विश्व आर्थिक मंच के वैश्विक लैंगिक अंतर सूचकांक में भारत दो पायदान नीचे खिसककर 129वें स्थान पर पहुंच गया। इस सूचकांक में भारत पड़ोसी बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और भूटान के बाद पांचवें स्थान पर है। हालांकि माध्यमिक शिक्षा में नामांकन के मामले में भारत ने सबसे अच्छी लैंगिक समानता प्रकट की है। आर्थिक भागीदारी और अवसर मापदंडों में भी हल्का सुधार हुआ है। आर्थिक समानता अंक पिछले चार वर्षों में ऊपर की ओर बढ़ा है। विश्व आर्थिक मंच के अनुसार विश्व ने लैंगिक असमानता को 68.5 फीसद तक कम कर दिया है, लेकिन वर्तमान गति से पूर्ण लैंगिक समानता प्राप्त करने में 134 वर्ष का समय लगेगा। इस रपट में भारत के संदर्भ में लैंगिक अंतर सूचकांक की बात छोड़ दें तो भी यह किसी से छिपा नहीं है कि इस प्रगतिशील दौर में भी महिलाओं को कार्यस्थल पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। हम उन्हें जरूरी सुरक्षा व्यवस्था तक उपलब्ध नहीं करा पाते हैं। एक तरफ महिलाएं सफलता की नई कहानियां लिख रही हैं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि दूसरी तरफ उन पर अत्याचार की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। यह विचार का विषय है कि महिलाओं के संदर्भ में बड़ी-बड़ी बातें करने वाला यह समाज इस मुद्दे पर खोखला आदर्शवाद क्यों अपना लेता है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम अभी तक महिलाओं को सम्मान देना नहीं सीख पाए हैं, लेकिन महिलाएं हमारे इस व्यवहार से बेपरवाह हमें सम्मान देने में कोई कसर नहीं छोड़ती हैं। हमारे देश की बेटियों ने यह कई बार सिद्ध किया है कि अगर उन्हें प्रोत्साहन और सम्मान दिया जाए तो वे हमारे देश को अंतरराष्ट्रीय फलक पर एक नई पहचान दिला सकती हैं। मगर हमारे समाज में आजादी के इतने वर्षों बाद भी बेटियां वह सम्मान प्राप्त नहीं कर पाईं, जिसकी वे हकदार हैं। यह ठीक है कि इस दौर में बेटियों को लेकर समाज की सोच बदल रही है, परिवार बेटियों के पालन-पोषण और शिक्षा पर ध्यान दे रहे हैं, लेकिन हमारे समाज के सामूहिक मन में बेटियों को लेकर एक अजीब-सी नकारात्मकता है। समाज की यह नकारात्मकता लड़कियों के आत्मविश्वास को कम करती है। जो लड़कियां इस नकारात्मकता को चुनौती के रूप में लेती हैं वे एक न एक दिन सफलता का परचम जरूर लहराती हैं।

यह विडंबना ही है कि शिक्षित होने के बावजूद हम अभी आत्मिक रूप से विकास नहीं कर पाए हैं। पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियों को रोज नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस दौर में हमारे समाज के एक छोटे से तबके में लड़कियों को पूरी छूट दी जाने लगी है, लेकिन यहां उनकी चुनौतियां अलग तरह की होती हैं। कुल मिलाकर पितृसत्तात्मक समाज लड़कियों के लिए अनेक तरह के अवरोध खड़े कर रहा है। यह समाज इन अवरोधों के समर्थन में अलग तरह के तर्क गढ़ता है। यह जानते हुए भी कि इन तर्कों का कोई आधार नहीं है, यह समाज इन तर्कों को नियमों की तरह लड़कियों पर लादता है। जब हम इन आधारहीन नियमों को सिर्फ लड़कियों पर लादते हैं, तो एक तरह से हम पितृसत्ता को पुन: प्रतिष्ठापित करते हैं। इक्कीसवीं सदी में भी अगर लड़कियों को आगे बढ़ाने की कोशिश करने पर ताने सुनने पड़ें तो हमें यह सोचना होगा कि हमारी प्रगतिशीलता में कहां कमी रह गई है?

