हमारे गांव में अब वीरान जगहें नहीं बची हैं। कई तालाब-पोखर सिकुड़ गए हैं और उनके चारों तरफ घर बन गए हैं। हमारे बचपन में कुछ ऐसी सुनसान जगहें थीं, जहां ताल -पोखर से लगे घने बांस थे और वीरान धरती पर जंगली पेड़ और झाड़ियां थीं। बचपन में जेठ की दुपहरी में भी डर के कारण हम लोग अकेले इन जगहों से होकर नहीं जाते थे। जब पछुआ बयार बहती और चारों तरफ सन्नाटे के बीच बांस, आपस में टकराकर चोए-चोए बोलते थे तो बच्चों के लिए डरना स्वाभाविक था।

तालाबों में बेहया की घनी झाड़ियां हुआ करती थीं जिनमें बनमुर्गी, बगुले, बया, महोका आदि तरह-तरह के पंछी बैठे रहते थे। फलदार पेड़ों में आम की बहुतायत होती थी। आम के फल पर तोते का विशेष आकर्षण तो रहता ही था, पुराने आम के पेड़ तोतों के रेन बसेरे हुआ करते थे। कई बार आम के तने के ऊपरी हिस्से में, तोते के अंडे और छोटे बच्चे दिख जाया करते थे। हम बच्चों के लिए आम के पेड़ पर चढ़ना एक सामान्य कौशल होता था और गांव में बच्चे लखनी नाम का खेल खेलते, जिसमें पेड़ पर चढ़ना अनिवार्य होता था।

घर-आंगन और इनार पर जब गेहूं -दाल सूखने के लिए फैलाए जाते थे तो गोरैया, कबूतर, मैना मंडराते रहते। गर्मी के दिनों में जब बैलों से गेहूं की दवंरी होती थी और घर के वयस्क लोग दोपहर में खाना -खाने जाते तो घर के बच्चे रखवाली के लिए खलिहान में आ जाते थे। उसी दोपहरी में कई बार, जब साइकिल में लकड़ी की पेटी बांध कर कोई ‘मलाई बर्फ’ बेचने वाला आता तो बच्चों का मन ललच जाता।

आज आक्सफर्ड, कैंब्रिज, लंदन जैसे विश्वविद्यालय के सैंकड़ों छात्र पर्यावरण सुरक्षा के लिए इस बात की शपथ ले रहे हैं कि वह उन कंपनियों में नौकरी नहीं करेंगे जो जीवाश्म ईंधन जैसे कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के क्षेत्र में कार्य कर रही हैं और पर्यावरण खतरे को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं। पिछले वर्ष जुलाई में ब्रिटेन में भीषण गर्मी पड़ने लगी थी और लोगों को कूलर -पंखे की जरूरत पड़ने लगी थी। जीवाश्म ईंधन के बिना अभी दुनिया का कारोबार चलना मुश्किल है, लेकिन इसकी उपयोगिता कम करके वैकल्पिक ऊर्जा पर अधिक जोर देना होगा ।

पर्यावरण चिंता बहस के केंद्र में आ रही है। छात्र जर्मनी, आस्ट्रेलिया के कुछ विश्वविद्यालय – विद्यालयों में पर्यावरण की चिंता को लेकर बहस चला रहे हैं। जी -20 की बैठक में भी यह चिंता जताई गई है, क्योंकि दुनिया में औसत तापमान बढ़ रहा है और इसके साथ अकाल का खतरा भी।

नाइजीरिया और भारत के कुछ इलाकों में यह संकट अधिक गहरा सकता है। माना जाता है कि मानव के लिए 13 से लेकर 25 डिग्री सेल्सियस के बीच का तापमान अनुकूल होता है और इससे कम और अधिक तापमान भोजन उत्पादन, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह हो सकता है। लेकिन बढ़ती जनसंख्या और पर्यावरण खतरे से दुनिया में औसत तापमान 29 डिग्री सेल्सियस हो जाने की संभावना है।

तो मैं सोच रहा हूं कि उत्तर भारत के गांवों में जो सुनसान जगहें थीं, पोखर -तालाब थे, बांस, जामुन, महुआ, आम, अमरूद, बरगद, पीपल आदि के पेड़ थे- वे कहां चले गए? उन पर रहने वाले पक्षी, तितलियां, जुगनू, खेतों में रहने वाले सियार -खरहा कहां चले गए? क्या जब तितलियां नहीं बचेंगी तो मनुष्य बचेगा? पक्षी, कीट-पतंगों के बिना परागण नहीं होगा और अकाल की स्थिति पैदा हो जाएगी।

पर्यावरण पर खतरे के बढ़ते दौर में मुझे नंबरदार बाबा याद आ रहे हैं, जिनको देख कर बचपन में मुझे पेड़ लगाने का सबक मिला था। मेरे गांव के नंबरदार बाबा की शादी नहीं हुई थी। जवानी में पहलवान रहे बाबा के दोनों पैर बुढ़ापे के कारण टेढ़े हो गए थे। मैंने पेड़ों के प्रति उनका जुनून देखा था। अपनी शारीरिक मुश्किलों के बावजूद, वह आधा किलोमीटर दूर तालाब से घड़े में पानी लाते और नए पौधे लगाते।

चूंकि, खलिहान सामूहिक था और गाय -बकरी -भैंस घूमती रहतीं थी तो पेड़ों के बचाव के लिए वह थोड़ी -थोड़ी मिट्टी लाकर, उनके चारों तरफ ओटा (मिट्टी की दीवार ) बनाते थे। तीन दशक पहले वह गुजर गए, लेकिन उनके लगाए कुछ पेड़ आज भी मौजूद हैं जो लोगों को उनकी याद दिलाते हैं। बिडंबना यह है कि देश में पानी के प्राकृतिक स्रोत, पेड़ -पक्षी कम हो रहे हैं। हमारे बीच नंबरदार बाबा जैसे लोग भी रहे नहीं। और गांव में कूलर और एसी लगाने की होड़ जरूर चल पड़ी है।