नृपेंद्र अभिषेक नृप
भारत में अब बाढ़ महज प्राकृतिक आपदा नहीं, मानवीय आपदा बनती जा रही है। बाढ़ की समस्या का सबसे बड़ा कारण मात्र अतिवृष्टि नहीं, बल्कि मानव की तुच्छ अतिक्रमण कुदृष्टि भी है। ऐसा नहीं कि ऐसी बारिश भारत में पहली बार हो रही है। बाढ़ के क्षेत्रीय फैलाव में मानव गतिविधियां महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसमें जनसंख्या विस्फोट आग में घी का काम कर रहा है।
बाढ़ के समय लोगों के कष्ट, सत्य और तथ्य को हवाई सर्वेक्षण से महसूस नहीं किया जा सकता। पानी में तैरते और तड़पते लोगों को देखने से उनकी आंतरिक और मानसिक पीड़ा का एहसास नहीं होगा। नदी का जल उफान के समय जल वाहिकाओं को तोड़ता हुआ मानव बस्तियों और आसपास की जमीन पर पहुंच जाता और बाढ़ की स्थिति पैदा कर देता है।
भारत में बाढ़ एक नियमित प्राकृतिक प्रकोप बन चुकी है। भारत में घटने वाली सभी प्राकृतिक आपदाओं में सबसे अधिक घटनाएं बाढ़ की हैं। इस वक्त उत्तराखंड समेत देश के कई हिस्सों में बारिश और बाढ़ ने तबाही मचा रखी है। जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। सभी प्रमुख नदियां उफान पर हैं। पहाड़ टूट रहे हैं और सड़कें बह रही हैं। बाजार के बाजार डूब चुके हैं। लोगों के पास खाने-पीने का सामान भी नहीं है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार भारत में चार करोड़ हेक्टेयर भूमि को बाढ़ प्रभावित क्षेत्र घोषित किया गया है।
केंद्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक पिछले चौंसठ वर्षों में बाढ़ से एक लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। यानी हर साल औसतन 1,654 लोगों के अलावा 92,763 पशुओं की मौत होती रही है। विभिन्न राज्यों में आने वाली बाढ़ से सालाना औसतन 1.680 करोड़ रुपए की फसलें नष्ट हो जाती हैं और 12.40 लाख मकान क्षतिग्रस्त हो जाते हैं।
केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते चौंसठ वर्षों में 2.02 लाख करोड़ रुपए की संपत्ति का नुकसान हुआ और 1.09 लाख करोड़ की फसलों का। इसके अलावा बाढ़ से 25.6 लाख हेक्टेयर खेत भी नष्ट हो गए। इस दौरान बाढ़ से 205.8 करोड़ लोग प्रभावित हुए।
भारत सरकार के अलावा विश्व बैंक ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दुनिया भर में बाढ़-संबंधित मौतों के कुल मामलों में से बीस फीसद भारत में होते हैं। इसमें चेतावनी दी गई है कि आने वाले सालों में भारत के कोलकाता और मुंबई के अलावा पड़ोसी देशों के ढाका और कराची महानगरों में लगभग पांच करोड़ लोगों को बाढ़ की गंभीर विभीषिका झेलनी पड़ सकती है।
यही नहीं, इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र में तापमान बढ़ रहा है और यह अगले कुछ दशकों तक लगातार बढ़ता रहेगा। जलवायु परिवर्तन का देश में बाढ़ की स्थिति पर व्यापक असर होगा। इसकी वजह से बार-बार बाढ़ आएगी और पीने के पानी की मांग बढ़ेगी। विश्व बैंक के अनुसार 2050 तक छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य बन जाएंगे। इससे पहले इसी साल फरवरी में ‘इंडिया स्पेंड’ ने एक साइंस जर्नल में छपे अध्ययन में कहा था कि 2040 तक देश के ढाई करोड़ लोगों के सामने बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा। इन रिपोर्ट के आधार पर भारत में बाढ़ के भविष्य को समझा जा सकता है।
बाढ़ महज प्राकृतिक आपदा नहीं, मानवीय आपदा भी
वास्तव में भारत में अब बाढ़ महज प्राकृतिक आपदा नहीं, मानवीय आपदा बनती जा रही है। बाढ़ की समस्या का सबसे बड़ा कारण मात्र अतिवृष्टि नहीं, बल्कि मानव की तुच्छ अतिक्रमण कुदृष्टि भी है। ऐसा नहीं कि ऐसी बारिश भारत में पहली बार हो रही है। बाढ़ के क्षेत्रीय फैलाव में मानव गतिविधियां महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसमें जनसंख्या विस्फोट आग में घी का काम कर रहा है।
