विनायक दामोदर सावरकर या ‘वीर सावरकर’? ये सवाल हिंदुस्तान की तारीख़ में दशकों से जिंदा हैं। स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका को लेकर अभी तक दो नैरेटिव पेश किए जाते रहे हैं। हालांकि, भारतीय जनता पार्टी और इसकी विचारधारा से जुड़े लोग सावरकर को स्वतंत्रता आंदोलन के नायक के रूप में देखते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि सावरकर ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियारबंद हमलों को अंजाम दिया। परिणामस्वरूप उन्हें उस दौरान के सबसे कठिन और कैदियों के लिए नर्क माने जाने वाले अंडमान जेल में भेज दिया गया। लेकिन, यहां भी उनसे जुड़े विवाद कम नहीं है। जिनमें अंग्रेजों से माफी मांगने, पुणे की येरवदा जेल लौटने और फिर रत्नागिरी जिले में नजरबंद जिदंगी बीताने की शर्तें शामिल हैं।
28 मई को विनायक दामोदर सावरकर की जन्म जयंती और 26 फरवरी को पुण्यतिथि मनाई जाती है। इस दौरान, उनके योगदान को लेकर दो नजरिया फिर से आमने-सामने हैं। सावरकर को ‘वीर’ कहा जाए या नहीं? क्योंकि, एक तरफ अंग्रेजों के खिलाफ उनका संघर्ष था, तो वहीं उन पर अपने साथियों को मझधार में छोड़ने से लेकर महात्मा गांधी की हत्या के षडयंत्र में शामिल होने के आरोप भी थे।
विली की हत्या और ढींगरा को फांसी
वैसे तो सावरकर के जीवन से जुड़ी कई गोपनीय घटनाएं उनके देहांत के बाद उजागर हुईं । 28 मई 1883 को पैदा हुए सावरकर का देहांत 26 फरवरी 1966 को 83 वर्ष की आयु में हुआ। एक नजरिए से देखें तो स्वतंत्रता आंदोलन के हिसंक संघर्ष में उनकी भूमिका का उल्लेख मिलता है। सावरकर के देहांत के बाद धनंजय कीर ने 1950 में छपे ‘सावर एंड हीज टाइम्स’ को पुन: 1966 में प्रकाशित कराया। इस बार के एडिशन में उनके जीवन और संघर्ष जुड़ी कुछ और चौंकाने वाली दास्तानें शामिल थीं। कीर द्वारा लिखे किताब के मुताबिक आजादी के संघर्ष के दौरान हुए राजनीतिक हत्याओं में सावरकर की भूमिका अहम रही थी। पहली राजनीतिक हत्या जिसमें उनकी भूमिका का प्रकाश में आई, वो थी सर विलियम कर्जन विली को गोली मारने की घटना।
1 जुलाई, 1909 को मदनलाल ढींगरा ने सर विलियम कर्जन विली की गोली मारकर हत्या कर दी। कीर के मुताबिक ढींगरा को सावरकर ने हत्या के लिए ट्रेंड किया था और उन्हें रिवॉल्वर सौंपी थी। विली की हत्या से पहले उन्होंने ढींगरा के हाथों रिवॉल्वर सौंपते हुए कहा था, “अगर इस बार तुम असफल होते हो, तो अपनी शक्ल मुझे मत दिखाना।”

ढींगरा के शक्ल नहीं दिखाने का तात्पर्य के पीछे भी एक कहानी है। दरअसल, मदनलाल ढींगरा ने इससे पहले पूर्व वायसरॉय लॉर्ड कर्जन और बंगाल के पूर्व गवर्नर ब्रामफिल्ड फ्यूलर की हत्या की कोशिश की थी, जो नाकाम हो गई थी। लॉर्ड कर्जन और फ्यूलर एक समारोह में शिरकत करने पहुंचे थे। लेकिन, जब तक ढींगरा वहां पहुंचते दोनों वहां से रवाना हो गए। विली की हत्या के आरोप में ढींगरा को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें फांसी की सजा हुई। इस मामले के तार उसी दौरान सावरकर से भी जुड़ गए। मगर सबूतों के अभाव में उन्हें अंग्रेजी हुकूमत हाथ नहीं लगा पाई। सावरकर के देहांत के बाद 16 साल पहले छपी किताब के दूसरे एडिशन में इस तथ्य को उजागर करने पर इतिहासकारों में मतभेद रहा। प्रसिद्ध वकील और इतिहासकार एजी नूरानी ने अपनी किताब ‘सावरकर एंड हिंदुत्वा: द गोडसे कनेक्शन’ में इस घटना को हास्यासपद बताया है।
