Delhi High Court: बंदरों को लेकर दिल्ली हाई कोर्ट ने सिविक एजेंसियों को इस बारे में जन जागरूकता अभियान चलाने पर जो दिया है। कोर्ट ने कहा कि शहर में बंदरों को खाना खिलाने से उन्हें कोई लाभ नहीं हो रहा है। इसके बजाय बंदरों की आबादी लोगों के साथ संघर्ष में आ रही है।

कोर्ट ने 30 सितंबर को अपने आदेश में अधिकारियों को बंदरों की समस्या से निपटने के लिए एक कार्यक्रम तैयार करने और उसे लागू करने का निर्देश दिया था। कोर्ट ने साथ ही कहा था कि लोगों को सार्वजनिक स्थानों पर भोजन रखने के परिणामों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे बंदर आकर्षित होते हैं।

यह देखते हुए कि जंगलों में बंदर पेड़ों की चोटी पर रहते हैं और जामुन, फल ​​और डंठल खाते हैं। कोर्ट ने कहा कि उनका मानना ​​है कि दिल्ली के नागरिकों में यह “स्वाभाविक ज्ञान” है कि एक बार जब उन्हें एहसास हो जाए कि “जंगली जानवरों को खिलाना जानवरों के कल्याण के साथ-साथ मानव कल्याण के लिए भी हानिकारक है”।

चीफ जस्टिस मनमोहन और जस्टिस तुषार राव गेडेला की पीठ ने आदेश में कहा कि आश्चर्य होता है कि आखिर बंदरों को सड़कों और फुटपाथों पर क्यों आना पड़ा? इसका जवाब है मनुष्य। हमने ही बंदरों को खाना खिलाकर उनके प्राकृतिक आवास से बाहर निकाला है। बंदरों को रोटी, चपाती और केले देने से उन्हें नुकसान होता है और वे लोगों के साथ टकराव में पड़ जाते हैं।

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कोर्ट ने कहा कि सार्वजनिक पार्कों, फूड हब, ढाबों और कैंटीनों आदि में खुले में कूड़ा फेंकने से बंदरों की आबादी बढ़ती है, जिससे मानव-पशु संघर्ष बढ़ता है… इस पहलू को भी सार्वजनिक जागरूकता अभियान में उजागर करने की जरूरत है, जिसे सिविक एजेंसियों द्वारा चलाया जाना चाहिए।

कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) और नई दिल्ली नगर पालिका परिषद (एनडीएमसी) को यह सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि बंदरों को सार्वजनिक पार्कों, अस्पतालों, सरकारी कार्यालयों और आवासीय क्षेत्रों से हटाकर असोला-भट्टी वन्यजीव अभयारण्य, नई दिल्ली में भेजा जाए।

आदेश में यह भी उल्लेख किया गया कि वन्यजीव संरक्षण कानून में संशोधन के अनुसार, दिल्ली में आम तौर पर पाए जाने वाले बंदरों की प्रजाति को संरक्षित प्रजाति की सूची से हटा दिया गया है और इसलिए उनके साथ आवारा कुत्तों और बिल्लियों के समान व्यवहार किया जाना चाहिए।