संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन का मानना है कि खेतीबाड़ी में युवाओं की भागीदारी से वैश्विक भविष्य बदल सकता है। संगठन ने ‘कृषि-खाद्य प्रणालियों में युवाओं की स्थिति’ शीर्षक से एक रपट जारी की है। इसमें कहा गया है कि खेती-बाड़ी में युवाओं की भागीदारी से न केवल खाद्य सुरक्षा और पोषण में सुधार लाया जा सकता है, बल्कि उनकी बढ़ती हिस्सेदारी, जलवायु परिवर्तन और घटती संसाधन उपलब्धता जैसी वैश्विक चुनौतियों का समाधान भी बन सकती है। एक ओर संयुक्त राष्ट्र खेती में युवाओं की भागीदारी को लेकर इतना उत्साहित है, दूसरी ओर भारत में खेती से युवाओं का मोह भंग हो रहा है। वे खेती से दूर भाग रहे हैं, क्योंकि इसमें कम लाभ, कड़ी मेहनत और अनिश्चित आय जैसे कई कारण उन्हें हतोत्साहित कर रहे हैं। युवाओं को खेती करना मुश्किल लग रहा है। वे शहरी क्षेत्रों में बेहतर अवसरों की तलाश में हैं। उन्हें उच्च भुगतान वाली नौकरियां आकर्षित कर रही हैं।
भारत की पचास फीसद से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है। सकल घरेलू उत्पाद में खेती का सोलह फीसद योगदान है, लेकिन यह निराशाजनक है कि देश के युवा खेती से मुंह मोड़ते जा रहे हैं। खेतों में जहां एक समय युवा जोश और श्रम की गूंज सुनाई देती थी, वहां आज खामोशी और बुजुर्गों की मेहनत बची रह गई है। खेती में आ रही इस गिरावट का असर केवल खेतों तक सीमित नहीं है, यह हमारी खाद्य सुरक्षा, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना के लिए भी गंभीर चेतावनी है। बड़ा सवाल यह है कि युवा खेती क्यों नहीं कर रहे हैं बल्कि यह भी है कि क्या हमने उन्हें खेतों से दूर जाने के लिए विवश कर दिया है?
आज भी मौसम की मेहरबानी पर टिकी हुई है खेती
खेती आज भी मौसम की मेहरबानी पर टिकी हुई है। कभी सूखा, कभी अतिवृष्टि और कभी फसल की गिरती कीमतें। किसान हर वर्ष किसी न किसी मुसीबत से जूझता है। खेती पर लागत बढ़ती जा रही है, लेकिन बाजार में उसे जिंसों का वाजिब मूल्य नहीं मिलता है। ऐसे में ग्रामीण युवा यह सोचने को मजबूर हो गए हैं कि वह खेती में क्यों अपना समय और ऊर्जा लगाएं। इसमें सुबह से लेकर रात तक खटना पड़ता है। तकनीक और सुविधाओं में पली-बढ़ी नई पीढ़ी इस कठिन जीवन को अपनाने से झिझकती है। खेती को पुरानी पीढ़ी का ही काम माना जाने लगा है। गांवों में बुनियादी सुविधाओं की कमी और शहरों में बेहतर शिक्षा, नौकरी और जीवनशैली का आकर्षण युवाओं को गांव छोड़ने के लिए प्रेरित कर रहा है। दूसरी ओर उम्रदराज किसान भी नहीं चाहते कि उनके बच्चे वही जीवन जिएं, जो उन्होंने जिया है या जी रहे हैं।
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सरकार दशकों से कृषि शिक्षा को बढ़ावा देती आ रही है। इसके लिए मोटा बजट विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने में खर्च किया जाता है। देश में 73 कृषि विश्वविद्यालय कृषि शिक्षा की अलख जगा रहे हैं। उद्देश्य यही है कि युवा कृषि शिक्षा हासिल कर उन्नत खेती करें। मगर अब कृषि स्नातक और स्नातकोत्तर भी खेती को करिअर नहीं बनाना चाहते। वे कारपोरेट या सरकारी नौकरियों को प्राथमिकता दे रहे हैं। यह सोच तब तक नहीं बदलेगी, जब तक खेती को व्यावसायिक रूप में बढ़ावा नहीं दिया जाएगा। इस मामले में खेती के लिए जमीन भी एक चुनौती बनी हुई है। भूमि का बंटवारा, महंगी लीज और संसाधनों की कमी भी युवाओं को खेती से दूर कर रही है। कई युवाओं के पास अपनी जमीन नहीं है या इतनी कम है कि उसमें टिकाऊ खेती संभव नहीं है।
खेती को लाभकारी और आकर्षक बनाने की है आवश्यकता