जिला मैजिस्ट्रेट की हत्या और सावरकर कनेक्शन
कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाने से पहले सावरकर ‘मित्र मेला’ नाम की एक गोपनीय सोसाइटी से जुड़े थे। आगे चलकर इस संगठन का नाम ‘अभिनव भारत’ कर दिया गया। इस संगठन का उद्देश्य अंग्रेजी हुकूमत को बंदूक के दमपर देश से बाहर खदेड़ देना था। सावरकर के बड़े भाई गणेश उर्फ बाबाराव भी इसके सदस्य थे। गणेश को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और उन्हें 8 जून, 1909 को उम्रकैद की सजा हो गई। गणेश के साथियों ने इस घटना का बदला लेने का निर्णय लिया और उन्हें सजा देने वाले नासिक जिला के मैजिस्ट्रेट एएमटी जैक्सन की गोली मारकर 29 दिसंबर 1909 को हत्या कर दी गई। जैक्सन को गोली तब मारी गई जब वह थेटर में मराठी नाटक ‘शारदा’ देखने गया था। इस घटना को अंजाम 18 साल के अनंत लक्ष्मण कन्हेंरे ने दिया था।
कन्हेरे और सावरकर के बीच चिट्ठियों के आदान-प्रदान के साक्ष्य अंग्रेजी हुकूमत के हाथ लग गया। जैक्सन की हत्या में जिस पिस्टल का इस्तेमाल हुआ था, उसके तार सावरकर से जुड़ गए। जानकारी सामने आई कि उस दौरान इंग्लैंड में बढ़ रहे सावरकर ने 20 पिस्टल भारत भेजे थे। आनन-फानन में अंग्रेजी हुकूमत ने टेलिग्राम के जरिए लंदन में अरेस्ट वारंट जारी किया और 13 मार्च, 1910 को सावरकर ने पुलिस के समक्ष सरेंडर कर दिया। सावरकर को उसके बाद भारत लाया गया। जैक्सन की हत्या में शामिल होने और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग छेड़ने के आरोप में सावरकर को 50-50 साल की दो सजाएं हुई और उन्हें 4 जुलाई, 1911 को अंडमान स्थित पोर्ट ब्लेयर भेज दिया गया।
सेल्युलर जेल में कष्ट और सावरकर का माफीनामा
अंडमान की सेल्युलर जेल उस दौरान कैदियों के लिए किसी बुरे सपने से भी बदतर थी। उस दौरान इसका खौफ इस कदर था कि यहा की जेल को काला-पानी की सजा नाम दिया गया था। इस जेल में रहते हुए सावरकर की हालत यहां कोल्हू के बैल जैसी हो गई। कहा जाता है कि जानवरों से भी बद्तर हालत और ऊपर से असीम प्रताड़ना के आगे सावरकर टूट गए और उन्होंने अंग्रजों को एक माफी पत्र लिखा। 1911 में सावरकर ने जो माफीनामा लिखा, उसकी प्रति हालांकि हाथ नहीं लगी। लेकिन, इसका जिक्र 14 नवंबर, 1913 को दायर उनकी दया याचिका में जरूर मिलता है। उन्होंने अनुरोध करते हुए लिखा, “सर्वशक्तिमान ही अकेला है जो किसी को दया दे सकता और इसलिए एक बेटा पिता समान सरकार के दरवाजे पर भला न जाए तो कहां जाए?” सावरकर को ब्रिटिश हुकूमत ने सशर्त माफी दी।
1921 में सावरकर को महाराष्ट्र के येरवदा जेल में लाया गया। यहां से उन्हें फिर हुकूमत ने इस शर्त पर रिहा किया कि वह सिर्फ रत्नागिरी जिले में ही सीमित रहेंगे। हुकूमत के बिना इजाजत वह जिले से बाहर नहीं जा सकते और वह किसी भी राजनीतिक गतिविधि में शामिल नहीं रहेंगे।
