहा कि क्या आपने ओह माय गॉड फ़िल्म देखी है? फ़िल्में न्यायपालिका का कितना मज़ाक उड़ाती हैं। कहते हैं वकालत दुकान है। ऐसा बिलकुल नहीं है।
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