जलवायु वैज्ञानिकों का अनुमान है कि आने वाले वक्त में बरसात के मौसम में लू चलने की आवृत्ति ज्यादा हो सकती है और इसका असर कई तरह की गंभीर समस्याओं और बीमारियों को जन्म देने वाला हो सकता है। भारत में बरसात में यह असामान्य दौर ऋतुचक्र में आए बदलाव का सूचक है, जो बढ़ते वैश्विक तापमान और परिवर्तित वर्षा रुझान से जुड़ा है।
इस साल बरसात के इस मौसम में देश के कई हिस्सों में अप्रत्याशित रूप से लू चलने और कई हिस्सों में विकट उमस से लोगों को दो-चार होना पड़ रहा है। वहीं दूसरी तरफ हिमाचल, गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तराखंड आदि में अतिवृष्टि से जन, धन, मवेशी और फसलों का बहुत बड़े पैमाने पर नुकसान हो रहा है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में कई गांव भूस्खलन से दब गए। उधर देश के कई हिस्सों में सूखे जैसे हालात देखे जा रहे हैं।
यानी जलवायु परिवर्तन का असर देश भर में दिखाई देने लगा है। बरसात न होने की वजह से हजारों किसान खरीफ फसल की बुआई नहीं कर पाए हैं, तो जरूरत के मुताबिक बरसात न होने से खेतों में खड़ी फसल सूखने लगी है। जलवायु विशेषज्ञ इस हालात को जलवायु खतरे के रूप में देख रहे हैं। ‘क्लामेंट सेंटल’ के मौसम वैज्ञानिकों के विश्लेषण से पता चला है कि पिछले दो महीनों में मानसून के दौरान अप्रत्याशित लू ऋतुचक्र के बदलाव और असंतुलित होने का सूचक है।
गौरतलब है कि यह असामान्य घटना उन इलाकों में ज्यादा देखी जा रही है, जहां मानसूनी वर्षा देर से हुई या बहुत कम हुई। ‘क्लामेंट सेंट्रल’ के विश्लेषण में पाया गया कि मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के कारण जून में लोगों को अत्यंत विकट गर्मी का सामना करना पड़ा। यह सामान्य गर्मी से बहुत ज्यादा थी। सैकड़ों लोगों को अस्पतालों में भर्ती होना पड़ा और कई लोगों की मौत हो गई थी।
जाहिर तौर पर एक दशक से देश में जलवायु परिवर्तन का असर दिखाई दे रहा है, लेकिन इस साल जून, जुलाई और अगस्त में मानसून के दौरान हालात वैसे नहीं रहे जैसे आमतौर पर होने चाहिए। वैज्ञानिकों के मुताबिक जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन और तीव्र होगा, बाढ़, लू और चक्रवात जैसी भयावह घटनाएं गंभीर हो जाएंगी। बदलते ऋतुचक्र से बढ़ते जोखिमों से निपटने के लिए तत्काल जलवायु कार्रवाई, अनुकूलन उपाय और वैश्विक ग्रीन हाउस गैसों की कटौती पर कार्य करने की जरूरत बताई जा रही है।
अप्रत्याशित बदलाव जहां ऋतुओं के स्वभाव में बदलाव की वजह बन रहा है, वहीं नई बीमारियों, जीव-जंतुओं के लिए खतरा, पीने के पानी की समस्या, फसलों की बर्बादी, बागवानी का अत्यंत नुकसान, धरती के बंजर होने, मवेशियों की बड़ी तादाद में मौत, बढ़ती महंगाई जैसी समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं। ग्रीन हाउस गैसों का असर अब बेहद खतरनाक दिखने लगा है। बावजूद इसके ग्रीन हाउस गैसों को कम करने के प्रति प्रतिबद्धता दुनिया के देशों में कुछ देशों को छोड़कर, नहीं दिख रही है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक विकट बरसात, विकट सर्दी और विकट गर्मी या गर्मी के महीने में गर्मी न पड़ने की वजह ऋतुचक्र में आया बदलाव है, यह वैश्विक ताप और लगातार विक्षेप के हालात बने रहने की वजह से हो रहा है। जलवायु वैज्ञानिकों का अनुमान है कि आने वाले वक्त में बरसात के मौसम में लू चलने की आवृत्ति ज्यादा हो सकती है और इसका असर कई तरह की गंभीर समस्याओं और बीमारियों को जन्म देने वाला हो सकता है।
भारत में बरसात में यह असामान्य दौर ऋतुुचक्र में आए बदलाव का सूचक तो है, जो बढ़ते वैश्विक तापमान और परिवर्तित वर्षा रुझान से जुड़ा है। गौरतलब है कि वैश्विक तापमान और आंधियों, बर्फीले तूफानों, शीत के लंबे समय तक बने रहने और जून में तापमान का लगातार सीमा से ज्यादा बढ़ते जाने से दुनिया के वैज्ञानिकों के सामने कई तरह की चुनौतियां पैदा हो गई हैं कि इस विकट समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? यह धरती पर प्राणी के अस्तित्व पर ही संकट बढ़ते जाने का एक पूर्व संकेत है, जिसे कोई भी देश नजरअंदाज नहीं कर सकता।
