2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने भ्रष्टाचार पर वार करते हुए चुनावी नारा दिया था, ‘बहुत हुआ भ्रष्टाचार, अबकी बार मोदी सरकार,’ लेकिन पांच साल बीत जाने के बाद भी मोदी सरकार संस्थागत पारदर्शिता को लेकर सचेत नहीं दिख रही। हालात ऐसे हैं कि सबसे बड़ी पारदर्शी संस्था केंद्रीय सूचना आयोग में आयुक्तों के चालीस फीसदी पद खाली हैं। इस वजह से वहां लंबित पड़े मामलों की संख्या 31 मई, 2019 तक बढ़कर 30,697 हो गई हैं। पिछले पांच महीने में 7000 लंबित केसों की संख्या में इजाफा हुआ है।

‘द वायर’ के मुताबिक फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट में आरटीआई एक्टिविस्ट अंजली भारद्वाज, कमांडर (रिटायर्ड) लोकेश बत्रा और अमृता जौहरी ने याचिका दायर कर बताया था कि सीआईसी में नियुक्ति न होने की वजह से लंबित पड़े मामलों की संख्या 23,500 है। बत्रा के मुताबिक 31 मई 2019 तक यह संख्या बढ़कर 30 हजार 697 हो गई है।

संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक केंद्रीय सूचना आयोग में एक मुख्य सूचना आयुक्त के अलावा कुल 10 सूचना आयुक्तों के पद सृजित हैं लेकिन फिलहाल चार पद खाली हैं। सुप्रीम कोर्ट में लंबी लड़ाई और आरटीआई एक्टिविस्टों की वजह से सरकार ने पिछले साल के अंत-अंत में सुधीर भार्गव को सीआईसी नियुक्त किया था। बता दें कि 2014 में सत्ता संभालने के बाद से ही इस आयोग में नियुक्ति को लेकर मोदी सरकार का रवैया उदासीन बना रहा है। राजीव माथुर के रिटायर होने के करीब दस महीने बाद सरकार ने 10 जून 2016 को विजय शर्मा को सीआईसी नियुक्त किया था। उस वक्त भी आरटीआई कार्यकर्ता लोकेश बत्रा, आरके जैन और सुभाष चंद्र अग्रवाल ने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक उस समय भी लंबित मामलों की संख्या बढ़कर करीब 39 हजार हो गई थी।

सुप्रीम कोर्ट ने सूचना आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़े मामले की सुनवाई करते हुए 15 फरवरी के अपने आदेश में साफ किया है कि सरकार की सर्च कमेटी रिटायर्ड नौकरशाहों के अलावा समाज के दूसरे फील्ड से जुड़े लोगों को भी शॉर्टलिस्ट करे ताकि काम आसान हो सके। एक आरटीआई के जवाब में केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय जो इसकी नोडल एजेंसी है, ने बताया है कि चार पदों के लिए कुल 256 आवेदन आए हैं और उनकी शॉर्टलिस्टिंग का काम अभी जारी है।

गौरतलब है कि सूचना का अधिकार कानून 2005 के प्रावधानों के तहत केंद्रीय सूचना आयोग का गठन 12 अक्टूबर, 2005 को किया गया था। संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक इस आयोग को आरटीआई से जुड़ी शिकायतों की जांच करने और दोषी पक्ष पर जुर्माना लगाने का अधिकार है। कानून के मुताबिक आयोग का फैसला आखिरी और बाध्यकारी है। यानी इसे कोर्ट में या कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकती है।