अब ज्यादातर स्थानों पर जुगनू नहीं दिखते। वे धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे हैं। भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्लूआइआइ) का एक अध्ययन बताता है कि बढ़ते प्रदूषण और घटती हरियाली की वजह से जुगनुओं के अस्तित्व पर खतरा बढ़ रहा है। यही स्थिति रही, तो आगामी पीढ़ियां जुगनू देखने को तरस जाएंगी। जुगनुओं के गायब हो जाने के अनेक दुष्परिणाम भी सामने आएंगे। ये स्वच्छ वातावरण के प्रमुख जैव संकेतक के रूप में काम करते हैं। इनका अभाव फल-सब्जियों के लिए भी प्रतिकूल होगा। क्योंकि जुगनू परागण में अहम भूमिका निभाते हैं।

यह खुशी की बात है कि इस अध्ययन के दौरान देश के बीस राज्यों में जुगनुओं की उपस्थिति पाई गई है, लेकिन यह तथ्य विचारणीय है कि शहरी क्षेत्रों में जुगनुओं की संख्या वन क्षेत्रों के मुकाबले काफी कम हो गई है। बढ़ता प्रदूषण और घटती हरियाली जुगनुओं के लिए खतरा बन रही है। यह दुखद है कि इस कीट को लेकर देश में कभी जागरूकता नहीं लाई गई और न ही पर्यावरणविदों ने कभी गंभीरता से इन पर गौर किया।

जुगनू न केवल कुदरत के अनमोल खजाने का भाग हैं, बल्कि वे हमारे बचपन की स्मृतियों का अमिट हिस्सा भी हैं। आज भी ये याद आते हैं, लेकिन दिखते नहीं। पारिस्थितिकी तंत्र में इन कीटों के महत्त्वपूर्ण स्थान के बारे में सब जानते हैं। जुगनू सिर्फ प्राकृतिक सौंदर्य के प्रतीक चिह्न नहीं, वे पर्यावरणीय स्वास्थ्य के संकेतक भी हैं।

इसे समझने की जरूरत है। वे पर्यावरण और जलवायु में होने वाले बदलावों का संकेत देते हैं। आमतौर पर जुगनू हमेशा स्वच्छ वातावरण में मिलते हैं। पत्तों में, मिट्टी के नीचे, जहां वातावरण पूरी तरह स्वच्छ होता है, वहीं ये अंडे देते हैं। यानी किसी स्थान पर हम जुगनुओं के होने या न होने से वहां के वातावरण की शुद्धता और अशुद्धता के बारे में सटीक अनुमान लगा सकते हैं।

वैज्ञानिकों ने शोध एवं अध्ययनों से जुगनुओं पर मंडराते खतरे के बारे में पहले भी कई बार आगाह किया है और कहा है कि जुगनुओं की संख्या में तेजी से आ रही गिरावट चिंताजनक है। इसके लिए जो कारण जिम्मेदार हैं, उन पर अध्ययन और चिंतन कर जुगनुओं को लुप्त होने से बचाने के लिए हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए। ऐसा अगर होता है, तो शेष रह गए इन कीटों का संरक्षण हो सकेगा।

अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि प्राकृतिक आवास का खात्मा, बढ़ता प्रकाश प्रदूषण, कीटनाशकों एवं रासायनिक खादों का अंधाधुंध इस्तेमाल, दलदली भूमि क्षेत्र के सिकुड़ने, खराब जल गुणवत्ता और जलवायु परिवर्तन की वजह से जुगनू संकट में हैं। इन स्थितियों से उन्हें बचाने की जरूरत है। बढ़ते शहरीकरण और वनों की कटाई ने जुगनुओं के प्राकृतिक आवासों को जिस कदर नष्ट कर दिया है, वह किसी से छिपा नहीं है।

जुगनुओं के प्रजनन और भोजन के लिए जरूरी खेतों, जंगलों और झीलों के खत्म होने से इनका अस्तित्व संकट में है। ये कीट अपनी मादा को आकर्षित करने के लिए रात में चमकते हैं, लेकिन यह दुखद है कि कृत्रिम रोशनी की चकाचौंध ने इनकी प्रजनन प्रक्रिया को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है। इससे उनकी संख्या पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने न केवल जुगनुओं की भोजन शृंखला को प्रभावित किया है, बल्कि उनके लार्वा के विकास को भी बाधित कर दिया है। तेजी से बदलते मौसम तथा असामान्य तापमान के प्रकोप की कीमत ये नन्हें कीट भी चुका रहे हैं। जलवायु परिवर्तन ने इनके जीवन चक्र को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है।

