कवि रहीम ने कहा: ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून/ पानी गए न ऊबरे मोती, मानुष, चून।’ कवि जब पानी को रखने की बात करता है तो वह पानी का अपव्यय रोकने और वर्षा जल संग्रहण की सीख भी देता है। चूंकि आज भी दुनिया अपनी जल संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रकृति पर निर्भर है, इसलिए प्रकृति द्वारा पृथ्वी पर बरसाए जाने वाले जल को वरदान की तरह सहेजा जाना चाहिए। वरदान व्यर्थ करने के लिए नहीं होते। दुर्भाग्य से मनुष्य समाज वर्षा जल संग्रहण के प्रति अभी भी पर्याप्त संवेदनशील नहीं हुआ है।

हालांकि पृथ्वी की सतह का दो तिहाई से अधिक हिस्सा पानी से आच्छादित है, लेकिन विसंगति यह है कि इस पानी में से अधिकांश मनुष्य की दैनंदिन जरूरतों को पूरा करने के काम नहीं आ सकता। वैज्ञानिकों का कहना है कि पूरी पृथ्वी पर मौजूद कुल पानी का लगभग दो फीसद हिस्सा ही मनुष्य पेयजल के काम में ले सकता है। समुद्री पानी में लवण तत्त्व का आधिक्य उसे जीवन के लावण्य को संवारने लायक नहीं रहने देता। विश्व आर्थिक मंच की एक रपट में कहा गया है कि दुनिया की आबादी के कुल 75 फीसद से अधिक लोग किसी न किसी रूप में पानी की कमी से जूझ रहे हैं। भारत को नदियों का देश कहा जा सकता है, लेकिन यहां भी प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता लगातार कम हो रही है।

कुछ वर्ष पहले भारत सरकार ने संसद में बताया था कि जहां 1951 में 5177 घन मीटर जल प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष उपलब्ध था, वहीं 2025 में इसके प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 1341 घन मीटर होकर रह जाने की संभावना है। यह आंकड़ा डराता है। खासकर तब, जब इसी रपट में यह भी बताया गया कि सन 2050 तक यह जल उपलब्धता 1140 घनमीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष तक सिमट जाएगी। तब जबकि आबादी बढ़ रही है, ऐसे उत्पादनों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जिनमें जल का अत्यधिक व्यय होता है और जल की उपलब्धता लगातार कम होती जा रही है, मानव जाति को अप्रिय स्थितियों से बचाने का सबसे अच्छा तरीका हो सकता है कि वर्षा ऋतु में आसमान से गिरने वाले पानी का संरक्षण किया जाए।

दरअसल, वैश्विक तपिश ने जहां दुनिया भर के ऋतुचक्र को बदला है और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में होने वाली बरसात का ‘पैटर्न’ बदला है, वहीं भूजल के अंधाधुंध दोहन से जमीन के अंदर के पानी की मात्रा पिछले पांच दशकों में तेजी से कम हुई है। भारत जैसे देश में भूजल का लगातार खिसकता हुआ स्तर नीति निर्धारकों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। किसी भी कृषि प्रधान देश के लिए मानसून की वर्षा उत्सव का कारण होती है। परंपरागत तौर पर हमारे यहां मानसून एक आनंद का अवसर रहा है। वह पीढ़ी अभी भी सामाजिक जीवन में सक्रिय है, जिसने बचपन के कितने ही घंटे बारिश में भीगकर ‘इंदर राजा पानी दे, पानी दे गुड़-धानी दे’ गाते हुए या सड़क किनारे इकट्ठा हो गए पानी में कागज की नावें तैराते हुए बिताए हैं। अब बच्चों की प्राथमिकताएं बदल गई हैं, उनके खेल बदल गए हैं। मगर बारिश का आगमन तमाम व्यस्तताओं के बावजूद अभी भी मन को बौराता है।

प्राचीन काल में बरसात के पानी को संग्रहित करने के प्रति हमारा समाज बहुत सचेत था। जिस दौर में नलों के माध्यम से पानी घर-घर नहीं पहुंचा था, तब लोगों की दिनचर्या अपनी जरूरत के लिए जल प्राप्त करने की कोशिशों से शुरू होती थी- दिन बहुधा नदियों, कुओं, तालाब, झीलों, बावड़ियों या कुंडों से पानी लाने से शुरू होता था। मनुष्य का एक स्वभाव है- जिस चीज से उसका स्वार्थ पूरा होता है, उस रिश्ते या उस वस्तु के संरक्षण के प्रति वह सचेत रहता है। पुराने तालाब, बावड़ी, कुंए आदि बहुधा वर्षा जल के प्रवाह के रास्ते में होते थे और बह कर व्यर्थ जा रहे जल को अपने अंतस में सहेज लेते थे। ये जल संरचनाएं न केवल वर्ष पर्यंत अपने आसपास रहने वाले लोगों की जल संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करती थीं, बल्कि इनमें जमा पानी रिस रिस कर भूजल स्तर को बचाने और बढ़ाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता था।

