किसानों का आंदोलन कई दिनों से जारी है, सरकार के खिलाफ मजबूती से एक मोर्चा खड़ा कर दिया गया है। 12 मांगों के साथ लगातार अपनी आवाज को बुलंद किया जा रहा है। पिछली बार भी आंदोलन शुरू किया गया था, तब मकसद तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना था, इस बार सारा फोकस एमएसपी पर कानूनी गारंटी है। उस गारंटी के लिए ही सड़क पर उतर प्रदर्शन हो रहा है। लेकिन एक सवाल सभी के मन में है- इस आंदोलन को पूरे देश का माना जाए या फिर सिर्फ दो राज्यों का?

अब समझने वाली बात ये है कि वर्तमान आंदोलन का असर सबसे ज्यादा पंजाब और हरियाणा में देखने को मिल रहा है। दो संगठन- संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनैतिक) और किसान मजदूर मोर्चा सक्रिय रूप से इस आंदोलन में हिस्सा ले रहे हैं। राकेश टिकैट का संगठन भारतीय किसान यूनियन भी अपना समर्थन दे रहा है, लेकिन दक्षिण भारत से वो भागीदारी नदारद है। वहां का किसान उस तीव्रता के साथ इस आंदोलन में हिस्सा नहीं ले रहा जैसा हाल उत्तर में दिख रहा है। अब अगर कोई ट्रेंड दिखाई दे रहा है तो उसके अपने कारण भी हैं। ऐसा नहीं है कि दक्षिण के किसान समर्थन नहीं कर रहे है या उन्हें चिंता नहीं है, लेकिन कहा जा सकता है कि उनकी प्राथमिकता वो नहीं जो पंजाब और हरियाणा की है।

असल में समझने वाली बात ये है कि वर्तमान में सरकार सबसे ज्यादा एमएसपी गेहूं और धान पर देती है। वहीं दोनों गेहूं और धान का सबसे ज्यादा उत्पादन पंजाब और हरियाणा से होता है। इसका सीधा मतलब ये है कि यहां के किसानों को ही इसका सबसे ज्यादा फायदा मिलता है। इस लिस्ट में कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश जैसे राज्य काफी पीछे हैं। इसी वजह से जब उत्तर भारत के ये किसान एमएसपी की मांग करते हैं, दक्षिण के किसान ये बात भी समझते हैं कि उस लड़ाई में असल फायदा उन्हें नहीं बल्कि दूसरों को होने वाला है।

एक आंकड़े से इस बात की तस्दीक भी हो जाती है। भारत सरकार ने पंजाब के किसानों से 25,748 करोड़ रुपये खर्च कर 121.17 लाख मीट्रिक टन गेहूं खरीदा था। हरियाणा के लिए ये आंकड़ा 63.17 लाख मीट्रिक टन गेहूं पर 13,424 करोड़ रहा। तीसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश आता है जहां से सरकार ने एमएसपी पर 468 करोड़ रुपये तक का गेहूं खरीदा। अब ये आंकड़ा तो सिर्फ ये बताने के लिए है कि एमएसपी का ज्यादा फायदा पहले ही दक्षिण के राज्यों तक नहीं पहुंच रहा है, ऐसे में उनका प्रदर्शन में सक्रिय होना मुश्किल लगता है।

अगर और ज्यादा बारीकियों पर गौर करें तो दक्षिण भारत में जिन फसलों को उगाने पर फोकस किया जाता है, उन पर सरकार द्वारा ज्यादा एमएसपी नहीं मिल रही है। इसके ऊपर वहां खरीदारी सिस्टम भी ऐसा बना हुआ है कि कई मौकों पर एमएसपी से ज्यादा पैसा तो किसानों को खुद ही फसल बेचने से मिल जाता है। असल में दक्षिण में गन्ना, धान, कॉफी, काली मिर्च जैसी फसले ज्यादा देखने को मिलती हैं। अब ये वो क्रॉप हैं जिन पर एमएसपी अगर ना भी मिले, तब भी किसान इसे अच्छे दाम में बेच सकता है। वहां तो सरकारी मंडियों में भी सीधे फसल बेचने का रिवाज कई सालों से चला आ रहा है, ऐसे में बेहतर दाम की उम्मीद भी बनी रहती है।

इसके ऊपर दक्षिण के सभी राज्यों में ये चलन कई सालों से चला आ रहा है कि किसान को उसके नुकसान की भरपाई दी जाती है। अगर बाढ़ या बेमौसम बारिश से फसल बर्बाद होती है तो समय रहते किसानों तक मुआवजा भी पहुंचता है इसके ऊपर एक सच्चाई ये भी है कि दक्षिण के राज्यों में हर किसान के पास बहुत बड़ी जमीन नहीं है। हरियाणा-पंजाब के किसानों के पास तो काफी एकड़ में जमीन रहती है, उनके पास इतना पैसा भी है कि वे महीनों तक धरना दे सकते हैं। लेकिन दक्षिण के किसानों के पास अभी ये सुविधा नहीं दिखती है।

एक सच्चाई ये भी है कि दक्षिण भारत में जिस तरह की खेती की जाती है, वो ज्यादा श्रम आधारित मानी जाती है, वे छोटी जमीनों पर, कई बार तो किराये पर काम करते हैं। उनकी देखभाल भी उन स्थानीय संगठनों द्वारा की जाती है जो राजनीति में सक्रिय नहीं रहते हैं। इस वजह से भी उनकी मुहिम का राजनीति से जुड़ना मुश्किल लगता है। वहीं पंजाब-हरियाणा के किसानों के पास मजबूत सियासी समर्थन भी होता है।