परमजीत सिंह वोहरा
इन दिनों एक बार फिर से 1991 के आर्थिक सुधारों का जिक्र होने लगा है। आर्थिक सुधारों को भुलाया नहीं सकता। उसी के चलते आज भारत दुनिया की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था है। हालांकि वैश्विक अर्थव्यवस्था की इस दौड़ में हमने जीडीपी को आधार बनाया है, जबकि तस्वीर का दूसरा पक्ष यह भी है कि प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से विकसित होने में हम खुद 2047 तक का समय लेकर चल रहे हैं।
क्या देश में देर से शुरू हुआ इकोनॉमी रिफॉर्म
4 जून, 1991 को संसद में तत्कालीन वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने बजट भाषण में कहा था कि ‘इस पृथ्वी पर ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो उस विचार को रोक सके, जिसके आने का समय निश्चित हो।’ तत्कालीन सरकार उस समय की दुर्बल आर्थिक स्थिति को देखते हुए बहुत दृढ़ संकल्प थी कि आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत अभी कर देनी चाहिए, वरना बहुत देर हो जाएगी। हालांकि, यह प्रश्न अब भी कई बार उठता है कि क्या आर्थिक सुधार भारत में देरी से नहीं हुए थे? मगर उस खबर को भुला देना बहुत गलत होगा कि ‘भारत बहुत विकट आर्थिक स्थिति के दौर से गुजर रहा है और इसके चलते भारत सरकार को अपने देश का सोना विदेशी बैंकों में गिरवी रखना पड़ रहा है, ताकि विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाया जा सके।’
डॉ. मनमोहन सिंह ने शुरू किया था बदलाव
इससे भारतीय समाज में तब खासी हलचल मच गई थी। तब लोकतांत्रिक विरोधों के पूर्वानुमान को भांपते हुए तत्कालीन सरकार ने आर्थिक सुधारों को लागू कर दिया था। उन्हीं सुधारों की देन है कि तब के 270 अरब अमेरिकी डालर से चलते-चलते आज भारत का जीडीपी चार खरब अमेरिकी डालर के आसपास पहुंच चुका है।
उन आर्थिक सुधारों का एक सच यह है कि इन्हीं के चलते आम भारतीयों के सपनों को पंख लगे, अन्यथा आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में यह संभव नहीं था। और तो और, अगर ये आर्थिक सुधार इस मुल्क में कुछ समय पूर्व लागू कर दिए गए होते तो यकीनन आज भारत प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से भी विश्व की बड़ी आर्थिक महाशक्ति होता। याद करिए, आजादी के बाद के पहले तीन-चार दशकों तक भारत की आर्थिक विकास दर तकरीबन तीन से चार फीसद के बीच ही थी, जबकि नब्बे के बाद से यह दर सात फीसद या उससे अधिक रही। इसी कारण आज आजाद भारत की तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधि अपने आप को पूर्व की दो पीढ़ियों से अधिक आर्थिक संपन्न पाती है और इसीलिए उन आर्थिक सुधारों को बड़ी आर्थिक ऐतिहासिक घटना के संदर्भ में लिया जाता है।
एक बार फिर से पीछे चलें और जरा याद करें वह दौर, जब घर में टेलीफोन लगाने के लिए दो से तीन वर्ष तक का इंतजार करना पड़ता था और आज हम विश्व में मोबाइल पर इंटरनेट के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं। आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के बाद से आमजन का जीवन पूरी तरह बदल गया, जिसमें उसके व्यक्तिगत जीवन में बहुत सुविधा आ गई है। वह बहुत पुरानी बात नहीं, जब घर में एक टीवी हुआ करता था और उसे देखने के लिए छत पर जाकर दूरदर्शन का एंटीना कई बार हिलाना पड़ता था।
