यदि इन सिफारिशों पर सरकारें अमल करतीं तो आज जोशीमठ तबाही के कगार पर खड़ा न होता। उन्होंने कहा कि सरकार न अपनी बनाई गई कमेटियों की सुनती है और न ही न्यायालयों की बनाई गई कमेटियों की और सरकार ने न तो सुरंग के लिए सिफारिशें सुनीं और न ही सड़क के लिए, और जिसका नतीजा आज पूरी दुनिया जोशीमठ में देख रही है।
प्रोफेसर रवि चोपड़ा ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने उत्तराखंड की जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के मामले में 2013 में एक कमेटी बनाई थी जिसमें वे सदस्य थे। इस कमेटी ने सिफारिश की थी कि भूस्खलन और मैन सेंट्रल थस्ट यानी पैरा ग्लेशियर क्षेत्र से ऊपर किसी भी तरह की बिजली परियोजनाओं का निर्माण न किया जाए।
कमेटी ने कहा था कि नदी तट से दो से सवा दो हजार मीटर से ज्यादा ऊंचाई पर बिजली परियोजनाओं का निर्माण किया जाना क्षेत्र के लिए हितकर नहीं है इसीलिए अलकनंदा घाटी में हेलंग और भागीरथी घाटी में भटवाड़ी से ऊपर बिजली परियोजनाओं का निर्माण नहीं होना चाहिए।
परंतु राज्य सरकार ने उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित कमेटी की रिपोर्ट भी नहीं मानी और इन सभी परियोजनाओं तथा जोशीमठ क्षेत्र में तपोवन विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना का निर्माण बदस्तूर जारी रहा।
चोपड़ा स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जोशीमठ में भू-धंसाव हेलंग बाईपास और तपोवन विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना की सुरंग निर्माण की वजह से ही हो रहा है क्योंकि सड़क और सुरंग के निर्माण के समय बड़े स्तर पर विस्फोट किए गए जिससे जमीन में दरारें आ गर्इं। 7 फरवरी 2021 को एनटीपीसी की इस बिजली परियोजना की सुरंग में बारिश का पानी और मलबा घुसा था, जिससे क्षेत्र में बड़ी-बड़ी दरारें आ गर्इं।
इस पानी ने धीरे-धीरे अपना रास्ता बनाया और वह पानी आज जोशीमठ में विभिन्न जगहों से निकल रहा है। पानी के तेज बहाव की वजह से रेत ,मिट्टी पत्थर के ढेर पर बसे जोशीमठ की जमीन भवनों का वजन सहन नहीं कर पाई और इसी वजह जोशीमठ में लगातार भू-धंसाव हो रहा है।
रवि चोपड़ा कहते हैं कि जोशीमठ की बर्बादी के लिए अन्य कारणों के अलावा एनटीपीसी की जल विद्युत परियोजना और चार धाम राजमार्ग परियोजना भी मुख्य रूप से जिम्मेदार है। उन्होंने कहा कि जोशीमठ और उसके आसपास की पहाड़ियों से लगातार छेड़छाड़ की जाती रही।
2006 में उत्तराखंड की राज्य सरकार ने एनटीपीसी को जोशीमठ में तपोवन विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना बनाने की अनुमति दी और तब से सुरंग बनाने के लिए इस संवेदनशील क्षेत्र में लगातार विस्फोट किए जाते रहे। 24 दिसंबर 2009 में इस सुरंग से पानी निकलना शुरू हुआ।
चोपड़ा का कहना है कि आल वेदर रोड परियोजना के तहत जोशीमठ बाईपास निर्माण पर कमेटी ने पहले असहमति जताई थी परंतु सीमा सड़क संगठन की मांग को देखते हुए हेलंग-मारवाड़ी बाईपास के रूप में संकरी सड़क बनाने पर कमेटी ने सहमति जताई थी।
लेकिन सड़क निर्माण करते समय ऐसा नहीं किया गया। चोपड़ा का कहना है कि इस परियोजना के निर्माण में संवेदनशीलता और विवेक के साथ काम नहीं किया गया और जिसका परिणाम जोशीमठ की आपदा के रूप में हमारे सामने है।
मिश्रा कमेटी की सिफारिशें मान ली गई होतीं तो बर्बादी न होती
यदि 47 साल पहले बनी एमसी मिश्रा कमेटी की सिफारिशें मान ली गई होतीं तो आज जोशीमठ तबाही से बच जाता। परंतु तब से आज तक उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की किसी भी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और 1975 में उत्तर प्रदेश की सरकार ने तब के गढ़वाल मंडल के आयुक्त एमसी मिश्रा की अध्यक्षता में 18 सदस्यीय कमेटी जोशीमठ का अध्ययन करने के लिए बनाई थी।
इस समिति ने एक साल तक इस संवेदनशील क्षेत्र का अध्ययन करने के बाद एक रिपोर्ट बनाई थी। इसमें जोशीमठ में किसी भी तरह की मानवीय छेड़छाड़ न की जाए और यहां पर मिट्टी में पकड़ कमजोर है और यह पहाड़ लगातार धंस रहा है और साथ ही नदी किनारे के हिस्से में छेड़छाड़ बिल्कुल नहीं होनी चाहिए।
मिश्रा कमेटी ने कहा था कि जोशीमठ एक पुराने भूस्खलन जोन एवं भूकंपीय क्षेत्र में स्थित है और अगर यहां विकास बिना नियम के हुआ तो यह बैठ जाएगा। इस कमेटी ने बताया था कि जोशीमठ रेत और पत्थर वाले पहाड़ पर है न की चट्टान पर। अलकनंदा और धौलीगंगा से भूस्खलन होता रहता है जिससे नदियों के किनारे और पहाड़ों के किनारे टूटते रहते हैं। मिश्रा कमेटी ने जोशीमठ में पानी निकासी का सही इंतजाम ना होने के कारण भी भूस्खलन होने की बात भी कही थी।
कमेटी के मुताबिक सीवर और पानी की निकासी के लिए जो क्विट बनाए गए हैं उनसे धरती में पानी समा जाता है और उससे कैविटी बन जाती है। मिट्टी और पत्थर के बीच में जहां पर पानी लगातार जमीन में समाता रहता है और जिसके कारण भू-धंसाव होता है। 1975 के आसपास जोशीमठ में मकानों में दरारें पड़ने की बात सामने आई थी और तब से अब तक उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सरकारों की फाइलों में मिश्रा कमेटी की सिफारिशें धूल फांकती रही।