पुराने लोग इन जल संरचनाओं के संरक्षण के प्रति कितने सजग रहते थे, इसका अनुमान जैसलमेर के गढ़सीसर तालाब के रखरखाव के लिए बनाए गए नियमों से लगाया जा सकता है। इस तालाब की मानसून के पहले सफाई होती थी और रियासत के महाराव खुद उसमें हिस्सा लेते थे। जब शासक स्वयं किसी कार्य में हिस्सा ले, तो उसमें अनुष्ठान जैसा उत्साह जागता है। सारी प्रजा बढ़-चढ़ कर इस रखरखाव की जिम्मेदारी निभाती थी। पहली बरसात के बाद इस तालाब में नहाना सख्त मना था। यह तालाब विशिष्ट संरचनाओं के माध्यम से अन्य तालाबों से जुड़ा था। इसका लाभ यह होता था कि कभी अगर जल की आवक अधिक होती थी, तो वह पानी तालाब से बहने के कारण बेकार नहीं जाता था, बल्कि अन्यत्र संग्रहित हो जाता था। जैसलमेर राजस्थान के मरुस्थलीय क्षेत्र का नगर है। मरुस्थल के वासियों से अधिक पानी के संग्रहण का महत्त्व कौन समझ सकता है?

मगर अब इस जरूरत को सबको समझना होगा, क्योंकि धरती के अंदर का पानी तेजी से खत्म होता जा रहा है। सन 2021 की महालेखा नियंत्रक की रपट में बताया गया कि 2004 से 2017 के बीच भारत में भूजल दोहन 58 से 63 फीसद बढ़ा, जो भूजल पुनर्भरण की तुलना में अधिक था। अगर भूजल दोहन की यही स्थिति रही और वर्षाजल संग्रहण के समुचित प्रयास नहीं किए गए तो पेयजल संबंधी परेशानियां अस्सी फीसद तक बढ़ जाएंगी। अभी गर्मी के दिनों में देश के कई हिस्सों में पेयजल के मुद्दे पर हिंसक झगड़ों के समाचार देखने-सुनने को मिलते हैं। इस वर्ष अजमेर में एक बुजुर्ग वकील ने इसलिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि साधन संपन्न होने के बावजूद वे अपने परिवार के लिए पेयजल की माकूल व्यवस्था नहीं कर पा रहे थे।

सत्तर के दशक में गांव-गांव में पानी पहुंचाने के लिए नलकूप खोदे गए। इसी समय परंपरागत जल संरचनाओं के प्रति समाज में उपेक्षा का भाव बढ़ा और पुराने तालाब, कुंए, कुंड, बावड़ी एक एक करके क्षतिग्रस्त होते गए। उनकी ओर ध्यान नहीं दिया गया। सड़कें सीमेंट की हो गईं। पुराने तालाबों के पेटे में बस्तियां बना दी गईं, यानी धरती के गर्भ में जल जाने के रास्ते एक एक करके बंद कर दिए गए। नलकूपों के कारण भूजल का दोहन कई गुना बढ़ गया। बढ़ती आबादी ने उपलब्ध संसाधनों पर अतिरिक्त भार लाद दिया। परिणाम यह हुआ कि घटता हुआ भूजल स्तर धीरे-धीरे सबकी चिंता का विषय हो गया। ऐसे में सबको वर्षा जल संग्रहण के लिए सतत सचेत और सक्रिय रहना होगा।

सत्तर के दशक में गांव-गांव में पानी पहुंचाने के लिए नलकूप खोदे गए। इसी समय परंपरागत जल संरचनाओं के प्रति समाज में उपेक्षा का भाव बढ़ा और पुराने तालाब, कुंए, कुंड, बावड़ी एक एक करके क्षतिग्रस्त होते गए। उनकी ओर ध्यान नहीं दिया गया। सड़कें सीमेंट की हो गईं। पुराने तालाबों के पेटे में बस्तियां बना दी गईं, यानी धरती के गर्भ में जल जाने के रास्ते एक एक करके बंद कर दिए गए। नलकूपों के कारण भूजल का दोहन कई गुना बढ़ गया। बढ़ती आबादी ने उपलब्ध संसाधनों पर अतिरिक्त भार लाद दिया। परिणाम यह हुआ कि घटता हुआ भूजल स्तर धीरे-धीरे सबकी चिंता का विषय हो गया। ऐसे में सबको वर्षा जल संग्रहण के लिए सतत सचेत और सक्रिय रहना होगा।