केवल खोखले आदर्शों वाली बड़ी-बड़ी बातें करने से समाज में प्रगतिशीलता नहीं आती है। प्रगतिशील बनने के लिए हमें बहुत-सी सड़ी-गली परंपराओं को तोड़ना, त्यागना पड़ता है। केवल डिग्रियां बटोरकर शिक्षित हो जाना ही समाज की प्रगतिशीलता का पैमाना नहीं है। शिक्षा ग्रहण कर समाज के हर वर्ग के उत्थान में उसका उपयोग करना ही सच्ची प्रगतिशीलता है। इस दौर में विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या हम लड़कियों और महिलाओं के संदर्भ में सच्चे अर्थों में प्रगतिशील हैं? क्या लड़कियों को पढ़ाना-लिखाना और आधुनिक परिधान पहनने की अनुमति देना ही प्रगतिशीलता है? दरअसल, हम प्रगतिशीलता का अर्थ बहुत संकुचित कर देते हैं। इक्कीसवीं सदी में भी अगर हम लड़कियों की रक्षा नहीं कर सकते तो इससे ज्यादा शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि खेल आदि अपनी रुचि के विषयों में भी लड़कियों को अनेक स्तरों पर चुनौतियां झेलनी पड़ती हैं। छोटी उम्र में अनेक लड़कियों को समाज के डर से अपने शौक की कुर्बानी देनी पड़ती है। इसीलिए हमारे देश में बहुत सारी महिला प्रतिभाएं जन्म ही नहीं ले पाती हैं या फिर असमय दम तोड़ देती हैं। जो महिला प्रतिभाएं परिवार के प्रोत्साहन से खेलों की तरफ रुख करती है, उन्हें भी अनेक पापड़ बेलने पड़ते हैं।

खेल जगत में भी महिला खिलाड़ियों को पग-पग पर पितृसत्ता की चुनौती झेलनी पड़ती है और बार-बार महिला होने का खमियाजा भुगतना पड़ता है। कुछ समय पहले महिला खिलाड़ियों के शोषण की घटनाएं प्रकाश में आई थीं। कई बार ऐसी घटनाएं प्रकाश में नहीं आ पाती हैं और खिलाड़ियों को ताउम्र यह दर्द झेलना पड़ता है। ऐसी घटनाओं और ऐसे वातावरण को देखकर अक्सर परिवारों का मनोबल भी टूट जाता है और वे अपनी बेटियों को खेल के क्षेत्र में भेजने से कतराने लगते हैं। रही-सही कसर खेल जगत में पसरी राजनीति पूरी कर देती है।

विडंबना यह है कि एक तरफ बेटियां खेलों में पसरी राजनीति से जूझती हैं, तो दूसरी तरफ समाज में पसरी राजनीति उनकी राह में कांटे बिछा देती है। बेटियों और महिलाओं के खिलाफ समाज में पसरी यह राजनीति आखिरकार सामाजिक विकास को पीछे धकेलती है। फलस्वरूप, बेटों और बेटियों में अनेक स्तरों पर एक अंतर बना रहता है। यह अंतर विद्यमान रहना दुर्भाग्यपूर्ण है।

इस दौर में भी बेटियों और महिलाओं के खिलाफअपराध की बढ़ती घटनाएं और उन पर घर के भीतर और बाहर लगातार हो रहे हमले इस बात का प्रमाण हैं कि हम आज भी अपनी सोच नहीं बदल पाए हैं। इस तथ्य को गलत सिद्ध करने के लिए यह कहा जा सकता है कि सारा समाज ऐसा नहीं है, लेकिन वास्तविकता से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। तमाम उदाहरण हैं, जिनसे बार-बार यह बात सामने आती है कि हमारी सोच में कोई न कोई खोट जरूर है। सुखद यह है कि इस माहौल में भी लड़कियों और महिलाओं के हौसले बुलंद हैं और वे लगातार सफलता की नई कहानियां लिख रही हैं। अब जरूरत इस बात की है कि हम लैंगिक भेदभाव को खत्म करने के लिए जरूरी कदम उठाएं। इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। हमें यह समझना होगा कि इस दौर में लैंगिक भेदभाव हमारे समाज पर काले धब्बे की तरह है।

केवल खोखले आदर्शों वाली बड़ी-बड़ी बातें करने से समाज में प्रगतिशीलता नहीं आती है। प्रगतिशील बनने के लिए हमें बहुत-सी सड़ी-गली परंपराओं को तोड़ना, त्यागना पड़ता है। केवल डिग्रियां बटोरकर शिक्षित हो जाना ही समाज की प्रगतिशीलता का पैमाना नहीं है। शिक्षा ग्रहण कर समाज के हर वर्ग के उत्थान में उसका उपयोग करना ही सच्ची प्रगतिशीलता है। इस दौर में विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या हम लड़कियों और महिलाओं के संदर्भ में सच्चे अर्थों में प्रगतिशील हैं? क्या लड़कियों को पढ़ाना-लिखाना और आधुनिक परिधान पहनने की अनुमति देना ही प्रगतिशीलता है?