देश को स्वतंत्र कराने का जुनून उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में खींच ले गया और भारत की आर्थिक दशा और गरीबों की दुर्दशा ने उन्हें समाजवादी बना दिया। आचार्य नरेंद्रदेव का जन्म उत्तर प्रदेश के सीतापुर में हुआ था। उनके पिता कांग्रेस और सोशल कान्फ्रेंस के कामों में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी लेते थे। इस नाते उपदेशक, संन्यासी और पंडित उनके घर आया करते थे।
इस तरह बचपन में ही वे स्वामी रामतीर्थ, पंडित मदनमोहन मालवीय, पं. दीनदयालु शर्मा आदि के संपर्क में आ गए थे। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए किया और फिर पुरातत्त्व पढ़ने काशी के क्वीन्स कालेज चले गए। सन 1913 में एमए पास किया। घरवालों ने वकालत पढ़ने का आग्रह किया, तो राजनीति में भाग ले सकने की दृष्टि से कानून पढ़ा। 1915-20 तक पांच वर्ष फैजाबाद में वकालत की। इसी बीच असहयोग आंदोलन शुरू हो गया।
तब जवाहरलाल नेहरू की सूचना और अपने मित्र शिवप्रसाद गुप्त के आमंत्रण पर नरेंद्रदेव विद्यापीठ आ गए। वहां डाक्टर भगवानदास की अध्यक्षता में काम शुरू किया। 1926 में स्वयं अध्यक्ष हुए। काशी विद्यापीठ के अध्यापकों और विद्यार्थियों ने नरेंद्रदेव के नेतृत्व में देश के स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।
प्रयाग में अध्ययन करते हुए नरेंद्रदेव के विचार पुष्ट हुए। वहीं वे गरम दल के विचारों से प्रभावित हुए और जीवन भर उस पर दृढ़ रहे। गरम दल के होने के कारण 1905 में उन्होंने कांग्रेस के अधिवेशनों में जाना छोड़ दिया था। सन 1916 में जब दोनों दलों में मेल हुआ तब फिर कांग्रेस में आ गए। 1916 से 1948 तक अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य और जवाहरलाल की वर्किंग कमेटी के सदस्य भी थे।
खराब स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने 1930 के नमक सत्याग्रह, 1932 के आंदोलन तथा 1941 के सत्याग्रह आंदोलन में साहस के साथ भाग लिया और जेल की यातनाएं सहीं। फिर, जब 8 अगस्त, 1942 को गांधी जी ने ‘करो या मरो’ आंदोलन शुरू किया, तो मुंबई में नरेंद्रदेव भी कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ गिरफ्तार हो गए। 1942-45 तक जवाहरलाल नेहरू के साथ अहमदनगर के किले में बंद रहे।
1934 में उन्होंने जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया तथा अन्य सहयोगियों के साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। 1934 में हुए प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष नरेंद्रदेव ही थे। समाजवादी आंदोलन में आचार्य नरेंद्रदेव का वही स्थान रहा है, जो एक परिवार में पिता का होता है। वे किसानों के सवाल पर विशेष जोर देते थे और किसानों की भूमिका का विशेष मान करते थे। भारत में समाजवाद को राष्ट्रीयता और किसानों के सवाल से जोड़ना, नरेंद्रदेव की भारतीय समाजवाद को एक स्थायी देन है।
बौद्ध दर्शन के अध्ययन में उनकी विशेष रुचि और गति थी। अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘बौद्ध-धर्म-दर्शन’ उन्होंने पूरा किया। ‘अभिधम्मकोश’ भी प्रकाशित कराया था। ‘अभिधम्मत्थसंहहो’ का भी हिंदी अनुवाद किया था। उन्होंने प्राकृत तथा पालि व्याकरण हिंदी में तैयार किया था। बौद्ध दर्शन के पारिभाषिक शब्दों के कोश का निर्माण कार्य भी उन्होंने प्रांरभ किया था। उन्होंने ‘विद्यापीठ’ त्रैमासिक पत्रिका, ‘समाज’ त्रैमासिक, ‘जनवाणी’ मासिक, ‘संघर्ष’ और ‘समाज’ साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया। इनमें प्रकाशित उनके लेख, टिप्पणियों वगैरह के संग्रह हैं : ‘राष्ट्रीयता और समाजवाद’, ‘समाजवाद : लक्ष्य तथा साधन’, ‘सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद’, ‘भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास’, ‘युद्ध और भारत’, ‘किसानों का सवाल’ आदि।