संयुक्त राष्ट्र का खाद्य एवं कृषि संगठन पूरी दुनिया की तरक्की की सीढ़ी खेती को मानता है। संगठन की ओर से जारी रपट के मुताबिक दुनियाभर में 15 से 24 वर्ष की आयु के करीब 1.3 अरब युवा हैं, जिनमें से 85 फीसद निम्न और निम्न-मध्यम आय वाले देशों में रहते हैं। अगर इन युवाओं को बराबरी का अवसर, संसाधन और नीति समर्थन मिले, तो वैश्विक जीडीपी में 1.5 ट्रिलियन डालर की अतिरिक्त वृद्धि हो सकती है, जिसमें से 45 फीसद अकेले कृषि खाद्य क्षेत्र ही संभव है।
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सवाल यह है कि क्या वाकई खेती में भविष्य नहीं है? इसका जवाब है कि खेती हमारा भविष्य है, लेकिन उसे भविष्य के योग्य बनाना होगा। असल आवश्यकता खेती को लाभकारी और आकर्षक बनाने की है। अगर में खेती लाभकारी होगी, तो युवा वर्ग इस ओर निश्चित रूप से आकर्षित होगा। वर्ष 2004 में एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में बने राष्ट्रीय किसान आयोग ने अपनी रपट में खेती को लाभकारी और युवाओं के लिए आकर्षक बनाने पर जोर दिया था। इस रपट में भूमि सुधार, सिंचाई, बीमा, फसल मूल्य निर्धारण, वितरण प्रणाली, रोजगार सुधार और खाद्य सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में ठोस नीतियां बनाने की आवश्यकता प्रतिपादित की गई, लेकिन दुर्भाग्यवश, इन सिफारिशों का धरातल पर क्रियान्वयन अपेक्षाकृत कम हुआ है। अगर इन्हें समय पर और सही ढंग से लागू किया जाता, तो आज खेती का चेहरा कुछ और होता।
पारंपरिक खेती का रहा है हमारा अतीत
युवाओं का रुझान खेती में करने के लिए इसमें तकनीक का समावेश उपयोगी साबित हो सकता है। ड्रोन, सेंसर, आधुनिक सिंचाई, जैविक खेती और डेटा विश्लेषण जैसे नवाचार युवाओं को आकर्षित कर सकते हैं। अलबत्ता, देश में यह सब शुरू तो हो गया है। कई स्थानों से सफलताओं की कहानियां भी आती हैं। मगर इसे बड़े पैमाने पर बढ़ाना होगा। ‘एग्री बिजनेस’ और कृषि से जुड़े नवउद्यम भी नई राह खोल सकते हैं। खेती केवल उत्पादन नहीं, उसे तैयार करने से लेकर विपणन से भी जुड़ी है। यदि युवाओं को इन सभी से जोड़ा जाएगा, तो वे इसे एक गंभीर पेशे की तरह अपनाएंगे। ग्रामीण युवा खाद्य संस्करण, तकनीक और मार्केटिंग से परिचित हो रहे हैं। मगर इससे जुड़े काम-धंधों को अगर गांव में ही विकसित किया जाएगा, तो इससे युवाओं का जुड़ाव व्यापक होगा। इसके लिए प्रोसेसिंग, पैकेजिंग और बाजारों में आपूर्ति आदि सब काम गांव से ही शुरू करने होंगे। कौशल विकास भी इसमें कारगर होगा। अगर जिला स्तर पर कृषि आधारित प्रशिक्षण संस्थान और कौशल केंद्र खोले जाएं, तो कम पढ़े-लिखे युवा आकर्षित होंगे।
युवाओं को खेती से जोड़ने के लिए फसलों का वाजिब मूल्य और लाभप्रद बीमा विकल्प दिया जाना सबसे जरूरी है। जब तक किसानों को उसकी मेहनत का फल नहीं मिलेगा, तब तक खेती को कोई गंभीरता से नहीं लेगा। जिस परिवार का किसान कर्ज के बोझ तले दब कर आत्महत्या कर ले, उस परिवार के युवा से खेती को अपनाने की उम्मीद करना बेमानी है। अगर गांवों में बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, इंटरनेट, बैंकिंग और परिवहन सुविधाएं हों, तो इससे भी युवाओं को वहीं रह कर खेती अपनाने के लिए तैयार करने में मदद मिलेगी।
हमारा अतीत पारंपरिक खेती का रहा है। हम अपना वर्तमान भी इसी के जरिए संवार सकते हैं और हमारा भविष्य भी खेतों से ही चमकेगा। जरूरत है कि खेती को ‘बेरोजगारों का काम’ मानने की मानसिकता से बाहर निकला जाए। खेती में नवाचार, आत्मनिर्भरता और राष्ट्र निर्माण की अपार संभावनाएं हैं। युवाओं को खेती से जोड़ने की पहल केवल सरकारी योजनाओं से नहीं, बल्कि सामाजिक सोच में बदलाव से संभव होगी। अगर विकसित भारत के सपने को सच करना है, तो युवाओं को खेती की ओर फिर से मोड़ना ही होगा।