मानवीय क्रियाकलापों, अंधाधुंध वन कटाव, अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियां, प्राकृतिक अपवाह तंत्रों का अवरुद्ध होना तथा नदी तल और बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में मानव बसाव की वजह से बाढ़ की तीव्रता, परिमाण और विध्वंसता बढ़ जाती है। तटबंधों, नहरों और रेलवे से संबंधित निर्माण के कारण नदियों के जल-प्रवाह क्षमता में कमी आती है, फलस्वरूप बाढ़ की समस्या और भी गंभीर हो जाती है।
बाढ़ नियंत्रण के लिए सरकार और लोगों को साथ मिल कर काम करना होगा। राज्य स्तर पर बाढ़ नियंत्रण एवं शमन के लिए प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करके तथा उसके द्वारा स्थानीय स्तर पर लोगों को बाढ़ के समय किए जाने वाले उपायों के बारे में प्रशिक्षित करके इससे होने वाली क्षति को कम किया जा सकता है। जनता के बीच शीघ्र तथा आवश्यक सूचना जारी करने की सुविधा प्रदान करना करना आवश्यक है।
एक ऐसे संचार तंत्र का निर्माण करना होगा जो बाढ़ के दौरान भी कार्य कर सके। बाढ़ के पूर्वानुमान तथा चेतावनी नेटवर्क को रिमोट सेंसिंग टेक्नोलाजी तथा अन्य संस्थानों के सहयोग से मजबूत करना होगा। तटबंध, कटाव रोकने के उपाय, जल निकास तंत्र पुनर्नवीकरण, जल निकास तंत्र में सुधार, वाटर-शेड प्रबंधन तथा मृदा संरक्षण को बेहतर करने की जरूरत है।
भारत में बाढ़ की भविष्यवाणी केंद्रीय जल आयोग करता है। आयोग ने देशभर में 141 बाढ़ भविष्यवाणी केंद्र बना रखे हैं, जो भारत मौसम विज्ञान विभाग के सहयोग से संचालित होते हैं। बाढ़ से उत्पन्न स्थिति की समीक्षा, बाढ़ नियंत्रण के तरीकों का मूल्यांकन तथा भविष्य में सुधार आदि विषयों पर 1976 में स्थापित राष्ट्रीय बाढ़ आयोग अपनी नजर रखता है।
केंद्रीय जल आयोग लंबे समय से कहता रहा है कि राज्यों को बाढ़ ग्रस्त इलाकों को अलग-अलग जोन में बांटना चाहिए। इससे बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकेगा। इसके साथ-साथ नदियों को भी अपने रास्ते पर बहने दिया जा सकेगा। केंद्र सरकार ने बाढ़ नियंत्रण के लिए 1975 में एक ‘माडल बिल फार फ्लड प्लेन जोनिंग’ को राज्यों से साझा किया था, जिससे राज्यों में बाढ़ प्रभावित इलाकों को अलग-अलग क्षेत्रों में बांटने के काम को आगे बढ़ाया जा सके।
मगर अब तक केवल तीन राज्यों- मणिपुर (1978), राजस्थान (1980) और उत्तराखंड (2012) ने बाढ़ प्रभावित इलाकों को जोन में बांटने का कानून तैयार किया है। जबकि अन्य राज्य, खासकर नियमित रूप से बाढ़ की त्रासदी झेलने वाला बिहार, लगातार इसका विरोध करते रहे हैं। इसके पीछे वजह है, बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में आबाद लोगों को डूब क्षेत्र से हटा कर पुनर्स्थापित करना। क्योंकि, इन लोगों को बसाने के लिए वैकल्पिक जमीन का राज्यों के पास अभाव है।
बाढ़ से नुकसान लगातार बढ़ रहा है। इसकी बड़ी वजह है कि डूब क्षेत्र में आने वाले इलाकों में पिछले कुछ वर्षों के दौरान आर्थिक गतिविधियां बहुत बढ़ गई हैं और इंसानी बस्तियां भी बस रही हैं। इससे नदियों के डूब क्षेत्र में आने वाले लोगों के बाढ़ का शिकार होने की आशंका साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। अगर हम नदियों के कुदरती बहाव के रास्ते तैयार करने की कोशिश करें, तो इसमें भी बाढ़ नियंत्रण की काफी संभावनाएं दिखती हैं।
हम इसके लिए सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं बैठ सकते। जिन क्षेत्रों में हर साल बाढ़ आती है वहां के निवासियों को एक सुरक्षा तंत्र बना लेना चाहिए। जिनके पास छत का मकान है वे छत पर रह लेते हैं, लेकिन जिन्हें अब भी छत नसीब नहीं हुई है, उन्हें खून के आंसू रोने पड़ जाते हैं। इनके लिए बाढ़ आने पर सुरक्षित स्थानों पर चले जाने की व्यवस्था भी सरकार को त्वरित करानी होगी।
बाढ़ से मरने वालों के आंकड़ों से तो कलेजा मुंह को आता है। पर राजनेता इस कदर असंवेदनशील हो गए हैं कि उनका दिल कभी नहीं दहलता। वे तो हेलिकाप्टर से निरीक्षण करके अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेते और फिर बाढ़ उतरने के बाद भूल जाते हैं कि इसका स्थायी समाधान भी करना है। मुश्किलों से निजात दिलाने के बजाय वे दूसरों को दोषी ठहरा कर अपनी जबाबदेही से पल्ला झाड़ लेते हैं।