Anjishnu Das

देश में किसानों का आंदोलन पिछले कई दिनों से जारी है। 13 मांगों लेकर किसान जमीन पर डटे हुए हैं और उनकी तरफ से सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है। किसानों की एक मांग कर्ज माफी से भी जुड़ी हुई है। सीधे कहा गया है कि जितना भी किसानों का कर्ज है, उसे माफ कर दिया जाए। अब इस फैसले को लागू करना काफी चुनौती का काम है, राजस्व पर जोर तो आएगा ही, इसका असल फायदा जमीन तक कितना पहुंचेगा, ये भी स्पष्ट नहीं।

आजाद भारत में सिर्फ दो बार ही ऐसे मौके आए हैं जब केंद्र सरकार द्वारा कर्ज माफी का ऐलान किया गया हो। वहां भी जानकार मानते हैं कि काफी छोटी पॉपुलेशन को ही टारगेट किया जा सका और कर्ज माफी का फायदा हर किसान तक कभी नहीं पहुंचा। अगर इतिहास के पन्नों को टटोला जाए तो सबसे पहले पूरे देश में कर्ज माफी का ऐलान वीपी सिंह की सरकार ने किया था। ये समय 1990-91 का था जब सत्ता में बीजेपी के समर्थन के साथ वीपी सिंह की सरकार बनी ही थी।

उस समय देश के जिन भी किसानों का कर्ज 10 हजार रुपये तक था, उसे माफ करने का ऐलान किया गया था। सरकार का तर्क था कि कर्ज में दबे रहने की वजह से देश का किसान गरीबी से बाहर नहीं निकल पा रहा था, ऐसे में उसे वो तत्काल राहत देने के लिए कर्ज माफी का ऐलान किया गया था। उस समय विपक्ष में कांग्रेस बैठती थी जिसने अलग-अलग तर्क देकर उस कर्ज माफी को गलत बताया था। यहां तक कहा गया था कि जो पैसा कर्ज माफी के लिए रखा गया, वो काफी कम था। बताया जाता है कि उस कर्ज माफी से करीब 3.2 करोड़ किसानों को फायदा पहुंचा था।

अब देश ने पहली बार तो कर्ज माफी देख ली थी, लेकिन दूसरी कर्ज माफी के लिए उसे 18 साल का इंतजार करना पड़ा। 1990 के कालखंड से निकलकर जब देश यूपीए के दौर में आया, तब 2008-09 में मनमोहन सरकार ने भी पूरे देश के लिए कर्ज माफी का ऐलान किया। उस ऐलान की सबसे बड़ी बात ये थी कि छोटे किसानों का तो सारा का सारा लोन माफ करने पर जोर दिया गया। इसके अलावा बड़े किसानों का भी 25 हजार तक का कर्ज माफ हुआ। उस बड़े ऐलान के लिए मनमोहन सरकार ने 52000 करोड़ से ज्यादा खर्च किए और करीब 3.7 करोड़ किसानों को सीधा फायदा पहुंचाया।

बड़ी बात ये है कि अगर 1990 में कांग्रेस विरोध वाली राजनीति कर रही थी, तो 2008 में बीजेपी ने भी काफी बखूबी के साथ उस जिम्मेदारी को निभाया। उसने भी यूपीए के कर्ज माफी को सवालों के घेरे में लाने का काम किया, अलग-अलग गणित देकर उस पूरे ऐलान हो ही फेल बताने का प्रयास हुआ। ये अलग बात है कि दूसरे कार्यकाल में यूपीए की जो वापसी हुई, उसमें इस कर्ज माफी का भी अहम योगदान रहा।

अब एक समझने वाली बात ये है कि कर्ज माफी पूरे देश के लिए करना एक काफी चुनौतीपूर्ण कार्य रहता है। सिर्फ चुनावी फायदे-नुकसान के आधार पर इसका ऐलान भर कर देना किसी भी सरकार का बजट बिगाड़ सकता है। इसी वजह से आजाद भारत में केंद्र द्वारा सिर्फ दो बार ही ये कदम उठाया गया। ऐसे में मोदी सरकार से ये उम्मीद करना कि वो अचानक से सभी किसानों का कर्ज माफ कर देगी, ऐसा मुश्किल लगता है। ये जरूर है कि राज्य दर राज्य कर्ज माफी का ट्रेंड काफी ज्यादा तेज हो चुका है।

शायद ही कोई ऐसा राज्य अब बचा है जहां पर सरकार ने इस कर्ज माफी का ऐलान ना किया हो। फर्क सिर्फ इतना रहता है कि राज्यों में कर्ज माफी ज्यादा बड़ा चुनावी मुद्दा माना जाता है। या सरकार में वापस आने के लिए कर्ज माफी को घोषणा पत्र में शामिल किया जाता है या फिर सरकार में रहने के लिए चुनाव से ठीक पहले ऐसा ऐलान होता है। अब कुछ आंकड़े बताते हैं कि दोनों ही स्थितियों में कुछ हद तक पार्टियों को फायदा होता भी है।

साल 1987 में हरियाणा में सबसे पहले कर्ज माफी की गई थी, उस समय राज्य की कमान लोक दल नेता चौधरी देवी लाल के हाथ में आई थी। ऐलान किया गया था कि किसानों का दस हजार तक का कर्जा माफ कर दिया जाएगा। राज्य का बजट तब सिर्फ 60 करोड़ था, ऐसे में कर्ज माफी के लिए आम आदमी पर टैक्स बढ़ा दिया गया और बॉन्ड भी जारी किए गए। हरियाणा का ऐलान दूसरे राज्यों के लिए नजीर बना और देखते ही देखते 1996 में तमिलनाडु की डीएमके सरकार भी खुद को कर्ज माफी करने से नहीं रोक पाई। ये अलग बात रही कि तब सिर्फ ब्याज को माफ किया गया, प्रिंसिपल सम को नहीं।

बात अगर तमिलनाडु और तेलंगाना जैसे राज्यों की करें तो वहां तो हर साल ही कभी ना कभी कर्ज माफी जैसी स्कीम किसानों के लिए लॉन्च कर दी जाती है। अब इसी ट्रेंड पर एक आंकड़ा कहता है कि 1987 से 2020 के बीच अगर राज्य चुनाव से पहले कर्ज माफी की जाती है तो 21 चुनावों में सिर्फ पार्टी 4 चुनाव ही हारती है। ये अलग बात है कि हाल के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अपनी कर्ज माफी का ज्यादा फायदा नहीं हुआ और उसे राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ हाथ से गंवाना पड़ा।

अब तमाम अर्थशास्त्री सामने से आकर कह सकते हैं कि कर्ज माफी कोई परमानेंट समाधान नहीं है, लेकिन देश की एक सच्चाई ये भी है कि जहां पर छोटे किसान ज्यादा हैं जिनके पास जमीन का टुकड़ा भी काफी छोटा ही रहता है। ऐसे किसानों की आबादी 60 फीसदी से भी ज्यादा है और उनकी इनकम भी नेशनल आंकड़े से कम बैठती है। ऐसे में कर्ज किसानों पर है, ये एक तथ्य है, इसके ऊपर वो उसे चुकाने की स्थिति में नहीं, ये उससे बड़ा तथ्य है। अब किस तरह से दूरगामी सोच को ध्यान में रखते हुए किसान के लिए कदम उठाए जाते हैं, उस पर आगे की राह निर्भर करने वाली है।