छह महीने पहले पेन स्टेट यूनिवर्सिटी, केंटकी विश्वविद्यालय, अमेरिकी कृषि अनुसंधान सेवा विभाग और बकनेल विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं की एक अनुसंधान रपट में भी जुगनुओं पर मंडराते संकट की ओर ध्यान आकर्षित किया गया था। इस अनुसंधान के मुताबिक, जहां गर्मियों में नम और गर्म परिस्थितियां जुगनुओं के प्रजनन के लिए आदर्श वातावरण पैदा करती हैं, वहीं शीतकाल के दिन अंडे, लार्वा और प्यूपा जैसे चरणों में उनके विकास में मददगार होते हैं।

मगर जैसे-जैसे वैश्विक तापमान में इजाफा हो रहा है और धरती गर्म हो रही है, जुगनुओं के पनपने का संकट बढ़ रहा है। वहीं वर्षा ऋतु चक्र में बदलाव की वजह से या तो बहुत शुष्क या फिर बहुत नम परिस्थितियां पैदा हो रही हैं, जिससे उनकी नस्लें प्रभावित हो रही हैं।

इसी प्रकार राष्ट्रीय तटीय अनुसंधान केंद्र चेन्नई के वर्ष 2022 में किए गए अनुसंधान भी जुगनुओं पर मंडराते संकट की ओर इशारा करते हैं। इस अध्ययन से पता चला कि भारत में कृत्रिम रोशनी जुगनुओं के प्रजनन पर गहरा प्रभाव डाल रही है। इससे ये कीट प्रजनन नहीं कर पा रहे हैं, जिससे इनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है।

पूरी दुनिया में प्रकाश प्रदूषण के कारण बढ़ते पर्यावरणीय खतरों के प्रति सचेत करने वाले इस अध्ययन में बताया गया है कि पिछले तीस वर्षों में जुगनुओं की संख्या में भारी गिरावट देखी गई है। उदाहरण के रूप में, आंध्रप्रदेश के बरनकुला गांव में 2019 में दस मीटर क्षेत्र में जुगनुओं की संख्या औसतन दस से बीस पाई गई, जबकि 1996 में यह संख्या पांच सौ से ज्यादा थी।

इस अनुसंधान के अनुसार इंसानों को रात में जिस कृत्रिम रोशनी की जरूरत पड़ती है, उससे जीव-जंतुओं के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जबकि पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को बनाए रखने में इन छोटे-छोटे कीटों का अहम योगदान रहता है। इनका विनाश पारिस्थितिकी असंतुलन को बढ़ाने वाला है। आधुनिक प्रकाश व्यवस्था इंसानों को रात में आसानी से रंगों को देखने में सक्षम बनाती है, लेकिन ये आधुनिक प्रकाश स्रोत अन्य जीव-जंतुओं की दृष्टि पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार जुगनुओं की संख्या में गिरावट पर्यावरणीय संकट का संकेत है। यह जैव विविधता के क्षय और पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन की ओर भी संकेत करता है। शोध-अध्ययन चेताते हैं कि अगर इस स्थिति को सुधारने के उपाय नहीं किए गए, तो इसका असर पर्यावरण पर पड़ना तय है।

दरअसल, कुदरत के बनाए प्रत्येक जीव-जंतु, पेड़-पौधे एवं कीट-पतंगे प्रकृति और मानवता के बीच संतुलन का प्रतीक हैं। जुगनुओं का अस्तित्व भी इस संतुलन के लिए जरूरी है। अगर हमने जुगनुओं के संरक्षण के प्रति उदासीनता बरती, तो हम न सिर्फ अपनी भावी पीढ़ियों को इस टिमटिमाते कीट से वंचित कर देंगे, बल्कि प्राकृतिक संतुलन को बाधित करने के दोषी भी हम ही होंगे।

हमें जुगनुओं के प्राकृतिक आवासों का संरक्षण करने, प्रकाश प्रदूषण को कम करने, जैविक खेती को बढ़ावा देने जैसे कदम उठाने ही होंगे। हर व्यक्ति को जुगनुओं के महत्त्व के बारे में शिक्षित और जागरूक करना होगा। जुगनू और ऐसे तमाम जीव, कीट, पेड़-पौधे और झाड़ियां जो संकट में हैं, उन्हें अपनी भावी पीढ़ियों और पर्यावरण के हित में बचाना हमारी जिम्मेदारी है। इस जिम्मेदारी का निर्वाह हर हाल में किया जाना चाहिए।