पश्चिमी एशियाई देशों में ऋतुचक्र में जो लगातार बदलाव देखने को मिल रहा है वह सामाजिक जीवन पर ही नहीं, सांस्कृतिक और आर्थिक हालात पर गहरा असर डाल रहा है। इससे जहां नई-नई बीमारियां पैदा होने लगी हैं, वहीं फसलों, फूलों, फलों और मेवों के उत्पादन पर भी असर देखने को मिल रहा है। ताजा अध्ययन बताता है कि हिमालय के ग्लेशियर बहुत तेजी से पिघल रहे हैं।
इससे आने वाले वर्षों में भारत और पाकिस्तान में पानी का संकट बहुत अधिक बढ़ सकता है। ग्लेशियरों के पिघलने की वजह, धरती का बढ़ता तापमान है। जिस तरह विषैली गैसों का वायुमंडल में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, उससे वातावरण का संतुलन तेजी से बिगड़ रहा है। आए दिन अनेक तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं। इनमें अनेक नई बीमारियों का पैदा होना, ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्र का जल स्तर का बढ़ना, ऋतुचक्र का गड़बड़ होना, वनस्पतियों, जानवरों और पक्षियों के स्वभाव में बदलाव जैसी अनेक समस्याएं आमतौर पर देखी जा सकती हैं।
श्रीनगर में अंतरराष्ट्रीय कार्यशाला में दुनिया के तमाम देशों के वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों और विचारकों ने दो वर्ष पूर्व अपने अध्ययन में यह पाया था कि हिमालय का कोलाहोई ग्लेशियर पिछले पैंतीस वर्षों से तेजी के साथ पिघल रहा है। पिछले सात सालों में इसके पिघलने की रफ्तार और तेज हुई है। पिछले तीन दशकों में यह 2.63 वर्ग किलोमीटर तक सिकुड़ गया है।
जाहिर तौर पर हिमालय के ग्लेशियर ही पश्चिम एशिया की नौ सबसे बड़ी नदियों के स्रोत हैं। ये नदियां भारत के अलावा चीन, बांग्लादेश, म्यांमा और पाकिस्तान में मुख्य रूप से बहती हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक कोलाहोई ग्लेशियर .08 वर्ग किलोमीटर प्रति वर्ष की दर से पिघल रहे हैं। इसके अलावा कश्मीर में दूसरे ग्लेशियर भी तापमान बढ़ने के कारण लगातार पिघल रहे हैं। इससे हिमालय के आसपास के देशों में आने वाले वर्षों में बड़ी तबाही मच सकती है।
पिछले कुछ सालों में जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड की जलवायु में अचानक जो बदलाव देखने को मिल रहा है, उससे यह साबित होता है कि मौसम-चक्र में आया यह बदलाव आने वाले वक्त के लिए अच्छा संकेत नहीं है, इसलिए अभी से सावधान हो जाना चाहिए। जाहिर तौर पर कश्मीर में कई महीनों तक बर्फबारी होती थी, लेकिन अब मौसमी बर्फबारी उतनी नहीं होती है और उन महीनों में भी बर्फबारी होने लगी है, जब मौसम सुहावना होना चाहिए।
मानसून के दौरान लू का चलना या विकट उमस का होना, ठंड में बहुत कम ठंड पड़ना या फरवरी में सामान्य से बहुत ज्यादा गर्मी पड़ना, बरसात में कुछ इलाकों में ही बहुत ज्यादा बरसात होना, ये लक्षण आम नहीं हैं, जो पहले दिखाई नहीं देते थे। भारत में जैसे हालात अब दिखाई देते हैं, उन्हें आम कह कर टाल नहीं सकते।
वैज्ञानिकों की चिंता यह है कि बढ़ते वैश्विक तापमान को कम करने की तरफ देशों में सहयोग उस तरह का नहीं दिखाई दे रहा है, जैसा होना चाहिए। इस वजह से समस्याएं आने वाले वर्षों में और ज्यादा बढ़ेंगी, जिससे इसका असर इंसान सहित धरती पर रहने वाले सभी जीव-जंतुओं पर होगा। इसलिए दुनिया के सभी देशों में इस बाबत सामूहिक सहयोग के लिए एक माहौल बनाया जाना चाहिए।
गौरतलब है कि पिछले सालों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती पर वह सहमति नहीं बन पाई है, जिससे ग्रीन हाउस गैसों के गहराते संकट को कम करने के लिए कुछ उम्मीद दिखाई देती है। फिर भी आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वक्त में ग्रीन हाउस गैसों की समस्या के समाधान के लिए वैश्विक स्तर पर सहमति बनेगी और ऋतुचक्र के बदलाव की वजह से घटने वाली घटनाओं में कमी आएगी।