सावरकर की कार्यशैली और उनकी आदतें अप्रत्याशित थीं। कई बार उन पर सुविधा का ख्याल रखते हुए साथियों को छोड़ने के भी आरोप लगे। प्रसिद्ध इतिहासकार आरसी मजूमदार के मुताबिक अंडमान की सेल्युलर जेल में उनके साथी त्रिलोकनाथ चक्रवर्ती ने बताया कि सावरकर ने उन्हें और अन्य साथी कैदियों को भूख हड़ताल के लिए प्रेरित किया। मगर, वह और उनके भाई इस भूख हड़ताल में शामिल नहीं हुए। जबकि, त्रिलोकनाथ उनसे उम्र में काफी बड़े थे।
गांधी की हत्या और सावरकर की भूमिका
30 जनवरी 1948 को नाथू राम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी। हत्या में विनायक दामोदर सावरकर का भी नाम सामने आया। 5 फरवरी 1948 को आजाद भारत की पुलिस ने सावरकर को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के करीब 7 दिन बाद उन्होंने बांबे पुलिस कमिश्नर को एक चिट्ठी लिखी, “यदि मुझे सशर्त रिहा किया जाता है, तो मैं किसी भी सांप्रदायिक या राजनीतिक गतिविधि से बचना चाहूंगा।” सावरकर की यह बात ने सरकार के शक को और भी मजबूत कर दिया। मामले की जांच कर रहे अफसरों ने सावरकर को गांधी की हत्या का केंद्र-बिंदु माना। सावरकार की मृत्यु के बाद कई तथ्य और भी सामने आई। 30 जनवरी 1948 से पहले भी महात्मा गांधी को मारने का प्रयास किया गया था। पहली कोशिश 20 जनवरी को हुई थी। इस कोशिश को अंजाम बंटवारे के बाद पंजाब से आए रिफ्यूजी मदनलाल पाहवा ने दी। हत्या में नाकाम पाहवा को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।
दूसरी कोशिश नाथूराम गोडसे ने की और उसने गांधी को गोली मार दी। महात्मा गांधी की हत्या में 8 अभियुक्त थे। इनमें नाथू राम गोडसे, उसका भाई गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया, विनायक दामोदर सावरकर और दत्ताराया पर्चुरे शामिल थे। इस गुट के नौवे सदस्य दिंगबर आर बड़गे सरकारी गवाह बन गए।
मुख्य गवाह बड़गे ने बताया कि हत्या से पहले गोडसे और आप्टे बांबे स्थित सावरकर के घर गए थे। दोनो की पहली बैठक 14 जनवरी को हुई। इसी दिन बड़गे ने नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को गोलियां, हैंडग्रेनेड और डेटोनेटर दिया था। हालांकि, जब गोडसे और आप्टे सावरकर से मिलने गए तब बड़गे घर के भीतर नहीं गया था। दूसरी बैठक 17 जनवरी को हुई। इस बार बड़गे घर के भीतर गया। गोडसे और आप्टे घर की दूसरी मंजिल पर गए। 10 मिनट बाद वे दोनों सावरकर के साथ सीढ़ियों पर खड़े थे। इस दौरान बड़गे ने सावकर को मराठी में कहते सिर्फ यह सुना, “विजय होकर लौटो।”
ट्रायल कोर्ट के जज जस्टिस आत्मा चरण ने माना कि बड़गे ने मामले में सच्चाई बयान की, लेकिन सबूतों के अभाव और स्पष्ट संलिप्तता नहीं मालूम होने पर उन्हें सावरकर को छोड़ना पड़ा। यह इसलिए भी संभव हो पाया, क्योंकि गोडसे और अन्य अभियुक्तों ने अपने गुरु के प्रति आखिर तक निष्ठा रखी। उदाहरण के लिए गोडसे ने बताया था कि उसका और सावरकर का रिश्ता नेता और उसके अनुयायियों से कहीं ज्यादा बढ़कर है।