अब तो सेटेलाइट टीवी का दौर है और चैनलों की संख्या अनगिनत है। बड़े शहरों में ‘मल्टीप्लेक्स’ का जमाना है। इन सबके बीच मनोरंजन क्षेत्र में हुई क्रांति ने ‘ओटीटी प्लेटफार्म’ को एक बेहतरीन जगह दे दी है। अब दिवाली और धनतेरस पर आम उपभोक्ता की खरीदारी का चलन हर वर्ष बड़ी तेजी से बदल रहा है। अगर इन त्योहारों पर दुपहिया वाहनों और कारों की बिक्री कम हो जाए तो आर्थिक विश्लेषक भारत में मंदी की सुगबुगाहट देखने लगते हैं।
भारत का विशाल बाजार, जिसमें उसके उपभोक्ता की क्रय क्षमता सबसे बड़ी सत्ता रखती है, का आकर्षण पूरे विश्व में है। वर्तमान समय की इस सच्चाई के पीछे का आधार, नब्बे के आर्थिक सुधारों की मुख्य सोच ‘एलपीजी’ है। यह भी समझना होगा कि तब के सुधारों में सबसे अधिक महत्त्व उदारीकरण को इसलिए दिया गया था, कि उसी के माध्यम से सबसे पहले निजी निवेश तथा उसके बाद विदेशी निवेशकों को भारत में प्रोत्साहन मिले। उसी के चलते आज भारतीय अर्थव्यवस्था उस कगार पर खड़ी है, जहां केंद्र सरकार खुद पूंजी निवेश के लिए बजट में दस लाख करोड़ की बड़ी राशि आबंटित करती है, तो वहीं दूसरी तरफ इससे निजी निवेश भी लगातार बढ़ रहा है। इन सबके चलते ही विदेशी निवेशकों के लिए आज भारत सबसे आकर्षक जगह है।
हालांकि, कई अर्थशास्त्री इस बात के भी बड़े पक्षकार रहे हैं कि शेयर बाजार की तरक्की अर्थव्यवस्था की वास्तविक तरक्की को प्रदर्शित नहीं करती। इसके बावजूद अब यह समझना होगा कि आज भारत का पूंजी बाजार कुछ हद तक आत्मनिर्भर हो रहा है। अब भारतीय निवेशकों में ‘एसआइपी’ यानी ‘सिस्टमेटिक इनवेस्टमेंट प्लान’ में निवेश करने का अपना एक अलग ही आकर्षण है। म्युचुअल फंड के माध्यम से ‘एसआइपी’ में निवेश से शेयर बाजार में जोखिम तुलनात्मक रूप से काफी कम हो जाता है।
इसी कारण अब विदेशी निवेशकों की भारतीय पूंजी बाजार के प्रति सोच भी बदली है। इन सबके बावजूद, आज अगर भारत गरीबी का वास्तविक विकल्प नहीं निकाल पा रहा, तो इसका एक कारण यह भी है कि नब्बे के आर्थिक सुधारों से सबसे अधिक फायदा निजी क्षेत्र को मिला है। इसी के चलते भारत में आर्थिक विषमता जैसी समस्या, जिसे अमीरों और गरीबों के बीच में खाई के रूप से जाना जाता है, बहुत बढ़ गई है।
यह अचंभित करने वाली बात है कि जीडीपी के हिसाब से विश्व की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था वाला मुल्क विश्व की गरीबी में तकरीबन बीस फीसद का हिस्सा रखता है। हमने इंग्लैंड को जीडीपी में पीछे तो छोड़ दिया, लेकिन प्रति व्यक्ति आय के मामले में हम उससे आज भी बहुत पीछे हैं, क्योंकि नब्बे के आर्थिक सुधारों में शायद प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के संबंध में कोई ठोस विकल्प नहीं था। यहां भारत की विशाल जनसंख्या को एक नकारात्मक पक्ष मानना तार्किक नहीं लगता, क्योंकि इसी जनसंख्या के मध्यवर्ग की क्रय क्षमता आर्थिक विकास की मुख्य आधारशिला है। फिर, जनसंख्या के गरीब तबके का निवारण क्यों न अपेक्षित हो? शायद इस प्रश्न का उत्तर आर्थिक सुधारों के निर्माता और उसे वास्तविक रूप में क्रियान्वन करने वालों के पास है।
अब चुनावों की गहमागहमी शुरू हो गई है और इस समय राजनीतिक निर्णयों और चर्चाओं में अगर आर्थिक मुद्दों की बातें अपना असर डाल रही हैं, तो यह लोकतंत्र के लिए एक अच्छी बात है। मगर आमजन कहां तक इस राजनीति को समझेगा, क्योंकि मौजूदा सरकार जहां आर्थिक सुधारों के निर्माता पीवी नरसिम्हा राव को भारत रत्न देती है, तो वहीं आर्थिक सुधारों के जनक मनमोहन सिंह सरकार के दस साल को श्वेत पत्र के जरिए भारत की आर्थिक प्रगति में सबसे नीचे रखती है।