कभी इतिहास की किताब पर आरोप लगे थे कि उसमें तारीखों के अलावा कुछ सच नहीं होता तो इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से ही पत्रकारिता पर भी यह आरोप लगने शुरू हो चुके थे कि शुक्र है अब भी तारीख सही छपती और दिखती है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के बाद जब वरिष्ठ पत्रकारों के ट्वीट और खबरों के स्क्रीनशाट उन्हें शर्मिंदा कर रहे थे, उसी वक्त वरिष्ठ पत्रकार गिरिजाशंकर की दो किताबें चुनावी किंवदंतियों के बरक्स सच को सामने लाती हैं। गिरिजाशंकर की हाल में आईं दो किताबों ‘चुनावी राजनीति मध्यप्रदेश’ व ‘समकालीन राजनीति मध्यप्रदेश’ को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, पूर्व मंत्री सुरेश पचौरी से लेकर समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर तक राजनीति के स्कूली पाठ्यक्रम के लिए जरूरी बता चुके हैं।

कहते हैं कि सामूहिक यादाश्त छोटी होती है, लेकिन भारतीय राजनीति के क्षेत्र में गलत याद को पीढ़ियां विरासत में ढो रही हैं। जनता के स्मृति दोष का शुद्धीकरण वही पत्रकार कर सकता है जो खुद जमीन पर जूझ कर, तथ्यों से कहानियों के कंकड़ की छंटाई करे। ये दोनों किताबें न तो इतिहास लेखन हैं व न कोई शोध-पत्र। यह एक पत्रकारीय कर्म है जो आम स्मृति से तथ्यों का अंतर करता है।

‘समकालीन राजनीति मध्यप्रदेश’ में गिरिजाशंकर इंदिरा गांधी के बारे में फैली किंवदंती पर लिखते हैं- ‘बहरहाल मध्यप्रदेश की राजनीतिक यात्रा के तथ्यों को जुटाने में ऐसे मौके भी आए जब आम स्मृति व तथ्यों में अंतर पाया। मसलन आम धारणा यह है कि बांग्लादेश युद्ध जीतने के कारण इंदिरा गांधी को अपार चुनावी सफलता मिली जबकि तथ्य यह है कि आम चुनाव में इंदिरा गांधी की विजय के बाद बांग्लादेश युद्ध हुआ। दल्लीराजहरा के खदान श्रमिकों पर पुलिस गोलीबारी मुख्यमंत्री वीरेंद्र कुमार सखेलचा के कार्यकाल में हुई जबकि तथ्य यह है कि पुलिस गोलीबारी की यह घटना राष्ट्रपति शासन के दौरान घटी थी।’

मध्यप्रदेश की राजनीतिक तासीर अन्य हिंदी प्रदेशों से अलग है तो गिरिजाशंकर की जनवादी तालीम उन्हें उन आम पत्रकारों से अलग करती है जिनके तथ्यान्वेषण पर राजनीतिक कथ्य हावी हो जाते हैं। गिरिजाशंकर हर चुनावी पांरपरिक मान्यता को ध्वस्त करते हैं। खास कर व्यवस्था-विरोधी लहर को हर चुनाव में सत्ताधारी दल के लिए हानिकारक साबित करने के चलन को वे पूरे आंकड़ों के साथ गलत साबित करते हैं। चुनावी विश्लेषण में एक आम धारणा बना दी गई है कि ज्यादा मतदान को मौजूदा सरकार के खिलाफ माना जाता है।

लेकिन गिरिजाशंकर आंकड़ों के आधार पर इसे महज राजनीतिक जागरूकता और राजनीतिक दलों की मेहनत का मामला ही करार देते हैं। वे 1957 में मध्यप्रदेश के पहले विधानसभा चुनाव से 2018 के विधानसभा चुनावों को आंकड़ों के साथ विश्लेषित कर परंपरागत धारणाओं को नया आयाम देने की कोशिश करते हैं। अब ऐसा बहुत कम होता है कि सत्ता विरोधी लहर के कारण सरकार बदल जाती है। वे कहते हैं कि सत्ता विरोधी लहर खुद पैदा नहीं होती है। इसके लिए विपक्ष को खुद को विकल्प के रूप में साबित करना होता है। राजस्थान और तमिलनाडु इसके उदाहरण हैं।

मध्यप्रदेश के साथ गिरिजाशंकर ने भी हर तरह की सरकारों का अनुभव किया है। चाहे व कांग्रेसी, गठबंधन और भाजपा की सरकार हो, उनकी कलम की स्याही का रंग नहीं बदला। गिरिजाशंकर किताब में लिखते हैं, ‘इन सभी सरकारों का अनुभव बताता है कि सरकारों की शैली व कार्यक्रम अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन विकास के पैमाने पर सभी सरकारों का चरित्र एक जैसा ही रहा है, तदर्थवाद और दलगत राजनीतिक समीकरण का चरित्र’।

मध्यप्रदेश की पत्रकारिता में गिरिजाशंकर ने वह मुकाम हासिल किया जिसमें राजनेता को उन जैसे चाणक्य की जरूरत आन पड़ती है। पत्रकारिता से शुरू कर वे मुख्यमंत्री के सलाहकार भी बने। गिरिजाशंकर की खासियत यह है कि राजनीतिक सलाहकार बनने के बाद भी उन्होंने अपनी पत्रकारिता को सरोकारों के ताक पर नहीं रखा। राजनेता को उनके अनुभव की जरूरत थी, गिरिजाशंकर को उनकी नहीं। इसलिए शासन के रूप बदलने के बाद भी उनके लेखन व पत्रकारिता का रूप नहीं बदला।

आज वे इस मुकाम पर हैं कि यह अहम नहीं है कि वे क्या हैं, बस यही मायने रखता है कि वे गिरिजाशंकर हैं। पत्रकारिता के बारे में कहा जाता है कि जो एक बार पत्रकार बन जाता है, वह हमेशा पत्रकार ही रहता है, लेकिन इसका उदाहरण दुर्लभ ही रहा। गिरिजाशंकर उन दुर्लभ पत्रकारों में हैं जो सिर्फ पत्रकार हैं, इसलिए वे अगर कोई किताब लिखते हैं तो वह पत्रकारों, राजनीतिकों, विद्यार्थियों से लेकर हर वर्ग के पाठकों के लिए मायने रखती है। मध्यप्रदेश के इस राजनीतिक इतिहास में तारीखों के अलावा तथ्य भी सत्य हैं।